साभार ---
अहा ! जिन्दगी के सम्पादकीय से सम्पादक आलोक श्रीवास्तव्
समय - द्वार पर इतिहास की दस्तक
भारत इतिहास के एक नये मुहाने पर खड़ा है | 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई | 1947 में उसका काम खतम हो गया था | 1925 में हिंदुत्व के विचारों पर आधारित राजनीतियो का एक नया आविर्भाव आर एस एस के रूप में हुआ , भविष्य में जनसंघ और भाजपा जिसकी राजनितिक अभिव्यक्तिया बनी | इतिहास की इकहरी व्याख्या और उसकी उतनी गहरी पीड़ा से हिंदुत्व की यह राजनीति जन्मी थी | उसका उत्स साम्प्रदायिकता और हिटलर - मुसोलीन के फासीवाद में नही , अतीत में पराजित हिन्दू राजसत्ताओ की दुखद स्मृतियों में था | हाँ , बाद में प्रशाखाए साप्रदायिकता और हिटलर - मुसोलीन तक भी गयी | 1992 के बाबरी ध्वंस और 2014 के आम चुनाव इसके नजरिये से इसकी उपलब्धिया तो है , पर अंतिम सीमाए भी | एक तरह से इस राजनीति का भी यह समापन - पर्व है | कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म भी 1925 में हुआ | मार्क्स या लेलिन को यदि यह अवसर मिलता कि भारत में इस पार्टी की राजनितिक - समाजिक समझ और विमर्श को और बाद में राजनीतिक लाइनों के आधार पर हुए विभाजनो को देख - समझ पाते तो उनके पास अपना सर पीटने को छोड़कर शायद कोई काम बचता | भारत की सारी वामपंथी राजनीति नीतिगत रूप से रूस और चीन के राष्ट्रीय स्वार्थो की अनुगामी होकर रह गयी | भारतीय दार्शनिक परम्पराओं और जनता के जीवन से ऊर्जा नही ग्रहण कर सकी | और अपने आरम्भ से ही अपने अंत की कहानी लिखने में लग गगई |
इस प्रकार तीन विचारधाराए , तीन राजनितिक दल हिन्दुस्तान के जन जीवन के क्षितिज पर उभरे और अपनी - अपनी सकारत्मक - नकारात्मक भूमिकाये निभा कर अब एक अंत पर खड़े है -- आज से नही अनेक सालो से , पर दुराग्रह बने रहने का है | इस दुराग्रह को खाद - पानी भारत की उस मध्यमवर्गीय जनता से मिलता रहा है , जो कभी इनमे अपनी आर्थिक स्थितियों को बेहतर होता देखती है , तो कभी अपनी रुढियो की सलामती देखती है , अपने विश्वासों , मान्यताओं ही नही अपनी जातीय पहचानो और एक उहापोह में लिपटे से मानसिक जगत को बना रह पाती है |
इस थोड़े से राजनितिक व्योरे का सन्दर्भ यह है कि आज भारत जहा खड़ा है , वहा उसे एक नई राजनीति चाहिए | भारत को एक नया समाज चाहिए | और यदि क्रान्ति की बात करे , तो भारत को नई क्रांति चाहिए | राष्ट्रवाद की बाते करे , तो भारत को एक नया राष्ट्रवाद चाहिए | भारत की केन्द्रीय सत्ता पर भारत के नागरिक समाज का शासन चाहिए --- एक ऐसे नागरिक समाज का शासन , जो यह समझ रखता हो कि भारत आज भी गाँवों का देश है , और इसकी सम्पूर्ण सामाजिक सरचना में बदलाव की जरूरत है | इतिहास ने भारत को बार - बार यह सिखाया है कि वह दुनिया के उन राष्ट्रों में से है जो अपने कैसे भी वर्तमान को अपनी इच्छाशक्ति से पलटने की सामर्थ्य रखता है | यह भारत का 19 वी सदी का भारत नही है , 20 वी सदी के आरम्भ और अंत का तो दूर - यह 21 वी सदी के आरम्भ का भारत भी नही है | यह भारत जाग रहा है , करवटे बदल रहा है और अब उठ खड़ा होना चाहता है |
