Sunday, November 11, 2018

क्रान्ति तीर्थ काकोरी -- भाग तीन

क्रान्ति तीर्थ काकोरी -- भाग तीन

व्यापक क्रान्ति आन्दोलन का सूत्रपात्र
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क्रान्ति के रथं विस्फोट के कुछ ही वर्ष बाद ऐसी परिस्थितिया बनी जिनसे क्रान्ति की उस श्रृखला का आरम्भ हुआ जिसकी कडिया देश में और देश से बाहर जुडती चली गयी | 1903 में इंग्लैण्ड की सरकार ने घोर साम्राज्यवादी और तानाशाही मनोवृति के लार्ड कर्जन को भारत का गवर्नर जनरल एवं वायसराय नियुक्त कर दिया | हम उसके सभी कार्यो के लेखा जोखा नही लेंगे केवल इतना कहेंगे की सात वर्ष के अल्प समय में उसने भारत के लोगो को जितना छुब्द्द कर दिया , उतना शायद ही कोई और कर सकता | उसका सबसे बड़ा काम था बंगाल का विभाजन | वैसे तो बिहार , बंगाल उड़ीसा और असम तक फैले अति विशाल बंगाल प्रांत को दो भागो में विभाजित करने का प्रस्ताव पुराना था परन्तु कर्जन को उसे क्रियान्वित करने में लाभ ही लाभ दिखाई दे रहा था | बंगाल के मुस्लिम बाहुल पूर्वी भाग को असम ( जिसमे उस समय वर्तमान उत्तर - पूर्व के सभी राज्य सम्मलित थे ) में मिलाकर बनने वाले राज्य में मुसलमानों का बहुमत होगा और दुसरे भाग में गैर बंगाली ( उड़ीसा तथा बिहार ) बड़ी संख्या में होंगे | इस प्रकार जहां हिन्दू और मुसलमान एक जुट नही रह सकेंगे वही सार्वजनिक - सामाजिक चेतना का नेतृत्व करने वाले बंगाली भी दो प्रान्तों में बटकर प्रभावशाली नही रह जायेंगे | कर्जन बंग - भंग को लागू करने की इतनी हडबडी में था कि उसने 19 जुलाई 1905 को इसका निश्चय किया और 16 अक्तूबर 1905 को इसे लागू कर दिया | इस पर सम्पूर्ण बंगाल में रोष का ज्वार उमड़ पड़ना स्वाभाविक था | बंगाल में नेताओं ने तत्काल ही घोषणा कर दी -- ' जब तक बंग - भंग लागू रहेगा और बंगाल पुन: एक न हो जाएगा तब तक बंग - भंग का विरोध जारी रहेगा |" इस विरोध का पहला कदम विदेशी सामन के बहिष्कार तथा स्वदेशी वस्तुओ के उपयोग की घोषणा था | इसी आन्दोलन में 'वन्दे मातरम् ' गीत और नारा लोगो के कंठ में मन्त्र की तरह बैठ गया | फिर तो यह भारत के सम्पूर्ण स्वतंत्रता आन्दोलन का आधार बना |
इसी आन्दोलन के दौरान बंगाल में ''युगांतर '' और वन्दे मातरम् '' नामक समाचार पत्रों का प्रकाशन शुरू किया गया जिन्होंने पुरे बंगाल को शासन के विरुद्ध जागृत कर दिया | इसी दौरान 1906 में मास्टर अश्वनी कुमार दत्त ने ढाका में ''अनुशीलन समिति '' नाम से एक गुप्त क्रान्ति संस्था गठित की | आगे चलकर महान क्रांतिकारी शचीन्द्र नाथ सन्याल भी इसके सम्पर्क में आये ( ये वही शचीन्द्र नाथ सान्याल है जिन्होंने कालान्तर में संयुकत प्रांत उत्तर प्रदेश में ''हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन ' नामक एक गुप्त क्रांतिकारी संगठन की स्थापना किया था जिसकी चर्चा हम आगे करंगे |

बंग - भंग आन्दोलन के दौरान ही बंगाल में प्रसिद्ध क्रांतिकारी श्री अरविन्द घोष पर 'वन्दे मातरम् ' पत्र के सम्पादन के अभियोग में मुकदमा चला और 26 अगस्त 1907 को कलकत्ता की एक अदालत द्वारा उन्हें छ: माह की सजा दी गयी | जब उन्हें अदालत से बहार लाया गया तो बाहर हजारो की संख्या में खड़े जनसमूह ने वन्दे मातरम् के जोरदार उद्घोष से आकाश को गुंजायमान कर दिया | इस पर पुलिस ने जनसमूह पर बुरी तरह लाठी चार्ज आरम्भ कर दिया | यह दृश्य देखकर 15 वर्षीय बालक सुशील चन्द्र सेन ( जो आगे चलकर शहीद हुए ) से रहा नही गया | उसने लाठी चार्ज के जिम्मेदार एक अंग्रेज सार्जेंट को अपने शक्तिशाली मुक्को की मार से बुरी तरह मारा | अगले दिन उसे चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड ने 15 बेंत मारने की सजा सुनाई | हर बेंत की मार के साथ वह बालक 'वन्दे मातरम् ' और भारत माता की जय ' का नारा लगाता रहा | खून से सना हुआ जब यह बालक जेल से बहार आया तो वहाँ एकत्र युवको में दो - खुदी राम बोस और प्रफुल्ल चाकी इतने उत्तेजित हो उठे कि उन्होंने किंग्सफोर्ड को मारकर इस अत्याचार का बदला लेने का निश्चय किया | वे दोनों उसके पीछे लगे रहे | उन्हें बदला लेने का मौक़ा मिला मुजफ्फरपुर में , जहाँ वह डिस्ट्रिक्ट जज नियुक्त हो गया था | 30 अप्रैल 1908 को उसके बंगले के बाहर इन युवको ने उसकी बग्घी पर बम फेंका परन्तु भाग्य उसके साथ था , उस बग्घी में दो अंग्रेज महिलाये बैठी थी जिनकी मृत्यु हो गयी | 20 वी शताब्दी के क्रांतिकारी आन्दोलन का यह पहला प्रभावशाली बम धमाका था और यहाँ से जो सिलसिला शुरू हुआ , वह चलता ही चला गया | मुजफ्फरपुर बमकांड के आरोपी प्रफुल्ल चाकी ने पुलिस के शिकंजे से बचने के लिए स्वय को गोली मार ली और 17 वर्षीय खुदीराम बोस को इस अपराध के लिए 11 अगस्त 1908 को मुजफ्फरपुर जेल में फांसी दी गयी | इस बहादुर नवयुवक ने हँसते - हँसते वन्दे मातरम् का उद्घोष करते हुए फाँसी का फंदा चूम लिया | वास्तव में बंग - भंग आन्दोलन हमारे देश के लिए एक वरदान के रूप में उभरकर सामने आया | अगर यह आन्दोलन प्रारम्भ न होता तो भारत के कोने - कोने में राष्ट्रीयता की चेतना उत्पन्न न होती |

