मैंने भी इसके विरुद्ध अपनी आवाज उठायी | 'धिग्बल क्षत्रियबल ब्रम्हतेजोबल बलम ' का सबल नाद किया | यजमान को निरस्त करने का सब प्रकार से प्रण किया परीक्षित ने मेरे गले में मरा नाग डाल मेरी समाधि का उपहास किया , उसे ढोंग कहा | मैंने भी सीमा प्रांत के उन नागो को भडका दिया , जिनके देवता उरग थे | परीक्षित को तो सात दिनों में मार डालने की घोषणा कर नागो ने अवधि के भीतर मार ही डाला और अर्जुन का साम्राज्य उसकी रक्षा न कर सका | फिर प्रतिशोध की भावना से उतप्त हो जन्मेजय ने तक्षशिला का दारुण और नृशंस नर - यज्ञ किया - नाग - यज्ञ युद्ध में धोखे से , खुले आम पकड - पकड नाग वीर लाये जाते और उन्हें आग में डाल दिया जाता कुभाकुमु की घाटी और निषध की उपत्यका में बसने वाले नागो की जन्मेजय की साम्राज्य - शक्ति के सामने विसात ही क्या थी ? वे पकड़ कर लाये जाते और जलती शिला पर तक्षक परिवार जला डाले जाते | निश्चय ही मैं उस नाग यज्ञ नरमेध - का ऋतिव्ज था , परन्तु उस दारुण क्रूरता में मेरा मन न था | मैंने वह यज्ञ भय के कारण कराया कयोकी मैं जानता था कि आपत्ति करते ही मुझे भी शिला के उपर अग्नि की लपेटो का आलिंगन करना होगा | फिर भी मैंने युक्ति और सावधानी से नागो के राजा तक्षक को निकल भागने दिया | जन्मेजय ने अश्वमेध भी किया | और मैंने अबकी उसे अपावन कर देने की प्रतिक्रिया की | उसे अपावन कर भी दिया | वह कथा साहस की है और रहस्य की , जिसे मैंने अपने ब्राह्मणों में सुरक्षित किया | मेरे आचरण से जन्मेजय के भाई - राजन्य - श्रुतसेन और भीमसेन अत्यंत कुपित हुए और उन्होंने वहाँ उपस्थित सारे ऋषि समुदाय को तलवार से मौत के घाट उतार दिया | अश्वमेध अपावन होगा , इसकी गंध ब्राह्मणों को लग चुकी थी और वे जन्मेजय का पराभाव देखने अधिक - से अधिक संख्या में आये | प्राय: साठ हजार की संख्या में उनका वध हुआ |
जो बचे उन्हें जन्मेजय ने भारत से बाहर निकाल दिया मेरे अभाव में क्षत्रियो को अपनी क्षति का पता चला | मेरी व्यवस्था में वैश्य , शुद्र सभी अपने स्थान पर थे | अब उनका स्खलन होने लगा | सबकी महत्वाकाक्षा प्रबल हो उठी | सारे जप - तप यम- नियम यज्ञानुष्ठान बंद हो गये और उनको कराने वाला कोई न रहा | पौरोहित्य के लिए क्षत्रियो ने प्रयास किया था परन्तु उसके विस्तृत कार्यक्षेत्र को सभालना उनके वश की बात न थी और उन्होंने अपने कंधे नीचे डाल दिए | हारकर राजन्यो को मुझे फिर बुलाना पडा | उन्होंने मुझसे लौटने की बड़ी मिन्नते की , और मैं लौट भी आया , कयोकी आखिर मैं कब तक दर - ब- दर फिर सकता था , जब मेरा सारा साम्राज्य भारत में अराजक स्थिति धारण कर रहा था , कर चूका था| , मैं लौटा और मुझे अपनी शक्ति का अंदाज लगा | देश में प्रत्येक कार्य रुका हुआ था | और उसे अपने अभाव में और पंगु कर देने के लिए मैंने ब्राह्मणों - ग्रंथो का निर्माण किया | अपने क्रियानुष्ठान और कर्मकांड की विधिया विधानत: लिख डाली और उनको ब्राह्मण कहा | ये ही ब्राह्मण मेरी सन्तान की सम्पत्ति हुए उनके मूल ग्रन्थ , उनकी शक्ति के रहस्य और व्यापार की कुंजी | अब उनके व्यापार