Thursday, December 7, 2017

काफी हाउस 7-12-17

अपना शहर मगरुवा
कहवाखानो से निकलती थी आम आदमी की आवाज
कारपोरेट ने खतम कर दिया यह संस्कृति
बहुत बार लखनऊ गया घूम नही पाया था | पिछली बार जब मैं लखनऊ गया था तब एक दिन शाम को काफी हाउस में जाकर बैठा काफी पी रहा था, तभी वहाँ पर मगरू भाई बैठे मिल गये एक टेबल पर मैं वहाँ से उठा और उस टेबल पर चला गया | मगरू भाई के टेबल पर जाकर उनका हाल – चाल लिया | हमने उनसे कहा कि लखनऊ के काफी हाउस के बारे में बताये मगरू भाई ने कहा काफी से काफी हाउस बना दत्ता बाबू आज संक्षिप्त बताता हूँ इसके बारे में काफी हॉउस बना मगरू भाई बताने लगे और मेरी कलम चलती रही उनके बातो पर आज आप मित्रो को ले चलता हूँ |
काफी हाउस
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काफी ( अंग्रेजी ) या कहवा ( अरबी ) संसार के सबसे अधिक लोकप्रिय पेय पदार्थो में तो है ही , काफी हाउस ( जहां बैठकर पीने वालो को तैयार काफी मिलती है ) या कहवाघर कई सौ साल पहले सामजिक सम्पर्क के केंद्र बन चुके थे यहाँ बैठकर लोग गप्प लडाते थे , विविध विषयों पर बहस करते थे , लिखते थे , पढ़ते थे , परस्पर मनोरंजन करते थे | बैठकबाजी अड्डे के रूप में यह परम्परा आज तक चली आ रही है |
काफी और काफी हाउस का इतिहास बड़ा रोचक है | कहा जाता है कि 9वी शताब्दी ईस्वी में काफी के सुस्ती दूर कर ताजगी देने वाले गुण का अरबो को पता चला और शीघ्र ही पूरे अरब में उसका सेवन होने लगा तथा कहवाघर खुलने अलगा | प्राप्त प्रमाणों से पता चलता है कि 16वी शताब्दी में मक्का के कहवाघरो में राजनीतिक चर्चा होने लगी तो इमामो ने मुसलमानों के कहवा पीने पर रोक लगा दी थी | परन्तु कहवा और कहवाघरो की लोकप्रियता बढती गयी | 16वी शताब्दी में दमिश्क ( सीरिया ) और कायरो ( मिस्र ) में कहवाघर खुल गये थे | इसी शताब्दी में टर्की की राजधानी इस्तबुल में भी काफी का प्रवेश हो चूका था |
योरोप में काफी का प्रवेश टर्की के माध्यम से 16 वी शताब्दी में हुआ था | काफी को वास्तविक लोकप्रियता मिली लन्दन के ‘’काफी घरो “ coffee house ‘’ में जो राजनीतिक , सामजिक और साहित्यिक चर्चा के केंद्र बन गये | यहाँ काफी के गर्म प्यालो से लन्दन के विचारशील , दार्शनिक और लेखक अपना शरीर गरमाने के साथ अपनी जबान की लगाम भी ढीली कर देते थे |
लगभग1652 में लन्दन के सेंत माइकेल्स एली में कार्न्हिल में पहला काफी हाउस स्थापित करने का श्रेय पास्क्वा रोजी (pasqua rosee ) को है |
17 वी शताब्दी में प्रेंच इतिहासकार जीन पारदिन ने लिखा कि यहाँ के कहवाखानो में जहां पर लोग बैठकर न केवल राजनीतिक चर्चा करते थे , वे वहाँ की सरकार के क्रियाकलापों की भी खिचाई करते थे और साथ ही साथ तमाम लोग शतरंज भी खेलते थे | कुछ दरवेश वहाँ खड़े होकर समाज सुधार की बाते करते थे | यही से अवाम के जन समस्याओं से आन्दोलन पैदा होते थे |
लखनऊ में बैठकबाजी की परम्परा
लखनऊ काफी हाउस से मेरा परिचय कराया समाजवादी विचारक खाटी समाजवादी बड़े भाई विनोद कुमार श्रीवास्तव ने मैंने तभी जान लिया था कि यह जगह बैठकबाजो का अड्डा है | मैंने सूना था कि लखनऊ के काफी हॉउस में अमृतलाल नागर , भगवती चरण वर्मा , यशपाल जैसे साहित्यकार और आदरणीय चन्द्रशेखर जी जैसे राजनेताओं का नियमित काफी हाउस आना होता था और घंटो वहाँ बैठकर गंभीर विषयों पर चर्चा करते थे |
बैठकबाजी की बात चली तो यह बताना जरूरी है कि लखनऊ में इसका शगल बहुत पुराना है | नवाबी युग में बैठकबाजी का अड्डा था चडूखाना जहां अफीम के आदि जमा होते थे | चडू अफीम से बना एक गिला प्रदार्थ है जो तम्बाकू की तरह पिया जाता है | अफीम के नशे की विभिन्न स्थितियों में चंडूबाज कल्पनालोक में डूबे बडबडाते , बे पर की उड़ाते रहते थे | झूठी बेसिर – पैर की बातो के लिए अक्सर ‘चडूखाने की गप्प ‘ मुहावरे का उपयोग किया जाता है |
