Tuesday, January 23, 2018

आदिवासी संघर्ष गाथा 24-1-18



आदिवासियों का संघर्ष -
झारखंड राज्य के गठन के बाद से डोमेसाइल या स्थानीयता के मुद्दे को लेकर पूरा राज्य आंदोलित है | यह सही है कि इस आन्दोलन का नेतृत्व और विरोध राजनीति से प्रेरित लोग कर रहे है जिनका एक मात्र लक्ष्य लोगो की भावनाओं को उभार कर अपनी चुनावी गोटी को लाल करना और सत्ता पर काबिज होना है , लेकिन सतह पर दिखने वाली इन बातो के भीतर यदि झाँककर देखा जाए तो वह साफ़ दिखता है कि यहाँ के मूलवासी - चाहे वे आदिवासी हो या सदान - बैचैन है | उन्हें अपना अस्तित्व एक बार फिर खतरे में पडा दिखाई दे रहा है | झारखंड राज्य के गठन से उनकी जो उम्मीद थी , वे पूरी नही हुई हैं | इस क्षेत्र के जल , जंगल , जमीन पर से उनका अधिकार पूरी तरह छीन चुका है | जीवनयापन के आर्थिक स्साध्नो पर उनका अधिकार नही रहा | रोजगार के अवसर निरंतर कम होते जा रहे है और जो थोड़े अवसर पैदा हो रहे है , उसके लिए भी छिना - झपटी मची हुई है | जनतांत्रिक व्यवस्था में उनकी पहचान का मूलाधार है कुल आबादी में उनका प्रतिशत , जो निरंतर कम होता जा रहा है ; अपने ही घर में वे अल्पसंख्यक बनते जा रहे है और हालात ऐसे बन गये है कि वर्तमान व्यवस्था में उनका सत्ता पर कब्जा कभी हो ही नही सकता | और अब तो सत्ता के दलाल ''ह्न्दुत्ववादी ' उनकी अस्मिता और उनकी विशिष्ट सामाजिक - सांस्कृतिक पहचान ही मिटाने पर तुले है |
छोटानागपुर /संथाल परगना टीनेंसी एक्ट को समाप्त करने की बात हो रही है | उन्हें हिन्दू साबित करने की कोशिश हो रही है , क्योकि उनकी समझ है कि बिना हिन्दू हुए कोई भारतीय नही हो सकता | वास्तविकता यह है कि आदिवासियों की संस्कृति तथाकथित हिन्दू संस्कृति से भिन्न है | इसका ठोस प्रमाण यह तथ्य है कि हिन्दू समाज मनुवादी वर्ण -व्यवस्था द्वारा संचालित होता रहा है , जबकि आदिवासी समाज में जातीय समूह तो थे लेकिन वर्ण - व्यवस्था नही | हेयर आदिवासी हिन्दू समाज व्यवस्था में उत्पादन के साधनों पर कभी मेहनतकश जनका अधिकार नही रहा , जबकि आदिवासी समाज में उत्पादन के साधनों पर उस समाज के हर वैसे व्यक्ति का अधिकार था जो श्रम कर सकता था | इसीलिए गैर आदिवासी भारतीय समाज में जहां सामन्तवादी व्यवस्था रही वहाँ आदिवासी समाज में न कोई सामंत था , और न किसी तरह का राजतंत्र |
इस तथ्य को भी नही भुलाया जा सकता कि ढहते मुग़ल शासन के दौरान अंग्रेज जब भारत में आये तो उनका कोई संगठित विरोध नही हुआ | १८५७ का सिपाही विद्रोह भी एक सिमित अर्थ में ही स्वतंत्रता संग्राम था | उसके बाद गांधी जी के भारतीय राजनीति में आने से पहले तक अंग्रेज ' भारत भागे विधाता बने रहे और देश की कथित मुख्य धारा के लोग अंग्रेजी राज को स्वीकार किये हुए थे |
लेकिन आदिवासी समाज ने कभी भी अंग्रेजो की दासता काबुल नही की | अंग्रेजी राज का कदम - कदम पर विरोध हुआ और सिपाही विद्रोह के पहले १८३२ में कोल विद्रोह हुआ | १९०० में विरसा विद्रोह भी अंग्रेजो के अधीन आंतरिक स्वशासन के लिए नही बल्कि ''रानी '' के शासन की समाप्ति और ''मुण्डाराज की पुनर्वापसी '' के एलान के साथ शुरू हुआ था | अंग्रेजो ने विलकिसन रुल , छोटानागपुर /संथाल परगना टीनेंसी एकत जैसे कानून इन क्षेत्र विशेष के लिए किसी सदाशयता से प्रेरित होकर नही बनाये गये थे | इसके लिए मूलवासियो ने सतत संघर्ष किया था और अगिनत लोग शहीद हुए |
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आदिवासी संघर्ष गाथा ---- भार दो