परिवर्तन की आहटे दसो दिशाओं से है देश के समस्त सामाजिक जीवन और सामाजिक ढाँचे पर है | ग्लोब्लाईजेशंन का झुनझुना बज कर थम चुका है | विकास के पहिये अवरुद्द है | झूठे नारों का इस साइबर स्पेस से लम्बा जीवन नही चल सकता | गाँव - शहर - कस्बे में जिन्दगी यदि बदली नही भी है , तो बदलना चाहती है | जन असंतोष को दिशा नही मिली है तो भी उसे दिशा की तलाश है और जरुरत भी | परम्परागत राजनीति की चूले हिल चुकी है | भले वही नेता , वही दल जीतकर संसद और विधानसभा में पहुच रहे है | यह बात सिर्फ इसकी सूचक है की जनता अपना चुनने का अधिकार छोड़ना नही चाहती , इसीलिए वे चुने जा रहे है , न कि इसलिए कि वह उन्हें ही चुनना चाहती है | नये नेता किसी अन्तरिक्ष से नही आयेगे | किसी करिश्मे से भी नही और विलक्ष्ण व्यक्तित्व के किसी अनूठेपन से भी नही | वे आयेगे उन सवालों और मुद्दों से जिनसे भारत की जनता अब न तो बच सकती है , न जिन्हें वह अब अनदेखा कर सकती है और न जिनके आगे घुटने टेक सकती है | एक नया भारत बन रहा है | भारात का इक नया मनोविज्ञान बन रहा है | इस मनोविज्ञान को एक नई राजनीति गढ़नी ही पड़ेगी |
आधुनिकता , लोकतंत्र , समता , सामाजिक नवीनीकरण , जहा देश के आन्तरिक मोर्चे है , वही वैश्विक स्तर पर इस भारत को अपनी स्वतंत्र आर्थिक सत्ता का निर्माण करना होगा , जो बुरी तरह से ताकतवर देशो के हितो में उलझकर रह गयी है | इस सबके लिए युवा पीढ़ी को एक गहरी सांस्कृतिक और बौद्दिक तैयारी की दरकार है | यह बदलता हुआ समय हर किसी से सवाद करना चाहता है , और साक्षी होना भी |
अहा ! जिन्दगी के सम्पादकीय से सम्पादक आलोक श्रीवास्तव्
समय - द्वार पर इतिहास की दस्तक
भारत इतिहास के एक नये मुहाने पर खड़ा है | 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई | 1947 में उसका काम खतम हो गया था | 1925 में हिंदुत्व के विचारों पर आधारित राजनीतियो का एक नया आविर्भाव आर एस एस के रूप में हुआ , भविष्य में जनसंघ और भाजपा जिसकी राजनितिक अभिव्यक्तिया बनी | इतिहास की इकहरी व्याख्या और उसकी उतनी गहरी पीड़ा से हिंदुत्व की यह राजनीति जन्मी थी | उसका उत्स साम्प्रदायिकता और हिटलर - मुसोलीन के फासीवाद में नही , अतीत में पराजित हिन्दू राजसत्ताओ की दुखद स्मृतियों में था | हाँ , बाद में प्रशाखाए साप्रदायिकता और हिटलर - मुसोलीन तक भी गयी | 1992 के बाबरी ध्वंस और 2014 के आम चुनाव इसके नजरिये से इसकी उपलब्धिया तो है , पर अंतिम सीमाए भी | एक तरह से इस राजनीति का भी यह समापन - पर्व है | कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म भी 1925 में हुआ | मार्क्स या लेलिन को यदि यह अवसर मिलता कि भारत में इस पार्टी की राजनितिक - समाजिक समझ और विमर्श को और बाद में राजनीतिक लाइनों के आधार पर हुए विभाजनो को देख - समझ पाते तो उनके पास अपना सर पीटने को छोड़कर शायद कोई काम बचता | भारत की सारी वामपंथी राजनीति नीतिगत रूप से रूस और चीन के राष्ट्रीय स्वार्थो की अनुगामी होकर रह गयी | भारतीय दार्शनिक परम्पराओं और जनता के जीवन से ऊर्जा नही ग्रहण कर सकी | और अपने आरम्भ से ही अपने अंत की कहानी लिखने में लग गगई |
