Monday, July 30, 2018

ब्राह्मण भाग - तीन 30-718

ब्राह्मण भाग - तीन

मैंने अधिकतर उन दासो को अपने घरो में रखा , जो अपनी सभ्यता में पुरोहित रह चुके थे | उनमे झाड - फूंक की बड़ी मान्यता और प्रभुता थी | मैंने उनसे मन्त्र पूछ लिए | फिर मैंने उनका समुचित प्रयोग किया | मैंने उन्हें अपनी भाषा में लिख डाला और उनकी संहिता अथर्ववेद बना | यह एक नया रहस्य - भंडार था , जिसे आर्य नही समझते थे , और चूँकि मैंने उसे अपनी पुरातन भाषा में लिखा , उन्होंने उसे मेरा ही समझा | इस प्रकार मेरी प्रभुता उन पर और बढ़ी | मैं अब सब प्रकार से सुखी था , शक्तिमान | अनेक दास - दासिया मेरी परिचर्या करती | राजा मुझे दान में दास - दासिया प्रदान करता | गोधन मेरे पास अन्नत था और शत्रु - नगरो की लूट से मेरे भंडार भरे थे | अब सुमुखियो के प्रति अपने अनुग्रह को भी मैंने वैधानिक करार दिया | कक्षीवान और कवष उसी के मूर्त रूप थे | यद्धपि अभी तक मेरे अनेक कुल बन गये थे , जो केवल पौरोहित्य करते थे , मेरे वृति में प्रवेश असम्भव न था परन्तु इस क्षत्रिय - कुलो के पौरोहित्य को मैं भय की दृष्टि से देखता था | विश्वामित्र ने मेरा दुर्ग छीनने का बड़ा प्रयत्न किया | क्रोध से परशुराम को फरसा दे मैंने क्षत्रियो का नाश कर उनसे वैर साधा | प्रयत्न बराबर यही था कि किसी प्रकार मेरे पेशे में कोई और दाखिल न हो सके , देवापी के - से कुछ महत्वाकाक्षी मेरी पंक्ति में जब तब घुस ही आते थे |
अब मैंने निश्चय किया कि इससे काम न बनेगा और मुझे इस आवागमन पर कड़े प्रतिबन्ध डालने होगे | मेरे कुल तो अनेक अवश्य खड़े हो चुके थे , परन्तु क्षत्रिय राजकुल में अभी अस्थिरता थी | उनका अभी तक चुनाव होता था , और यद्धपि कुल विशेषत: राजन्यो के ही होते थे , निर्वाचन का क्षेत्र सिद्धांत बड़ा था | मैंने देखा कि अपने कुलो को स्थायित्व देने के पहले राजसत्ता को कुलागत करना होता और मैंने उसे कुलागत कर दिया | अब मुझे एक अत्यंत प्रबल मित्र लाभ हुआ -- क्षत्रिय का | अपने कुलागत की रक्षा के लिए उसका मेरे कुलागत पौरोहित्य की रक्षा करना आवश्यक हो गया | इस समय मैंने अदभुत सूझ से काम लिया | मैंने पुरुषसूक्त की अभिसृष्टि कर डाली | इसमें ब्राह्मण की उत्पत्ति ब्रम्ह ( पुरुष ) के मुख से , क्षत्रिय की भुजाओं से वैश्य की जांघो से और शुद्र की उसके चरणों से बताई | इनके वर्णों को यथास्थान रख दिया | और यह व्यवहार ईश्वरीय - अपौरुषेय - मान ली गयी | अब वर्णों में आदान - प्रदान नही हो सकते इस प्रकार जो अपूर्व धन मेरे हिस्से में आता था , उसकी रक्षा हुई |
अब भी जब - तब इस वर्ण - धर्म में स्खलन होते थे | मेरे पौरोहित्य में हिस्सा बटवारा के लिए निश्छल राजन्य प्रयत्न करते थे , परन्तु अब पौरोहित्य भी कुछ साधारण कार्य न था | पहले मैं केवल चार ऋतिव्जो से यज्ञ का काम चला लेता था , परन्तु अब निरंतर यज्ञ की विधि - क्रियाओं में जो मैंने विकास किया , उसके पेंचो को ऐसा कोई व्यक्ति नही सभाल सकता था जो जन्मना ब्राह्मण न हो और जिसने वर्षो मेरी शागिर्दी न की हो |
मैंने अपने यज्ञ के कर्मकांडीयो की संख्या चार से बढ़ाकर सत्रह कर दी | जैसे - जैसे राजन्य का राज्य विस्तार बढ़ा वैसे वैसे मेरे यज्ञो के आकार प्रकार में भी अभिवृद्धि हुई | जनपद राज्यों के साथ साथ मैंने भी अपने सत्रों का विस्तार बढ़ा दिया और उनके अनुष्ठान सौ - सौ वर्ष तक होने लगे |
वैदिक काल में ही मेरा विरोध होने लगा था | राजाओं के पास शक्ति और वैभव सब कुछ था , फिर भी वे मेरा उत्कर्ष नही देख सकते थे | मेरे पास घर में अन्न निश्चय काफी था , पत्निया थी , दास - दासी थे
