क्रांतिकारी वीरांगना प्रीतिलता वादेदार
देश के क्रांतिकारी वीरो और वीरांगनाओ का इतिहास महज उनके गौरवशाली शाहदत का ही नही है , अपितु यह 1947 में राष्ट्र को प्राप्त "समझौतावादी स्वतंत्रता " के विपरीत 'क्रांतिकारी - स्वतंत्रता ' के लक्ष्यों , उद्देश्यों का भी इतिहास है | उनके ये लक्ष्य इस राष्ट्र को ब्रिटिश राज से मुक्ति के साथ - साथ उसकी आर्थिक , शैक्षणिक , सांस्कृतिक परनिर्भरता व परतंत्रता के संबंधो से भी मुक्ति के लिए निर्धारित किए गये थे | इन्ही लक्ष्यों के अनुरूप वे अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को चलाते भी रहे थे | यह हिंसा और अहिसा का प्रश्न नही है , बल्कि क्रांतिकारी स्वतंत्रता के उद्देश्यों और लक्ष्यों का सवाल है |
लेकिन इतिहास की बिडम्बनापूर्ण कटु सच्चाई यह है कि भगत सिंह जैसे सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारियो तक के प्रमुख लक्ष्य व उद्देश्य देशवासियों के लिए आज भी अज्ञात है | वर्तमान दौर में राष्ट्र की और राष्ट्र की बहुसख्यक जनसाधारण की निरन्तर बढती और घहराती समस्याओं में इन क्रान्तिकारियो और उनके उद्देश्यों लक्ष्यों को जानना नितांत प्रासंगिक है |इसकी प्रासंगिकता इसलिए भी है कि अमेरिका ब्रिटेन जैसी साम्राज्यी ताकते और उसका इस राष्ट्र पर बढ़ता जा रहा प्रभुत्व -प्रभाव ही वर्तमान दौर कि समस्याओं का सर्वप्रमुख कारण व कारक बना हुआ है |
इसलिए उनसे मुक्ति के वास्ते इतिहास में क्रान्तिकारियो द्वारा घोषित उद्देश्य व लक्ष्य तथा उनके क्रांतिकारी संघर्ष , त्याग और बलिदान वर्तमान दौर में न केवल स्मरणीय है , अपितु अनुकरणीय भी है | लेकिन अब यह बात केवल देश के जनसाधारण हिस्से के लिए सच है | देश के धनाढ्य व उच्च हिस्सों के लिए नही हैक्योंकि देश का यह अल्पसख्यक पर साधन सम्पन्न व प्रभुत्व सम्पन्न हिस्सा इन लुटेरी व प्रभुत्वकारी साम्राज्यी ताकतों के साथ एकजुट हो गया है | निरन्तर एकजुट होता जा रहा है | इसलिए भी वह राष्ट्र के क्रान्तिकारियो कि जीवनियो व संघर्षो को खासकर उनके उद्देश्यों व लक्ष्यों को आम जनता से छिपाने का प्रयास भी करता रहा है |
इसीलिए राष्ट्र के आम जन को उन उद्देश्यों व लक्ष्यों के प्रति सजग व सक्रिय बनाने के लिए क्रान्तिकारियो के संघर्षो को जानने बताने में प्रबुद्ध जनसाधारण कि भूमिकाये अब आवश्यक एवं अपरिहार्य बन गयी है |
प्रीतिलता वादेदार का जन्म 5 मई 1911 को तब के पूर्वी हिन्दुस्तान और अब बांग्ला देश में स्थित चटगाँव के एक गरीब घर में हुआ था | उनके पिता नगरपालिका के क्लर्क थे | स्कूली जीवन में ही वे बालचर - संस्था की सदस्य हो गयी थी | वहाँ उन्होंने सेवाभाव और अनुशासन का पाठ पढ़ा | बालचर संस्था में सदस्यों को ब्रिटिश सम्राट के प्रति एकनिष्ट रहने की शपथ लेनी होती थी | संस्था का यह नियम प्रीतिलता को खटकता था | उन्हें बेचैन करता था | यही उनके मन में क्रान्ति का बीज पनपा था | बचपन से ही वह रानी लक्ष्मी बाई के जीवन - चरित्र से खूब प्रभावित थी इंटर नेट से प्राप्त सूचनाओं के अनुसार उन्होंने 'डॉ खस्तागिर गवर्मेंट गर्ल्स स्कूल चटगाँव से मैट्रिक की परीक्षा उच्च श्रेणी में पास किया | फिर इडेन कालेज ढाका से इंटरमिडीएट की परीक्षा और ग्रेजुएशन नेथ्यून कालेज कलकत्ता से किया | यही उनका सम्पर्क क्रान्तिकारियो से हुआ | शिक्षा उपरान्त उन्होंने परिवार की मदद के लिए एक पाठशाला में नौकरी शुरू की | लेकिन उनकी दृष्टि में केवल कुटुंब ही नही था , पूरा देश था | देश की स्वतंत्रता थी | पाठशाला की नौकरी करते हुए उनकी भेट प्रसिद्ध क्रांतिकारी सूर्य सेन से हुई | प्रीतिलता उनके दल की सक्रिय सदस्य बनी | पहले भी जब वे ढाका में पढ़ते