Friday, July 27, 2018

ब्राह्मण -- भाग -- दो 27-7-18



ब्राह्मण ---- भाग -- दो


मैं तब गायक था | अपने जाने हुए आर्ष रहस्य का मैं गानपूर्वक विस्तार करता था | पार्थिव शक्तियों को मैं देवत्व प्रदान करना मुर्खता समझता था | मेरे हितैषी देव सोम , अग्नि और पृथ्वी , इंद्र , वायु , मरुत और पर्जन्य , और वरुण ,धौस, अशिवन, सूर्य , मित्र , पूषन तथा विष्णु थे | धीरे - धीरे मैंने अपने हितैषी देवताओं का परिवार बढ़ा लिया | अनेक देविया , स्थूल और सूक्ष्म , सदय और निर्दय , मेरे मानस से निकली | अनन्त- अनन्त देवताओं का मैंने सृजन किया -- विश्वेदेवा: का , फिर नदियों , पहाडो का |इसके अतिरिक्त मैं इनकी भीम मूर्तियों का भी ऋषि और द्रष्टा हुआ | बादलो की गडगडाहट और नदियों के शक्तिम प्रवाह का भी मैंने अर्थ लगाया और भाव व्यक्त किया उनके तथ्य और कथन को एकमात्र समझने वाला मैं था | प्रकृति की हिंस्र तथा द्रव प्रवृतियों को मैंने मुखरित किया जिह्वा दी | मैंने ही उनके गूढ़ मंतव्यो का रहस्य अपनी स्पष्ट समझ में आने वाली भाषा में व्यक्त किया |
रूद्र की मारक शक्ति का उदघाटन मैंने ही किया , और मैंने ही उसके क्रोध और आंतक से मानव जाति की रक्षा के प्रबंध किये | करुण और हिस्त्र दोनों प्रकार के देवताओं के यजन - पूजन - प्रसादन के अनेक और अनन्त उपाए मैंने ही सोचे , वरना मानव - योनि रसातल को चली जाती | जन - कल्याण की भावना ने मुझे उस और प्रवृत किया , मैं स्वंय तो सारे सुखो से निवृत था | मेरी कामना एक मात्र जन - कल्याण की थी |
जब मैं भारत आया तब भी कई कुलो में विभक्त था | भरद्दाज . आंगिरस वसिष्ठ , अत्री , कण्व आदि अनेक पुरोहित के कुल तब भी आर्यों की पारलौकिक आवश्यकताओ का प्रबंध करते थे | इहलोक के बाद परलोक की कल्पना मैंने ही कि परन्तु यह केवल भारतीय जगत की न थी , सारे विश्व की थी | मैंने जब इसका आविष्कार किया तब इसकी मोहकता ने लोगो को अत्यंत आकर्षित किया | फिर तो लोग इसकी माया में ऐसे फँसे की उन्होंने इहलोक की परवाह न कर उसी लोक के स्वपन देखे और उन्हें प्राप्त करने की तैयारी शुरू कर दी | कालान्तर में मेरे इस प्रयास में क्षत्रिय दार्शनिको ने भी योग दिया |
जीवन से स्वाभाविक ही सबको प्रेम होता है और दीर्घकाल का रोगी भी और यातना सहता है , फिर भी अपने शरीर को रखना चाहता है | इस लोक में जीवित रहने की जो हविस पूरी न हो पाती , तो दूसरे लोक में भी , इस जीवन से परे भी जीने की लालसा करता है | और कल्पना में जो विलास की वस्तु उसे इस लोक में प्राप्त नही होती , उसके लिए जीवन भर तरसता और हाय - हाय करता रहता है , उसके भोग की प्रबल कामना करता है , और मैं उसकी इसी लोलुपता को शक्ति और रीढ़ देता हूँ |
फिर भी मेरा ऋग्वैदिक परिवार अभी इसी पारलौकिक सुख की कल्पना और कामना में इतना व्यग्र न था , जितना वह पीछे हुआ | अभी तो वह दुखी , दरिद्र आवश्यकताहीन घुमक्कड़ परिस्थितियों से होकर आया था और उसे इहलौकिक वस्तुओ की ही कामना थी | अभी वह आहार , वस्त्र , धन , धान्य , दास , गो , अश्व , श्वान आदि की ही मांग करता था | उसका जीवन कठिन संघर्ष से होकर गुजरा था , सदा जीवन के लाले पड़े रहे इससे अपनी आकस्मिक और युद्ध की मृत्यु से घबराकर वह सौ वर्ष जीवित रहने की कामना किया करता था | उसकी विपत्तियों के शमन के निमित मैंने अनेक प्रकार के यज्ञो