इस प्रकार तीन विचारधाराए , तीन राजनितिक दल हिन्दुस्तान के जन जीवन के क्षितिज पर उभरे और अपनी - अपनी सकारत्मक - नकारात्मक भूमिकाये निभा कर अब एक अंत पर खड़े है -- आज से नही अनेक सालो से , पर दुराग्रह बने रहने का है | इस दुराग्रह को खाद - पानी भारत की उस मध्यमवर्गीय जनता से मिलता रहा है , जो कभी इनमे अपनी आर्थिक स्थितियों को बेहतर होता देखती है , तो कभी अपनी रुढियो की सलामती देखती है , अपने विश्वासों , मान्यताओं ही नही अपनी जातीय पहचानो और एक उहापोह में लिपटे से मानसिक जगत को बना रह पाती है |
इस थोड़े से राजनितिक व्योरे का सन्दर्भ यह है कि आज भारत जहा खड़ा है , वहा उसे एक नई राजनीति चाहिए | भारत को एक नया समाज चाहिए | और यदि क्रान्ति की बात करे , तो भारत को नई क्रांति चाहिए | राष्ट्रवाद की बाते करे , तो भारत को एक नया राष्ट्रवाद चाहिए | भारत की केन्द्रीय सत्ता पर भारत के नागरिक समाज का शासन चाहिए --- एक ऐसे नागरिक समाज का शासन , जो यह समझ रखता हो कि भारत आज भी गाँवों का देश है , और इसकी सम्पूर्ण सामाजिक सरचना में बदलाव की जरूरत है | इतिहास ने भारत को बार - बार यह सिखाया है कि वह दुनिया के उन राष्ट्रों में से है जो अपने कैसे भी वर्तमान को अपनी इच्छाशक्ति से पलटने की सामर्थ्य रखता है | यह भारत का 19 वी सदी का भारत नही है , 20 वी सदी के आरम्भ और अंत का तो दूर - यह 21 वी सदी के आरम्भ का भारत भी नही है | यह भारत जाग रहा है , करवटे बदल रहा है और अब उठ खड़ा होना चाहता है |
परिवर्तन की आहटे दसो दिशाओं से है देश के समस्त सामाजिक जीवन और सामाजिक ढाँचे पर है | ग्लोब्लाईजेशंन का झुनझुना बज कर थम चुका है | विकास के पहिये अवरुद्द है | झूठे नारों का इस साइबर स्पेस से लम्बा जीवन नही चल सकता | गाँव - शहर - कस्बे में जिन्दगी यदि बदली नही भी है , तो बदलना चाहती है | जन असंतोष को दिशा नही मिली है तो भी उसे दिशा की तलाश है और जरुरत भी | परम्परागत राजनीति की चूले हिल चुकी है | भले वही नेता , वही दल जीतकर संसद और विधानसभा में पहुच रहे है | यह बात सिर्फ इसकी सूचक है की जनता अपना चुनने का अधिकार छोड़ना नही चाहती , इसीलिए वे चुने जा रहे है , न कि इसलिए कि वह उन्हें ही चुनना चाहती है | नये नेता किसी अन्तरिक्ष से नही आयेगे | किसी करिश्मे से भी नही और विलक्ष्ण व्यक्तित्व के किसी अनूठेपन से भी नही | वे आयेगे उन सवालों और मुद्दों से जिनसे भारत की जनता अब न तो बच सकती है , न जिन्हें वह अब अनदेखा कर सकती है और न जिनके आगे घुटने टेक सकती है | एक नया भारत बन रहा है | भारात का इक नया मनोविज्ञान बन रहा है | इस मनोविज्ञान को एक नई राजनीति गढ़नी ही पड़ेगी |
आधुनिकता , लोकतंत्र , समता , सामाजिक नवीनीकरण , जहा देश के आन्तरिक मोर्चे है , वही वैश्विक स्तर पर इस भारत को अपनी स्वतंत्र आर्थिक सत्ता का निर्माण करना होगा , जो बुरी तरह से ताकतवर देशो के हितो में उलझकर रह गयी है | इस सबके लिए युवा पीढ़ी को एक गहरी सांस्कृतिक और बौद्दिक तैयारी की दरकार है | यह बदलता हुआ समय हर किसी से सवाद करना चाहता है , और साक्षी होना भी |
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (11-04-2016) को
ReplyDeleteMonday, April 11, 2016
"मयंक की पुस्तकों का विमोचन-खटीमा में हुआ राष्ट्रीय दोहाकारों का समागम और सम्मान" "चर्चा अंक 2309"
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'