स्वाधीनता सग्राम में मुस्लिम भागीदारी --- भाग चार
19 वी सदी में ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के उत्तरोत्तर विस्तार के साथ चार्ल्स कार्नवालिस के नेतृत्व में भूमि बन्दोबस्त की निर्मम प्रणाली लागू की गयी | इसने कुलीनों के नए वर्ग को जन्म दिया , जिसने असंतोष को गढने का काम किया | इस स्थिति में , स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास में नए अध्याय का सूत्रपात करते हुए दृश्य - पटल पर भारतीय वहाबी उपस्थित हुए | यह 19वी सदी के बिलकुल शुरू के , सर्वाधिक सुसंगत , विस्तारित और सर्वाधिक उल्लेखनीय ब्रिटिश - विरोधी आंदोलनों में से एक था | यह भारतीय स्वाधीनता संघर्ष का हिस्सा था क्योकि इसने भारत में ब्रिटिश आधिपत्य के लिए गंभीर खतरा प्रस्तुत किया | पूरे देश में फ़ैल चुका वहाबी आन्दोलन 1870 तक जारी रहा | भारतीय वहाबियो को ''मोहम्मदिया तरीका '' के रूप में जाना गया और उसके सस्थापक रायबरेली एक एक फकीर सैय्यद अहमद बरेलवी थे | सैय्यद बरेलवी सउदी के अरब के अब्दुल वहाब की शिक्षाओं और दिल्ली के सन्त शाह वल्लूल्लाह के उपदेशो से बहुत अधिक प्रभावित थे | सभी मुस्लिम और हिन्दुओ से विदेशी शासको को उखाड़ फेकने की उनकी अपील ने बड़ी संख्या में कालेज , विश्व विद्यालय के स्नातको को प्रभावित किया और उन्हें जिन्होंने ब्रिटिश आकाओं की सेवा करने से इनकार कर दिया था | यह धार्मिक पुनरुथान आन्दोलन था , जो कहता था कि इस्लाम के सच्चे जज्बे की ओर वापसी सामाजिक - राजनीतिक दमन से छुटकारा पाने का एकमात्र रास्ता है | जहां विदेशियों के आधिपत्य के विरुद्ध संघर्ष के लिए लोगो को तैयार करने हेतु सैय्यद बरेलवी देश का भ्रमण कर रहे थे , वही फरीदपुर के पीर शरियातुल्ला और मीर निसार अली के नेतृत्व में फराजिया आन्दोलन भी अपने अपने झंडे तले उत्पीडित जनता को लाने का काम कर रहा था | इन तीनो नेताओं ने एक ही राजनीतिक निष्कर्ष निकाला कि कुरआन के आधार पर शासन कायम करने के लिए , जो कि सामाजिक और राजनीतिक दासता के साथ बेमेल है , फिरंगियों के शासन का खात्मा करना ही होगा | उनका उद्देश्य हतोत्साहित और असंतुष्ट मुस्लिमो में नव शक्ति का संचार करने और उन्हें नए शासक तथा उनके सहयोगियों के सामाजिक - आर्थिक शोषण से बचाने के लिए राजनीतिक आजादी को फिर से प्राप्त करना था | मानव जाति के पहले के तमाम विद्रोहों - सामन्ती और पूर्व सामन्ती समाज - की भाँती मानव जाति की मानसिक प्रक्रिया में , खासकर भारत में , कुछ समय के लिए धर्म का स्थान अन्याय और उत्पीडन के विरुद्ध महान ऐतिहासिक महत्व का था | मई 1831 में , ब्ल्लाकोटा की लड़ाई में युद्ध करते हुए सैय्यद बरेलवी मारे गये | लेकिन उसी समय मीर निसार अली के प्रभाव में आकर तीतु मीर ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह करने के लिए किसानो के उत्पीडित तबको का नेतृत्व किया | 17 नवम्बर 1831 को शुरू हुए इस विद्रोह को इतिहास में बारासात उभार के नाम से जाना जाता है | नरकबेरिया की लड़ाई में 3 दिसम्बर 1832 को बहादुरी के साथ लड़ते हुए तीतु शहीद हुए | उनके तीन सौ अनुयायियों को उम्र कैद में भेजने के लिए विभिन्न जेलों में लाया गया , वही उसके सेनापति गोलुम मासूम को फाँसी की सजा दी गयी | बंगाली वीर गाथाओं और लोक - गीतों में तीतु को अभी भी साम्राज्यवाद - विरोधी स्वतंत्रता सेनानी भारत की आजादी के अमर शहीद के रूप में याद किया जाता है | दूसरी तरफ किसानो में नव - जागृति