हुए छुट्टी में चटगाँव आती थी तब उनकी क्रान्तिकारियो से मुलाक़ात होती थी और अपने साथ पढने वाली सहेलियों से तकरार करती थी कि वे क्रांतिकारी अत्यंत डरपोक है | लेकिन सूर्यसेन से मिलने पर उनकी क्रान्तिकारियो के विषय में गलतफहमी दूर हो गयी | एक नया विश्वास कायम हो गया | वह बचपन से ही न्याय के लिए निर्भीक विरोध के लिए तत्पर रहती थी | स्कूल में पढ़ते हुए उन्होंने शिक्षा विभाग के एक आदेश के विरुद्ध दूसरी लडकियों के साथ मिलकर विरोध किया था | इसीलिए उन सभी लडकियों को स्कूल से निकाल दिया गया | प्रीतिलता जब सूर्यसेन से मिली तब वे अज्ञातवास में थे | उनका एक साथी रामकृष्ण विश्वास कलकत्ता के अलीपुर जेल में था | उनको फांसी की सज़ा सुनाई गयी थी | उनसे मिलना आसान नही था | लेकिन प्रीतिलता उनसे कारागार में लगभग चालीस बार मिली और किसी अधिकारी को उन पर सशंय भी नही हुआ | यह था , उनकी बुद्धिमत्ता और बहादुरी का प्रमाण | इसके बाद वे सूर्यसेन के नेतृत्त्व कि इन्डियन रिपब्लिकन आर्मी में महिला सैनिक बनी | पूर्वी बंगाल के घलघाट में क्रान्तिकारियो को पुलिस ने घेर लिया था घिरे हुए क्रान्तिकारियो में अपूर्व सेन , निर्मल सेन , प्रीतिलता और सूर्यसेन आदि थे | सूर्यसेन ने लड़ाई करने का आदेश दिया | अपूर्वसेन और निर्मल सेन शहीद हो गये | सूर्यसेन की गोली से कैप्टन कैमरान मारा गया | सूर्यसेन और प्रीतिलता लड़ते - लड़ते भाग गये | क्रांतिकारी सूर्यसेन पर 10 हजार रूपये का इनाम घोषित था | दोनों एक सावित्री नाम की महिला के घर गुप्त रूप से रहे | वह महिला क्रान्तिकारियो को आश्रय देने के कारण अंग्रेजो का कोपभाजन बनी | सूर्यसेन ने अपने साथियो का बदला लेने की योजना बनाई | योजना यह थी कि पहाड़ी की तलहटी में यूरोपीय क्लब पर धावा बोलकर नाच - गाने में मग्न अंग्रेजो को मृत्यु का दंड देकर बदला लिया जाए | प्रीतिलता के नेतृत्त्व में कुछ क्रांतिकारी वहाँ पहुचे | 24 सितम्बर 1932 की रात इस काम के लिए निश्चित की गयी | हथियारों से लैस प्रीतिलता ने आत्म सुरक्षा के लिए पोटेशियम साइनाइड नामक विष भी रख लिया था | पूरी तैयारी के साथ वह क्लब पहुची | बाहर से खिड़की में बम लगाया | क्लब की इमारत बम के फटने और पिस्तौल की आवाज़ से कापने लगी | नाच - रंग के वातावरण में एकाएक चीखे सुनाई देने लगी |13 अंग्रेज जख्मी हो गये और बाकी भाग गये | इस घटना में एक यूरोपीय महिला मारी गयी | थोड़ी देर बाद उस क्लब से गोलीबारी होने लगी | प्रीतिलता के शरीर में एक गोली लगी | वे घायल अवस्था में भागी लेकिन फिर गिरी और पोटेशियम सायनाइड खा लिया | उस समय उनकी उम्र 21 साल थी | इतनी कम उम्र में उन्होंने झांसी की रानी का रास्ता अपनाया और उन्ही की तरह अंतिम समय तक अंग्रेजो से लड़ते हुए स्वंय ही मृत्यु का वरण कर लिया
प्रीतिलता के आत्म बलिदान के बाद अंग्रेज अधिकारियों को तलाशी लेने पर जो पत्र मिले उनमे छपा हुआ पत्र था | इस पत्र में छपा था कि " चटगाँव शस्त्रागार काण्ड के बाद जो मार्ग अपनाया जाएगा , वह भावी विद्रोह का प्राथमिक रूप होगा | यह संघर्ष भारत को पूरी स्वतंत्रता मिलने तक जारी रहेगी |"
इतनी छोटी उम्र में प्रीतिलता ने महान कार्य की नीव रखी |वे क्रांतिकारी के साथ एक निर्भीक लेखिका भी थी | वे निडर होकर लेख लिखती थी | कुमारी प्रीतिलता का यह बलिदान भावी पीढ़ी तक युवतियों के लिए प्रेरणा स्रोत रहेगा |
साभार ----- राजेन्द्र पटोरिया की 50 क्रांतिकारी पुस्तक और इंटर नेट से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर लिखा गया लेख
-सुनील दत्ता --- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
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