झारखंड का अतीत ---


झारखंड के आदिवासियों का सम्पूर्ण इतिहास नही मिलता , कयोकी अपनी विशिष्ठ सांस्कृतिक और सामाजिक व्यवस्था की वजह से वे इतिहास की उस धारा से कटे रहे जिसे इतिहासकार देश की मुख्य धरा मानते है | इसीलिए भारतीय इतिहास में जहां - तहां उनकी चर्चा भी हुई है तो एक आदिम सभ्यता के अवशेष के रूप में | यह अलग बात है की अपने उसी सामाजिक और सांस्कृतिक वैशिष्ट्य और अपनी अलग पहचान के लिए अनवरत संघर्ष की वजह से आज उन्होंने इतिहास में अपनी जगह बना ली है , बल्कि आदिवासी जनजातीय समूहों को केंद्र में रखकर आई कई राज्यों का गठन भी हुआ है | झारखंड उन राज्यों में अपना विशिष्ठ स्थान रखता है और यह जानना दिलचस्प होगा की छोटानागपुर के रूप में चिन्हहित झारखंड का इतिहास क्या रहा है | इस सम्बन्ध में अनेक शोध पूर्ण कार्य हुए है और अब तक अन्धकार में रहे आदिवासी समाज के इतिहास को हम अब जानने भी लगे है |

छोटानागपुर क्षेत्र के कुछ इलाको में आज भी जंगल दिखाई देते है और सैकड़ो वर्ष पहले जब इस क्षेत्र में जनजातीय समूह के लोगो ने प्रवेश किया तो यह पूरा इलाका जंगलो से आच्छादित था | अब तक जो प्रमाण मिले है , उनके अनुसार इस इलाके में सबसे पहले मुण्डा, उड़ाव, और खडिया जाति के लोगो ने प्रवेश किया | उस वक्त भी इस क्षेत्र की पहचान झारखंड के रूप में की जाती थी , यानी जंगल - झाड से आच्छादित प्रदेश | मुण्डा जाति के लोगो ने पशिच्मोत्तर क्षेत्र से इस इलाके में सबसे पहले प्रवेश किया , इसका प्रमाण उन कब्रिस्तानो से मिलता है जिसे सासिदरी कहते है और जहां वे अपने मृत परिजनों को या उनके अवशेषों को दफनाते है , वे इस इलाके में जिन रास्तो से होकर वे इस क्षेत्र में आये | उनके साथ उया उनके आने के कुछ दिन बाद उराँव जनजाति समूह के लोगो ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया | उन्होंने इस क्षेत्र के घने जंगलो को काटकर खेती लायक जमीन बनाई और अपने गाँव बसाए | जिस जमीन को जंगल से काटकर वे कृषि लायक बनाते थे , उस जमीन के मालिक वे स्वंय होते थे और खुद को खुटखुट्टीदार कहते थे | और चूँकि वे जमीन के मालिक होते थे , इसलिए वे किसी को लगान नही देते थे | यह ऐतिहासिक परिघटना मुग़ल काल के काफी पहले , सम्भवत: दसवी शताब्दी की है | वैसे कुछ इतिहासकार इस परिघटना का समय कुछ और पीछे ले जाते है |