में कोई अन्य हिस्सा नही लेता | कर्मकांड और पौरोहित्य अब सर्वथा उनका था और उनमे अब किसी की गति न हो सकती थी | हाँ , यदि कोई पौरोहित्य तथा कर्मकांड पर ही आघात किया , तो बात दूसरी थी | और उन्होंने पौरोहित्य तथा कर्मकांड पर आघात किया | क्षत्रियो ने भी अपने ब्राह्मण रचे जिनके नाम उपनिषद हुए | उपनिषदों में उनके उत्कर्ष की कथा कही गयी | गीता उसकी अंतिम श्रृखला थी , जिसमे क्षत्रिय को ईश्वर का स्थानापन्न किया गया | उपनिषदों में एक नये ब्रम्ह और आत्मा का वर्णन आया | ये ब्रम्ह और आत्मा दोनों अनादि और अनंत थे अजन्मा | आत्मा शरीर के अन्दर रहकर भी अजर - अमर और शरीर के कार्यो से उदासीन रहती है | पशुमारण - धर्म व्यर्थ - बेजा है | यज्ञ निन्ध्य है | पौरोहित्य निम्न स्तर की वस्तु है | ज्ञान बड़ी चीज है | ब्रम्ह ज्ञान ही मोक्ष का साधन है | शरीर दुःख है | आवागमन उसका बड़ा प्रतिबन्ध है | जनपद राज्यों के खड़े हो जाने पर राजाओं को अब ब्राह्मणों की आवश्यकता विशेषत: न रही | क्षत्रिय या तो राजकर्मचारी और सैनिक थे या भूस्वामी | अपनी आय के सम्बन्ध में इस प्रकार निश्चिन्त हो राजा और क्षत्रिय उस दर्शन - वितन्वन में लगे जो अवकाश का पूरक है | उन्होंने जिस काल्पनिक सत्य के दर्शन किये , उसे ही सब कुछ मान कर मुझे चुनौती दी | मैं भी घबरा उठा कयोकी जिस शब्दजाल का उन्होंने वितन्वन किया वह मेरा जाना न था | दर्प के साथ राजन्य ने मुझे मेरा ही शब्दकोश सुनाया -- समित्पाणी भव!
पंजाब में , पांचाल में , काशी में , विदेह में - सर्वत्र राजन्यो की सांस्कृतिक और दार्शनिक शक्ति बढ़ी -- अश्वपति कैकेय , प्रवाहन, जैवलि , अजातशत्रु , जनक विदेह प्रबल हुए | परन्तु मैंने भी आत्म - समर्पण नही किया | उपनिषद का उत्तर दर्शन से दिया , दर्शन का दर्शन से | लोहे को फौलाद से काटा | उनका ब्रम्ह निष्काम , निर्गुण और शरीरहीन था | मैंने कहा कि फिर इसकी काल्पनिक स्थिति को ही क्यो माना जाए ? मैंने ईमानदार और सच्चे सांख्य की अनीश्वरवादी पद्धति का दर्शन किया | वैशेषिको ने प्रकृति के साघातिक ( प्रयोग निजी है ) अणु- मार्ग का निरूपण किया | ब्रम्ह को न्याय की तर्क प्रणाली से सर्वथा उखाड़ फेंका | तब क्षत्रिय ने मुझे जेर करने का एक दूसरा तरीका अपनाया | उसने सही समझा कि मेरी शक्ति के दो प्रबल पाए है _ पर्णव्यवस्था और संस्कृत भाषा | दोनों पर आघात किये - पार्श्व ने , महावीर ने , बुद्ध ने | तीनो ने वर्णों पर आक्रमण कर मनुष्य की प्राकृतिक समानता घोषित की | तीनो ही जन - भाषा में ही अपने उपदेश कहे | इनमे बुद्ध का प्रचार तो निश्चय ही असाधारण हुआ | उसने जो संघ का सगठन किया , वह कालान्तर में मेरा सतत शत्रु बना , यद्दपि अनत में मैं उसे निगल गया | अब मुझ पर खुले रूप में चोटें हुई | मैं भी अपनी रक्षा और शत्रु के नाश के लिए स्पष्ट: मैदान में उतर आया |
प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
आभार - खून के छीटें इतिहास के पन्नो पर ,
लेखक - भगवत शरण उपाध्याय
चित्र साभार गूगल से
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