का प्रतीक बन चुके हाजी शरियातुल्ला भी गुजर गये | हाजी की मृत्यु के बाद दादू मिया 1819 के रूप में जाने गये उनके बेटे मोहम्मद महशिन के नेतृत्व में आन्दोलन ने ज्यादा जुझारू रूप अख्तियार कर लिया | उसने करो और व्याज के भुगतान का बहिष्कार करते हुए जमीदारो और सूदखोरों के विरुद्ध प्रतिरोध सगठित किया | इसके अलावा उसने जमीदारो और उनके अनुयायियों पर हमला करने के लिए सशस्त्र सेना बनाई और पूर्वी बंगाल के भीतर समानांतर सरकार बनाने का प्रयास करके एक कदम और आगे बढाया | खलीफा नामक जिला कमिश्नरो को हर एक गाँव के लिए नियुक्त किया गया , उनका काम पैसा जुटाना , प्रचार करना और उन ग्रामीणों के बीच के विवादों को हल करना था , जिन्होंने बगैर इजाजत अपने मामलो को ब्रिटिश अदालतों में ले जाने से स्पष्ट रूप से मना कर दिया था | बारासात ,जेस्सोर ,पाबना ,मैदा और ढाका जिलो में उनके अनुयायियों की संख्या बढ़कर अस्सी हजार हो गयी | 1847 में उसने नील बागान के मालिको और जमींदारों के सगठन के विरुद्ध विफल सशस्त्र लड़ाई का नेतृत्व किया | वर्षो की जेल के बाद उनकी सेहत खराब हो चली थी और 1860 में उनकी मृत्यु हो गयी | उसे गरीबो के ऐसे हमदर्द के रूप में याद किया जाता है जिसने स्वतंत्रता , समानता और बंधुत्व के लिए भावी सग्रामियो हेतु क्रांतिकारी विरासत छोड़ी थी | इस बीच , भारत भर में अपने सम्पर्को के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र बंगाल के बजाए पटना बना | चार लोगो - पटना के अली बंधू , इनायत अली और विलायत अली , जयपुर के किरामत अली और हैदराबाद के जैनुद्द्दीन के दल और बरेली के पीर इमते जियामीन के नेतृत्व के रूप में वहाबी आन्दोलन को ब्रिटिश काफ़िरो के राज को उखाड़ फेंकने के लिए समर्पित अपना सर्वोच्च धार्मिक व्यक्ति मिल गया | वहाबी आन्दोलन ने आगे चलकर बम्बई , मध्य प्रदेश और हैदराबाद में समर्थको को आकर्षित किया | इनमे से सर्वाधिक सक्रिय धर्मातरित हैदराबाद के नवाब मुबर्ज- उद - दौला को 1839 में गिरफ्तार कर लिया गया और शहीद के रूप में गोलकुंडा के किले में उनकी मृत्यु हो गयी | उनके दस सहयोगियों को 10 वर्ष की सजा सुनाई गयी | नमक पर कर की वृद्धि के विरोध में 1844 के जन आन्दोलन में बड़ी संख्या में मुस्लिमो ने सभी समुदायों के लोगो के साथ प्रदर्शन में हिस्सा लिया | 1847 के बाद जब पूरा पंजाब ब्रिटिश राज के सीधे कब्जे में चला गया , तो वहाबी आन्दोलन ने अपना असली ब्रिटश साम्राज्यवाद - विरोधी रंग अख्तियार किया | वहाबियो ने सितना में अपने आधार शिविर से भारतीय ब्रिटिश शासन के खिलाफ सम्पूर्ण युद्ध के लिए पूरी तैयारी शुरू कर दी | यह वही समय था जब अली बंधू वहाबी आन्दोलन के निर्विवाद नेता बन गये थे | किरामत अली के साथ मिलकर उन्होंने उत्तर पश्चिम सीमा पर जो की ब्रिटिश भूभाग था हमला करने की कोशिश की | यह 1857 के महान उभार से ठीक पहले का समय था | वहाबियो ने 1857 के उभार के नेताओं के लिए ठोस सागठनिक आधार मुहैया कराया | लखनऊ के पीर अली और मोशिउज्ज्मान का मकसद सरकार के खिलाफ विभिन्न समूहों की गतिविधियों के समन्वय को अमली रूप देना था | क्रमश :
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (12-03-2018) को ) "नव वर्ष चलकर आ रहा" (चर्चा अंक-2907) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
आभार राधा जी
DeleteBahut Bahut shukriya aapka Ye article likhane ke liye
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