की अभी सृष्टि की नरमेध , गोमेध , अश्वमेध आदि की | मेरे लिए तब कोई प्रदार्थ , कोई जीव अभक्ष्य न था -- गाय , घोड़ा , कुछ भी नही | गाय - विशेषकर बछडा तो अतिथियों को विशेष प्रिय था | मुझे यह किसी प्रकार भी मान्य न था कि संसार में सुरा और आमिष - से - स्वादु आहार के रहते भी केवल शाक और वनस्पति पर गुजर की जाए | परन्तु धर्मप्राण होने के कारण जीव - हनन को सर्वथा मान्य भी नही बता सकता था | इससे उन्हें दीवार्पित कर खाने का मैंने विधान बांधा | यज्ञादि करके देवऋण से उऋण होना ही था | और उसके लिए यज्ञाप्रित वस्तु को मैंने सेवी और खाद्य घोषित किया | सभी स्वाद खाध्य और पेय प्रदार्थ देवार्थक थे --- सूरा - आमिष तो विशेषत: यद्दपि पायस का उपयोग भी यज्ञो में अब बढ़ चला था | यज्ञ में अर्पित प्रत्येक वस्तु प्रसाद के रूप में अत्याज्य ही नही अवश्य ग्राह्य थी और इस प्रकार सोम की मर्यादा बढ़ी | मेरे सारे देवता हिंस्र और आमिष - भोजी थे | इंद्र सोम पीता और गोमांस खाता था , वज्र धारण करता था वरुण और यम भी अपने अपने पाश धारण करते थे |
जब मैं भारत आया , तब यहाँ का वैभव , शस्य - श्यामला भूमि , अदीभुत सूर्योदय और सूर्यास्त देख स्तम्भित - मुखरित हो उठा | उषा की लाली देख मुझे रोमांच हो आया | परन्तु उस सप्तसिंधु देश में ठहरना कुछ आसान न था | उसमे एक अद्भुत सभ्यता का निवास था , जैसी मैंने कही नही देखि थी | उसके निवासी थे तो कृष्णकाय , अनास , मुध्र वाक् , दास -दस्यु अयज् वन , अकर्मन , अदेव्यु , शिश्नदेव और मुझे उनसे अमित घृणा थी ; परन्तु उनकी सभ्यता देख मैंने दांतों तले ऊँगली दबा ली | वे कृष्णकाय दस्यु श्वेत वस्त्र धारण करते , कई - मंजिले स्वच्छ मकानों में रहते वृषभो के रथ पर चलते और छतो पर सोते थे | उनके गृह दुर्ग थे , नगर दुर्ग थे मुहल्ले दुर्ग थे | वे प्रसन्न वदन फिरते | उनके बाजारों में संसार की सारी वस्तुओ का सौदा होता | उनके कृतिम सुन्दर तालाबो में नित्य जलक्रीडा होती | उनके नगरो की सफाई आश्चर्यजंक थी | परन्तु मुझे तो उस सभ्यता का अंत करना था | बिना उसका अंत किये , न तो उस स्वर्णभूमि पर हमारा अधिकार हो सकता था और न उस जादू के देश पर स्वंय मेरे प्रभुत्व का साका चल सकता था | मैंने अपनी विशो को , विविध जनों को शत्रुओ के नाश के निमित ललकारा | और मुझे क्या सचमुच उन्हें इसके लिए कुछ अधिक बढ़ावा देने की आवश्यकता पड़ी ? उन्होंने क्या अपना दर - ब- दर - फिरने वाला बनेला जीवन विस्मृत कर दिया था ? उन्हें क्या पता न था कि जान पर खेलकर भी सप्तसिंधु के उस प्रशांत भूखंड को स्वायत्त करना होगा ? उनके नगर मैंने जला कर भस्म कर डाले , उनकी बखारे उनके ढोर उनके वस्त्र हमने छीन लिए | उनको सर्वथा नष्ट कर डाला | जो बच रहे वे या तो दक्षिण - पूर्व की राह भागे या हमारे दास हुए | हमारे दासो की संख्या अब बढ़ चली | और ये दास भी क्या थे ? हमने उनसे विशेष कृषि - कर्म सीखा, मकान और नगर - निर्माण सीखा , मोहन - उच्चाटन सीखे | उनके पुरोहितो और ब्राह्मणों की सत्ता भी कुछ असाधारण न थी | मुझे उनका रहस्य सीखने की बड़ी लगन थी | मेरे यजमान मेरी नित्य की युक्तियो से अब उब गये थे | उनको एक नए सिलसिले में बाँधना आवश्यक था | मेरे यजमानो में एक बड़ी अच्छी बात यह थी कि वे अपने को संसार में सबसे उच्च और श्रेष्ठ समझते थे और उन्हें यह कोई किसी प्रकार नही समझा सकता था कि ब्राह्मणों से अधिक बुद्धिमान उनके ऋषियों से अधिक रहस्य का जानकार कोई कही हो सकता है | फिर भी अपने ज्ञान को नित्य नया करते रहना अत्यंत आवश्यक था |

प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
आभार- खून के छीटें इतिहास के पन्नो पर - लेख भगवत शरण उपाध्याय

3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (29-07-2018) को "चाँद पीले से लाल होना चाह रहा है" (चर्चा अंक-3047) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. आपका बहुत बहुत आभार आप मेरी रचनाओं को च्र्चामंच पर स्थान देते है आदरणीय

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