बैठकबाजी का दूसरा अड्डा कहवाखाना ( आधुनिक काफी हॉउस ) हुआ करता था | ऐसा लगता है कि लखनऊ में कहवा का चलन इरान से आया होगा | जहां लखनऊ के नवाबो का मूल स्थान था | लखनऊ के कहवाखाने शिष्ट समाज के बैठकबाजी के अड्डे थे | इनमे दास्तानगो किस्से – कहानिया सुनाया करते थे | इन कहवाखानो का उल्लेख्य उर्दू साहित्य में यत्र –तत्र मिलता है जैसे रंतान् नाथ सरशार का ‘फसांनएआजाद ‘ |
लखनऊ शहर में बैठकबाजी की परम्परा अभी भी चली आ रही है जहां विभिन्न विषयों पर बहस – मुहाब से होते रहते है | आज भी नक्कास , चौक में ''रैड रोज'' चाय की दूकान पर भीड़ लगी रहती है जहां रोज के बैठने वाले एक प्याली चाय पर बहस करते दीख जायेंगे | लखनऊ के भाजपा के वरिष्ठ नेता लालजी टंडन का कहना है कि चौक में राजा ठंडाई की दूकान शाम को काफी हाउस की तरह बैठकबाजी का अड्डा बन जाती थी | राजा ठंडाई की दूकान चौक में चौबत्ती के बीच में थी जहां शाम को खासतौर से तैयार होकर लोग आते थे और नियमित बैठके होती थी |
इसी तरह से अमीनाबाद में अब्दुल्ला होटल भी देर रात तक बैठकबाजी के लिए मशहूर था | संगीत के बादशाह नौशाद ने काफी साल पहले अपनी बातो में चर्चा करते बतया था कि वे और उनके दोस्त अमीन सलोनवी अब्दुल्ला के होटल में बैठते थे | बाद में अमीन सलोनवी के बेटे मोबिन जो स्थानीय पायनियर अखबार में काम करते थे , वहाँ नियमित जाते थे | अवकाश प्राप्त हाईकोर्ट के जज हैदर अब्बास साहब अपने छात्र जीवन और फिर बाद में कांग्रेस लीडर की हैसियत से अपने मित्र पत्रकार सूरज मिश्रा के साथ अब्दुल्ला होटल जाते रहे है | अमीनाबाद में सुन्दर सिंह शर्बत वाले थे जिनकी दूकान भी बैठकबाजी का अड्डा रही है | अमीनाबाद में ही कछेना होटल भी साहित्यकारों की बैठकबाजी का अड्डा रहा है | लखनऊ के पूर्व मेयर व साहित्यकार दाउजी आज भी कछेना में बैठते है | पत्रकार – साहित्यकार स्व अखिलेश मिश्रा भी कछेना में बैठते थे |
कैसरबाग में नेशनल हेराल्ड के आफिस के पास जनता काफी हाउस था जहां पत्रकार , साहित्यकार एवं लेखक बराबर बैठते रहे है | पास ही नजीराबाद में एक जमाने में नेशनल कैप स्टोर था जिसको तिवारी जी व उनकी पत्नी जो अम्मा जी के नाम से जानी जाती थी चलाती थी | यहाँ राजनेताओं के मिलने का अड्डा था | एक जमाने में चन्द्रभानु गुप्ता जी भी यहाँ नियमित रूप से बैठते थे |
हजरतगंज में जहां आजकल साहू सिनेमा है , वहाँ फिल्मिस्तान था और उसके नीचे प्रिंस सिनेमा था | उसी बिल्डिंग में न्यू इंडिया काफी हाउस था जो 50-60 के दशको में लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र व राजनेताओं की बैठकी का केंद्र रहा है |
इन सार्वजनिक अड्डो के अतिरिक्त पत्रकारों तथा राजनेताओं के लिए पंडित नेकराम शर्मा के घर भी बैठकबाजी का अड्डा रहा है | नेकराम शर्मा पार्क रोड पर रहते थे | उनकी दरियादिली का कोई जबाब नही था | उनकी मेहमाननवाजी की किस्से अभी भी मशहूर है |
हजरतगंज में बैठकबाजी का एक और अड्डा था जिसका नाम था बैनबोज रेस्टोरेंट | हजरतगंज के चौराहे पर जहाँ पर आज छंगामल की दूकान है वही बैनबोज था जो ओबराय सरदार जी का था | बेन्बोज की बेकरी काफी मशहूर थी | वहाँ के बने केक दिल्ली में बैठे राजनेताओं के घर पहुचाये जाते थे | भारतीय राजनीत में दखल देने वाले स्व एन डी तिवारी समेत तमाम राजनेता व पत्रकार शाम को बेन्बोज में नियमित बैठते थे | क्रमश:

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-12-2017) को "महँगा आलू-प्याज" (चर्चा अंक-2812) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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