विक्रमशिला संग्रहालय ---
विक्रमशिला का संग्रहालय छोटे में पर बहुत ही शानदार तरीके से बनाया गया है , इसमें विक्रमशिला की खुदाई से प्राप्त सामग्री प्रदर्शित की गयी है , जिसको देखने से यह अंदाजा लगता है की जब यह विश्व विद्यालय अपने उरूज पे रहा होगा तो कितना भव्य होगा आइये देखते है यहाँ पर खुदाई से क्या प्राप्त हुए है
विक्रमशिला संग्रहालय की स्थापना नवम्बर 2004 में की गयी जिसमे भारतीय पुरात्तव सर्वेक्षण द्वारा कराए गये उत्खनन (1972--82) से प्राप्त पूरासामग्री प्रदर्शित की गयी है |विक्रमशिला से प्राप्त पूरा वस्तुए आठवी से बारहवी शताब्दी की है तथा एक ही सांस्कृतिक कालखंड की ध्योतक है | रूप , आकृति व कलात्मकता की दृष्टि से यहाँ की मुर्तिया एक विशिष्ठ कला शैली का प्रतिनिधित्व करती है जिसे पाल शैली अथवा मध्यकालीन पूर्वी भारतीय शैली कहा जाता है | पाल मुर्तिया प्राय: अधिक उभर्युकत फलक मुर्तिया है जिनमे शिल्प कौशल , सुन्दर नक्काशी तथा गहन अलंकरण स्पष्ट दिखाई देता है |
इसके अतिरिक्त काले बैसाल्ट पत्थर में बनी कुछ मूर्तियों में एक विशेष चमक भी देखने को मिलती है | यद्दपि अधिकाश मुर्तिया राजमहल पहाडियों से प्राप्त काले बैसाल्ट पत्थर में ही उकेरी गयी है परन्तु कुछ को पथरघट्टा पहाडियों के चुना पत्थर में भी तराशा गया है |
चुना पत्थर के एक सुन्दर फलक में बुद्ध के जीवन से जुडी आठ प्रमुख घटनाओं का चित्रण किया गया है | केंद्र में स्थित प्रधान मूर्ति में मुकुटधारी बुद्ध को भूमि का स्पर्श करते हुए दर्शाया गया है जो बोधगया में ज्ञान की प्राप्ति के समय बुद्ध द्वारा पृथ्वी को साक्षी बनाये जाने की घटनाओं को प्रतीकात्मक लघु आकृतियों के माध्यम से फलक पर चित्रित किया गया है | मूर्ति के बाए सबसे निचे लुम्बिनी में उनके जन्म का द्रश्य है | तदुपरांत घड़ी के विपरीत दिशा की ओर बढने पर क्रमश: राजगृह में मदमत्त हाथी का वशीकरण , सारनाथ में प्रथम धर्मोपदेश , कुशीनगर में महापरीनिर्वाण , श्रास्व्ती का चमत्कार संकिसा की घटना तथा वैशाली में वानर प्रमुख द्वारा मधु अर्पण करने के दृश्यों का अंकन किया गया है
वज्रयान के प्रादुर्भाव के साथ बौद्ध धर्म में बड़ी संख्या में देवी स्वरूपों को भी स्थान मिला जिसमे सर्वाधिक पूजी जाने वाली व लोकप्रिय देवी तारा है | वस्तुत:बौद्ध धर्म में अनेको देवियों के एक विशेष समूह के लिए तारा सर्वप्रचलित नाम है ||
विक्रमशिला के उत्खनन से बड़ी संख्या में तारा प्रतिमाये प्राप्त हुई है जिनमे से अधिकाश काले बैसाल्ट पत्थर में उकेरी गयी अत्यधिक उभर्युकत मुर्तिया है | इनमे लक्ष्ण , वस्त्राभूष्ण एवं अलंकरण आदि के सूक्ष्म विवरण भी सुन्दरता के साथ चित्रित किये गये है |
वज्रयान चरण में अनेक हिन्दू देवी - देवता भी बौद्ध धर्म में समाविष्ट कर लिए गये थे | इनमे महाकाल अत्यंत महत्वपूर्ण है जो शिव का ही एक रूप है | तांत्रिक कर्मकांड में इस रौद्र देवता की पूजा शत्रुओ का नाश करने के उद्देश्य से की जाती है | इनकी कल्पना ऐसी विकराल का शक्ति के रूप में की गयी है जो पापिज्नो का मांस भक्षण व रक्तपान करते है | ये ऐसे लोगो के मन में श्रद्धा एवं भय का संचार भी करते है जो अपने गुरुओ तथा धर्मग्रन्थो के प्रति आदर भाव नही रखते |
विक्रमशिला से प्राप्त एक फलक में उन्हें उन्नतोदर वामन के रूप में चित्रित किया गया है जिनकी बढ़ी हुई दाढ़ी व मुछे है तथा खुले हुए मुख में दन्तावली स्पष्ट दिखाई पड़ रही है | उनके चार हाथो में क्रमश: शंख ,कपाल , त्रिशूल व कटोरा है तथा गले में नरमुण्ड की मला धारण किये हुए है जो उनके विनाशक रूप का ध्योतक है |