, रथ - अश्व थे ,चौपाये थे ; परन्तु साधारण जीवन मेरा तप और त्याग का था | अपने लिए सिवा दूसरो के दिए दान के मैंने कुछ और न रखा | फिर लगोटी वाले मुझे विरागी का राज्यादी के मामले में दखल देना उन्हें अच्छा नही लगता था | मैं ही जब प्रजा की तरफ से राजदंड और अन्य लाछन देता , उन्हें प्रजापालन की शपथ दिलवाता तब कही उनकी राजसत्ता दृढ होती थी | इससे निश्चय ही मैं उनकी ईर्ष्या का कारण बन गया | फिर भी मैं उनके समक्ष अपनी शक्ति बनाये रहा | राजा तो अनेक प्रकार से मेरे अधिकार में था , परन्तु राजन्य -- राजा से अन्य उसके भाई बन्धु अधिकतर उसके छोटे भाई - मुझसे डाह करते थे , यद्धपि समाज के विविध वर्गो के कर्तव्य मैंने बाट दिए थे और उनकी आयुध जीविका अक्षुण बनी थी फिर भी वे प्रमादी मेरा ही व्यवसाय छीन कर सहसा धनी हो जाने के प्रत्यंन में थे |
परन्तु यह एक ऐसा क्षेत्र था जिसमे मैं उन्हें पाँव नही रखने दे सकता था | महाभारत काल में भी अनेकाश में यह संघर्ष चला | परशुराम ने तो यहाँ तक प्रण किया कि अपने अस्त्र - प्रहार का रहस्य वे किसी क्षत्रिय को न बतायेंगे | कुछ अंश में इस राजनितिक झगड़े के अतिरिक्त क्षत्रियो से मेरा एक सामजिक झगड़ा भी था | मैंने पुत्राभाव् में और सुपुत्र के अभिजंनक के अर्थ ''नियोग ' - विधि का विधान किया , जिसमे पति के अभाव या क्लैव्य में पत्नी देवर से और उसके अभाव में गुरु - पुरोहित के संयोग से पुत्र प्रसव करती थी | क्षत्रियो के लिए यह कुछ कसक की बात न थी क्षत्रिय इस व्यवस्था के कारण झल्लाते तो बहुत थे परन्तु कोई चारा न था | इस प्रथा में मुझे सिवाय एकाश में कामुकता - तृप्ति के कुछ विशेष लाभ न था | लाभ वास्तव में उन्ही का था | देवर से पुत्र उत्पन्न कराने की प्रथा से अलग यदि क्षत्रिय औरत किसी अन्य क्षत्रिय द्वारा तनय प्रसव करती तो 'दाय ' में कठिनाइया उत्पन्न हो जाती , पैतृक सम्पत्ति में दूर के हिस्से लगने लगते | इससे मेरा उपयोग विशिष्ठ राजन्यो अथवा राजकुलो में उन्हें उचित जान पड़ने लगा था , यद्धपि यह विधान मेरा ही था | फल यह हुआ की महाभारत के महान पुरुष अधिकतर मुझ से ही उत्पन्न हुए | धृतराष्ट्र पांडू - विदुर सब मेरी सन्तति थे | फिर भी मेरे क्षत्रियो का विरोध बढ़ता ही गया | उन्होंने शीघ्र ही मेरे देवता इंद्र और मेरी वृति के साधक यज्ञानुष्ठानो के शत्रु कृष्ण को देवोत्तर स्थान दिया | उन्होंने उसे - जो क्षत्रिय भी न था यद्धपि क्षत्रिय बनने का निरंतर प्रयत्न कर रहा था , विष्णु अवतार मान और अधिकतर क्षत्रिय ही उसे देवदुर्लभ पद के उपयुक्त समझे गये | उनके चरितो की गाथाये गाये जाने लगी | इतिहास - पुराण बनने लगे | कुछ ब्राह्मणों को प्रलोभन दे उन्होंने अपनी सहकारी और अपनी सभा में पंडित बना लिए जिनका काम उनकी प्रशस्ति लिखना था , उनके चरित और पराक्रम का बखान करना था | रामायण - महाभारत की अभिसृष्टि इसी प्रकार हुई | फिर तो क्षत्रिय का साहस इतना बढ़ा की उसने गीता में अपने संसार की सारी सुन्दर श्रेष्ठ वस्तुओ का सार कहा और सारे देवताओं के उपर रखा | अन्य देवताओं की पूजा वर्जित की , केवल अपनी पूजा उचित कही | निश्चय ही क्षत्रियो की यह मेरे उपर पहली महत्वपूर्ण विजय थी |

प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

आभार - खून के छीटें इतिहास के पन्नो पर -
लेखक ---- भगवत शरण उपाध्याय

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (01-08-2018) को "परिवारों का टूटता मनोबल" (चर्चा अंक-3050) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आभार आदरणीय

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