किसानो की फाँस
1947 – 50 से पहले जमीदारो को लगान चुकाने तथा अपनी आवश्यकताओ को पूरा करने के लिए रियाया एवं स्वतंत्रत किसानो के पास भी किसी महाजन से कर्ज लेने के अलावा सरकार द्वारा नियंत्रित संचालित वित्तीय संस्था नही थी | हालाकि कोपरेटिव कर्जदाता सोसायटियो की शुरुआत 1904 से ही हो गयी थी | लेकिन यह आम तौर पर जमीदारो तथा स्थायी महाजनों को ही कर्ज देने वाली सोसायटिया बनी रही | जमीदारो से स्वतंत्रत और उनके मातहत रियाया किसानो को इन सोसायटियो का लाभ आम तौर पर नही मिल पाता था | 1950 तक किसानो को उन पर चढ़े कुल कर्ज का 3.1%हिस्सा ही इन सोसायटियो से मिला था | 1952 – 53 के बाद कर्ज का यह हिस्सा बढ़कर 15.5% तथा 1961 – 62 में 22 7. % तक पहुच गया | गौर करने वाली बात है कि कर्ज की यह बढ़ोत्तरी पहले जमीदारी उन्मूलन और फिर बाद में आधुनिक बीज खाद दवा वाली खेती के आगमन के साथ ही आगे बढ़ी स्वभावत इसमें बड़ी जोत के सभी किसानो के साथ माध्यम और छोटी जोतो के किसानो का एक हिस्सा शामिल था | आधुनिक खेती के साधनों के लिए बाजार से जुड़ने और उसकी
लागत बढने के साथ किसानो द्वारा सोसायटियो तथा बैंको आदि से अधिकाधिक कर्ज लेने की जरूरत बढती रही | इसके फलस्वरूप 1980 के दशक में कोपरेटिव सोसायटियो द्वारा लिया जाने वाला कृषि ऋण कुल कर्ज का 53.4 % तक पहुच गया | हालाकि उसके बाद से कोपरेटिव सोसायटियो से मिलने वाले कर्ज के मुकाबले अन्य वित्तीय संस्थानों से मिलने वाले कर्ज के मुकाबले गिरने लगा | 2013 – 14 में वह गिरकर 16.9% पहुच गया | कृषि ऋण का बड़ा हिसा अन्य वित्तीय संस्थानों से आता रहा कृषि ऋणदाता अन्य वित्तीय संस्थानों को भी 1960 के बाद से विभिन्न रूपों में बढ़ावा दिया गया | फलस्वरूप इस समय देश में एक लाख कोपरेटिव कर्जदाता संस्थाओं के अलावा 60 हजार से ज्यादा वाणिज्यिक बैंको एवं 10 हजार से ज्यादा क्षेत्रीय बैंको की शाखाए कार्यरत है | इनका फैलाव दूर – दराज के गाँवों तक हो चुका है | 2013 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (NSSO) की रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया कि अभी भी किसानो का 40% हिस्सा निजी महाजनों एवं गैर संस्थागत स्रोतों द्वारा दिए जाने वाले कर्जो पर निर्भर है | रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि खासकर छोटी जोतो वाले किसान गैर सहकारी निजी महाजनों एवं कर्जदाताओ कम्पनियों के जाल में ज्यादा फंसे हुए है | बताया गया की एक हेक्टेयर तक या उससे भी कम जोत के किसानो का 47% से लेकर 85% तक का हिस्सा इन कर्जदारों के चंगुल में फंसा हुआ है | रिपोर्ट में इस बात को भी उठाया गया है कि सीमांत यानी एक हेक्टेयर से कम जोत वाले कृषक कर्जदारों की संख्या बढती जा रही है | इनकी यह संख्या संगठित क्षेत्र में रोजगार की कुल संख्या में ( बढ़ते आधुनिकरण एवं निजीकरण ताला बंदी आदि के चलते ) आती रही कमी तथा असंगठित औद्योगिक क्षेत्रो में बढ़ते संकट से भी रोजगार में आती कमी है |