इस संग्रहालय में प्रदर्शित बौद्ध मुर्तिया में अवलोकितेश्वर , लोकनाथ , जाम्भाल , अपराजिता , मारीचि आदि की प्रतिमाये विशेष रूप से उल्लेखनीय है | इनके अतिक्रिकत महाविहार परिसर के मुख्य द्वार से उत्तर लगभग १०० मीटर की दुरी पर अनावृत हिन्दू मंदिरों के भ्ग्नावेशेष से द्वारा स्तम्भों , चौखटों , स्थापत्य शिलाखंडो सहित हिन्दू देवी - देवताओं की अनेको मुर्तिया भी प्रापत्र हुई है | इनमे गणेश , सूर्य , पार्वती , उमा - महेश्वर , महिषासुर मर्दिनी विष्णु इत्यादि की मुर्तिया प्रमुख है | चुना पत्थर में उकेरी गयी एक सूर्य प्रतिमा में उन्हें लम्बा जुटा पहने तथा दोनों हाथो में खिला हुआ कमल धरान किये हुए दिखाया गया है |
भगवान कृष्ण की मित्रता की पौराणिक कथा सर्वविदित है | संग्रहालय में प्रदर्शित एक फलक में उस दृश्य का अंकन है जब सुदामा अपने बालसखा कृष्ण से मिलने द्वारका पहुचंते है | अत्यंत प्राचीन युग से ही भारतीय लोगो का ग्रहों के सुभ - अशुभ प्रभावकारी शक्ति पर विशवास रहा है | हिन्दू , बौद्ध व जैन मतावलम्बियो में समान रूप से ऐसा विशवास देखने को मिलता है तथा तीनो धर्मो में ग्रहों की पूजा की जाती रही है परम्परानुसार सौर मंडल के नव ग्रहों के समूह को 'नवग्रह'कहा जाता है जिनके नाम क्रमश: सूर्य , चन्द्र , मंगल , बुद्द ,वृहस्पति , शुक्र , शनि , राहू - केतु है | एक पट्टिका में इन सभी को अधोभग में अंकित प्रतीक चिन्हों के साथ मानव रूप में दिखलाया गया है | प्रस्तर मूर्तियों के अतिरिक्त विक्रमशिला के कलाकारों ने बहुसंख्यकांस्य प्रतिमाये भी बनाई जिसमे अधिकाश देवी - देवताओं की है | अत्यंत लचीला व हल्का माध्यम होने के कारण कांस्य में शिल्पी को सूक्ष्म से सूक्ष्म अभिव्यक्ति का भी पूरा अवसर मिला जो इन मूर्तियों में स्पष्ट झलकता है | यद्धपि कांस्य मूर्तियों के निर्माण में सर्वाधिक प्रचलित अष्टधातु था जो ताँबा, टिन, सीसा ,जस्ता ,एंटीमनी, लोहा , सोना एवं चाँदी का एक मानक मिश्रधातु है तथापि ताँबा, पीतल अथवा इनके किसी भी मिश्रधातु की बनी प्राय: सभी मुर्तिया काँस्य की श्रीनि में ही राखी जाती है |
विक्रमशिला की काँस्य मुर्तिया अत्यधिक सुन्दर तथा आकर्षक बन पड़ी है जिनमे काय की कोमलता , शास्त्रोचित नियमबद्धता , वस्त्राभूष्ण , जटामुकुट, अथवा किरीट के सुनिश्चित प्रतिमान देखने को मिलते है | शिल्प की दक्षता तथा अभिव्यक्ति की प्रधानता की दृष्टि से यहाँ की काँस्यमुर्तिया विलक्ष्ण है | विक्रमशिला की इन मूर्तियों की तुलना बिहार स्थित नालंदा एवं कुर्किहार तथा बंगाल व बांग्लादेश के अनेक श्त्लो से प्राप्त काँस्यप्रतिमाओं से की जा सकती है |
विक्रमशिला संग्रहालय में मृणमय कलाकृतियों का भी उल्लेख्य्नीय संग्रह है जिनमे हाथी, कुत्ता मकर इत्यादि सहित अनेको पशु , पक्षी व मानव आकृतिया प्रदर्शित है |
अन्य पुरावस्तुओ में मृणमय खिलौने , झुनझुने , चकतिया , त्व्चामार्जक, मुद्राए एवं मुद्राकन ;पत्थर , काँच तथा मिटटी के मनके ;विभिन्न आकार - प्रकार के गृहोपयोगी मृदभाण्ड, सिक्के , अभिलेख , अंजन शालाक्ये , ताँबे की अंगुठिया , कास्य की नथुनी , हाथी दांत के पासे , हड्डी से बने वेधक , सिंग , लौह निर्मित बाणाग्र भले , खंजर इत्यादि सम्मलित है जो पालकालीन इतिहास कला स्थापत्य पर पर्याप्त प्रकाश डालते है | यह संग्रहालय इस क्षेत्र के तत्कालीन जन समुदाय और विशेषकर विक्रमशिला महाविहार की जीवन शैली को जिवंत रूप में दर्शाने का अनूठा प्रयास है
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