और न हमारे क्रांतिवीर भाई - बन्धु एवं बहिने अपना जीवन देश के लिए होम करते |
बंगाल विभाजन के विरुद्ध आन्दोला की उग्रता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि अन्तत: 1911 में जार्ज पंचम के भारत आगमन पर दिल्ली में जो राज दरबार किया गया उसमे बंग - भंग को समाप्त करने की विधिवत घोषणा की गयी | साथ ही भारत की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली कर देने की घोषणा की गयी | परन्तु वायसराय के दिल्ली पहुचने से पहले ही उनका स्वागत करने के लिए क्रांतिकारी वहां उपस्थित थे | 23 दिसम्बर 1912 को जिस समय वाइसराय लार्ड हार्डिंग की शोभा - यात्रा चाँदनी चौक पहुची , अचानक भयानक बम विस्फोट हुआ और हार्डिंग के पीछे बैठा अंगरक्षक वही ढेर हो गया | इस अपराध के लिए बसंत कुमार विशवास मास्टर अमीरचंद , अवध बिहारी तथा बालमुकुन्द को फांसी की सजा मिली | परन्तु इस योजना के सूत्रधार रासबिहारी बोस पकडे नही गये | यह दुसरा विस्फोट था जिसने संसार का ध्यान भारत के क्रांतिवीरो के आन्दोलन की तरफ खीचा | अब क्रान्ति की आग उत्तर भारत में भी पहुच गयी थी | उधर 1913 में अमेरिका के सैन्फ्रान्सिको नगर में लाला हरदयाल के नेतृत्व में गदर पार्टी की स्थापना हुई जिसे प्रवासी भारतीयों का पूरा सहयोग मिला |

धीरे - धीरे गदर पार्टी की शाखाए अनेक देशो में खुल गयी | इसके सदस्य अपने देश से विदेशी सत्ता समाप्त करने के लिए बेचैन थे | 1914 में विश्युद्ध आरम्भ हुआ तो अवसर का लाभ उठाने के लिए क्रांतिकारी भारत में सैनिक विद्रोह कराने को आतुर हो उठे | उसी वर्ष जापानी जहाजो से क्रान्तिकारियो के जत्थे भारत के लिए रवाना हुए परन्तु अधिकाँश भारतीय बंदरगाहों पर ही गिरफ्तार कर लिए गये | क्रान्ति के लिए 21 फरवरी 1915 तय की गयी परन्तु भेदिये ने प्रशासन को सुचना दे दी | रासबिहारी बोस और शचीन्द्र नाथ सान्याल तो पुलिस के हत्थे नही चढ़े परन्तु अन्य 63 लोग पकडे गये | ''प्रथम लाहौर षड्यंत्र केस'' के नाम से प्रसिद्ध इस केस में 26 क्रांतिवीरो को फांसी , 24 को आजन्म कालापानी तथा शेष को दो अलग - अलग अवधि की सजा सुनाई गयी | एक साथ 26 क्रांतिवीरो को मृत्यु दंड सुनाये जाने पर सारे देश में व्यापक प्रतिक्रिया होने लगी | वायसराय लार्ड हार्डिंग ने स्थिति भापकर यह मामला प्रिवी काउन्सिल में भेज दिया | दो माह बाद 14 नवम्बर 1915 को प्रिवी काउन्सिल ने अन्तत: अपने फैसले में 19 क्रांतिवीरो के मृत्युदंड को आजीवन काले पानी में बदलकर शेष सातो क्रांतिवीरो - करतार सिंह सराभा , विष्णु गणेश पिंगले ,बख्शीश सिंह , हरनाम सिंह ( स्यालकोट ) जगत सिंह , सुरेन सिंह ( पुत्र -ईशर सिंह ) एवं सुरेन सिंह ( पुत्र - भुर सिंह ) को मृत्यु दंड बहाल रखा |
प्रस्तुती -- सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार समीक्षक
आभार ---- हमारा लखनऊ पुस्तक माला से

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (12-11-2018) को "ऐ मालिक तेरे बन्दे हम.... " (चर्चा अंक-3153) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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