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण का यह आकडा किसानो के वित्तीय समावेश के पूर्व घोषित लक्ष्य के ठीक विपरीत है | उन्हें वित्तीय संस्थानों से कर्ज पाने से बाहर रखने का सबूत है | केन्द्रीय सरकार ने किसानो को सरकारी या सहकारी वित्तीय संस्थानों से न जुड़ पाने के कारणों व कारको का विश्लेष्ण करते हुए कई कमेटियो और कार्यकर्ताओं समूहों का गठन किया था | इन रिपोर्टो में यह बताया गया है की ‘ बैंक छोटे कर्जदारों को असफल और बड़े कर्जदारों को सफल को सिद्दांत के रूप में स्वीकार कर छोटे व सीमांत किसानो को कर्ज देने से कतराते है | साथ ही उनका कहना है की इन छोटी जोतो के उत्पादन से अधिक वृद्दि नही हो पाती है इसलिए इनको दिए कर्ज बैंको के ब्त्तेखाते ( एन पी इ ) को तथा बैंको के घाटो को ही बढाने का काम करते है |
लेकिन आम किसानो पर बैंको या सोसायटियो का चढा बकाया धनाढ्य कम्पनियों के बकाये से एकदम भिन्न है | कयोकी ये कम्पनिया बैंको के कर्ज का इस्तेमाल अपनी पूजी परिसम्पत्तियो और निवेशो को बढ़ावा देने के लिए करते हुए बैंको के बकाये को जान बूझकर द्कारती रहती है |
स्वंय श्रम न करने की हरामखोरी के साथ हर तरह से टैक्स व धन चोरी पर हमेशा आमदा रहती है | इसके विपरीत व छोटे किसान न तो कामचोर है न ही धन चोर | उलटे वे अपनी छोटी या अत्यंत छोटी जोत पर कठिन परिश्रम कर देश के खाद्यन्न उत्पादन में बड़े किसानो के मुकाबले ज्यादा योगदान करते है | लेकिन खेती करने और जीवन के अन्य आवश्कताओ उन्हें फिर कर्ज लेने के लिए मजबूर करती रहती है | ऐसे सथियो में वे प्राइवेट महाजनों या फिर राष्ट्रीय व ग्रामीण बैक ( नाबार्ड ) की स्नस्त्तियो के अनुसार सरकारी आज्ञा व लाइसेंस से चलाई गयी फाइनेंस कम्पनियों के वित्तीय जालो में फंस जाती है कृषि ऋण को बढाने का यह काम कृषि लागत को , किसानो के निजी सिंचाई के साधनों तथा बीज खाद एवं कृषि यंत्र की भारी लुट को बढ़ावा देने की नीतिगत छुट के साथ किया जाता है | इनके अलावा देश की सरकारे पिछले 20 – 25 सालो से कृषि निवेश घटाने और खाद – बीज आदि पर दी जाने वाली सब्सिडिया को काटने – घटाने की नीतियों को भी अपनाई हुई है यह स्थिति तब तक रुकने वाली नही है , जब तक सरकार कृषि के निवेश के साथ आम किसानो की जीविका को बचाने का प्रयास नही करती है | कृषि क्षेत्र में लगी कम्पनियों और उनकी लूट पर लगाम नही लगाती | लागत का मूल्य घटाने तथा किसानो को उनके उत्पानो के संतुलित मूल्य भाव के साथ बिक्री बाजार की गारंटी नही देती है | क्या इन अपेक्षाओं के ठीक विपरीत दिशा में बढती तथा देश व विदेश की धनाढ्य कम्पनियों की सेवा में लगी सरकारे यह काम कर सकती है ? तब तो एकदम नही कर सकती जब तक बहुसख्यक किसान अपनी खेती से जुडी समस्याओं और मांगो को लेकर एकजुट नही हो जाते |
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
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