चूँकि उत्पादन के स्साध्नो पर उत्पादन करने वालो का अधिकार था , इसीलिए यहाँ की सामाजिक व्यवस्था भी देश के उन इलाको से भी भिन्न थी जहां उत्पादन के स्साध्नो पर सामन्तो का अधिकार हुआ करता था यहाँ की सामाजिक , राजनितिक व्यवस्था बिलकुल अनूठी और अलग थी | पूरा क्षेत्र परहा में विभाजित था और एक परहा में 15 से 20 गाँव हुआ करते थे | प्रत्येक परहे का एक प्रधान या प्रमुख होता था | इन्ही प्रधानो ने मिलकर खुखरा चीफ का चुनाव किया जो छोटानागपुर का राजा या महाराजा के पूर्वज थे | हो सकता है , तत्कालीन खुखरा चीफ ने अपनी सर्वोच्चता किसी तरह प्रमाणित की हो | और वह एक मुण्डाथा | इसीलिए छोटानागपुर की राज व्यवस्था को मुण्डा राज के रूप में वे अब भी चिन्हहित करते है |

अब जो भी हो रहा है , बाद में खुखरा राजाओं ने अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए सिंहभूम और पचेत के राजपूत परिवारों से वैवाहिक रिश्ते कायम किये | उन्होंने ब्राह्मणों , राजपूतो , बराईक एवं अन्य हिन्दू जाति के लोगो को जमीन देकर अपने इलाके में बसाया और अपनी स्थिति इतनी सुदृढ़ कर ली की अन्य प्रधान या राजा उन्हें चुनौती नही दे सके | यहाँ की व्यवस्था यह थी की जो जंगल साफ़ करता था और जमीन तैयार करता था , वह जमीन उसकी होती थी और उसके लिए उसे किसी को लगान देना नही पड़ता था , लेकिन खुखरा राजाओ ने बाद में इस व्यवस्था को समाप्त करने की कोशिश की | अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए जिन लोगो को अपने यहाँ लाकर वे बसा रहे थे , उन्हें जमीन या जमीदारी देकर नवाजते थे | परिणाम यह हुआ की अन्य राजा या प्रधान सामान्य किसान बनकर रह गये | अंग्रेजो के जमाने में खूटी सब दिजिवन को छोड़कर कही भी खुटकट्टीदारी व्यवस्था नही बची थी |

मुग़ल - शासन का छोटानागपुर के इस हिस्से पर कोई ख़ास प्रभाव नही था | कभी - कभी उनके सिपहसालार इस इलाके पर आक्रमण करते और खुखरा राजा से ''हीरे '' का नजराना लेकर वापस लौट जाते | उस वक्त , चर्चा के मुताबिक़ , शंख नदी में हीरा मिलता था | यह प्रक्रिया 1585 इसवी से शुरू हो चुकी थी | इतिहासकारों के मुताबिक़ 1616 इसवी में मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने अपने सिपहसालार इब्राहिम खान , जो उस वक्त बिहार का सूबेदार था , को इस क्षेत्र पर आक्रमण करने का निर्देश दिया | उस तक यह चर्चा पहुच चुकी थी की इस इलाके में हीरे की प्रचुरता से मिलते है | एक विशाल सेना लेकर इब्राहिम खान ने इस इलाके पर आक्रमण किया और खुखरा रजा दुर्जन साल को पकड़कर दिल्ली ले गया | बाद में उन्हें ग्वालियर ले जाया गया , जहां वे अन्य राजाओ के साथ करीब बारह वर्ष कैद रहे | बाद में उन्हें इस शरत पर छोड़ा गया की वे प्रतिवर्ष 6000 रूपये नजराना मुग़ल बादशाह को देंगे | उन्हें यह छुट दी गयी की वे अपने राज्य को अपनी मनमर्जी से चला सकते है |क्रमश :

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