कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के
घोटालो की हकीकत
सम्पादकीय
हीरे और आभूषण के अरबपति कारोबारी द्वारा पंजाब नेशनल बैंक की मुंबई शाखा से अरबो रूपये के फ्राड की सुचना 15 फरवरी के समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई है | फरद की कुल रकम का प्राथमिक आकलन 11 हजार 500 करोड़ रूपये किया गया है | यह फ्राड कुछ महीनों से नही बल्कि पिछले सात सालो यानी 2011 से चल रहा था | पंजाब नेशनल बैंक के अधिकारियो द्वारा दिए गये लेटर आफ अंडरटेकिंग नाम के प्रमाण पत्र के फलस्वरूप इस कारोबारी को नियमो और आवश्यक प्रक्रियाओं की अनदेखी कर देश के कई बड़े बैंको तथा विदेशी बैंको ने करोड़ो की रकम का ऋण दे रखा है | इस फ्राड के आरोप में पी एन बी द्वारा 31 जनवरी को ऍफ़ आई आर दर्ज कराए जाने के दो दिन पहले ही यह कारोबारी किसी दूसरे देश को प्रस्थान कर चुका था | उसके विरुद्ध कार्यवाई के रूप में उसकी सम्पत्तियों की जब्ती के साथ पी एन बी के कुछ अधिकारियो - कर्मचारियों के विरुद्ध भी कारवाई जारी है | इसी बीच कानपुर में रोटोमेक पेन के बड़े कारोबारी द्वारा बैंक आफ इंडिया और बैंक आफ बडौदा सहित पांच अन्य बैंको से महज 12 करोड़ की सम्पत्ति गिरवी रखकर 2129 करोड़ रुपयों का कर्ज लिया गया | इस समय इसका व्याज समेत आकलन 3695 करोड़ का किया गया है | इन बैंको द्वारा गिरवी रखी गयी सम्पत्ति के वास्तविक मूल्य एवं नियमो की अनदेखी करते हुए 2007 - 2008 से ही उक्त कारोबारी को लोंन देने का सिलसिला जारी रहा | बैंक अधिकारियों द्वारा इस पर चुप्पी साधकर लोंन को बढाया जाता रहा है |
हो सकता है आने वाले कुछ दिनों , महीनों में बैंको के ऐसे फ्राड व भ्रष्टाचार की और घटनाए उजागर हो | इनके अलावा ये बात तो पहले से बताई जा रही है कि बैंको से लिए गये कर्ज के लाखो करोड़ की रकम गैर निष्पादित सम्पत्ति [एन .पी ए ] अर्थात ऐसे कर्ज वाली सम्पत्ति बनती जा रही है जिसके वापस मिलने की कोई उम्मीद नही है | [एन पी ए] का 80 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा धनाढ्य औध्योगिक व्यापारिक कम्पनियों का ही है | स्पष्ट है कि इस रकम का बड़ा हिस्सा भी लोन - फ्राड की रकम साबित हो जाना है | हम यहाँ बैंको के इन फ्राडो की प्रक्रिया पर कोई चर्चा नही करने जा रहे है | क्योकि उसका महत्व उस प्रक्रिया में नही , बल्कि सालो - साल से हजारो करोड़ के लोन या फ्राड की अनदेखी करने और फिर उसके आने वाले नीतिगत परिणाम में निहित है | इस सन्दर्भ में बुनियादी सवाल यह है कि आखिर बैंको द्वारा कई स्तरों वाली जांच की स्थापित प्रणाली के वावजूद ऐसे फ्राड हो क्यो रहे है ? धनाढ्य कम्पनियों द्वारा लिए गये कर्जो की अदायगी क्यो रुकी है ?
इसका सीधा जबाब है कि बैंको , खासकर सरकारी बैंको द्वारा तथा अन्य नियामक वित्तीय संस्थानों द्वारा इस प्रक्रिया को जानबूझकर कर चलाया - बढ़ाया जा रहा है | फिर उसके आते रहते परिणामो को दिखाकर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंको और उसके प्रबंध तंत्र को नकारा साबित किया जा रहा है | उसके समाधान के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंको के निजीकरण का रास्ता साफ़ किया जा रहा है | इसका स्पष्ट परिलक्षण 10 फरवरी के समाचार पत्रों में उध्योग जगत की संस्था ''एसोचेम'' के इस ब्यान में है कि सरकार को सार्वजनिक बैंको में अपनी हिस्सेदारी 70 % से घटाकर 50% कम कर देनी चाहिए | ''एसोचेम'' ने चेतावनी देते हुए कहा कि सार्वजनिक बैंको की बेहतरी इसी में है कि उन्हें निजी बैंको की तरह काम करने दिया जाए | -- सार्वजनिक बैंको के कुप्रबंधन के बारे में संस्था का कहना है कि इन बैंको के शीर्ष पदों का इस्तेमाल 'सरकारी अधिकारियों की सेवान्रिवृत के बाद सेवा विस्तार के लिए किया जाता रहा है | ऐसे अधिकारी अपना ज्यादातर समय बात - बात पर सरकार के वरिष्ठ बित्तीय अधिकारियो से राय लेने और उनके अपने हितो की रक्षा में लगाते है | उनके पास प्रबन्धन व बैंको के जोखिम से जुड़े बुनियादी मसलो के लिए समय ही नही बचता | - सरकार की हिस्सेदारी 50% से नीचे आने के बाद बैंको को ज्यादा स्वायत्तता मिलेगी और उसका वरिष्ठ प्रबन्धन ज्यादा जिम्मेदारी और निष्ठा के साथ काम करेगा | इसी तरह 20 फरवरी के समाचार पत्रों में प्रमुख उध्योग के सगठन ''पिक्की '' ने यह ब्यान जारी किया कि 'सरकारी बैंको का निजीकरण कर दिया जाना चाहिए | पिछले 11 सालो से सरकार इन बैंको का पुनपुनर्जीकरण करती आ रही है | इन सालो में 2.6 लाख करोड़ बैंको को दे चुकी है , फिर भी इन बैंको का प्रदर्शन कमजोर पड़ता रहा है | एसोचेम और पिक्की द्वारा बैंको के निजीकरण की वकालत पर बैंक कर्मचारी यूनियन का यह बयान भी प्रकाशित हुआ है कि अगर उध्योग जगत कर्ज की वापसी समय पर कर देता है तो ऐसे हालात पैदा नही होते | अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी एसोसिएशन ने बैंको के निजीकरण की एसोचेम की मांग को निंदनीय बताते हुए कहा कि उध्योग सगठन को अपने सदस्यों को बैंक ऋण का भुगतान करने की सलाह देनी चाहिए | --- बैंक कर्मचारी सगठन ने यह भी कहा कि उध्योग जगत के सगठन निजी बैंको के रिकार्ड भूल गये है | अगर निजी बैंक वास्तव में सक्षम होते तो कई बैंक बंद क्यों हुए ? और दूसरे बैंको के साथ उनका विलय क्यो हुआ ?
ध्यान देने वाली बात है कि बड़े उध्योगो के सगठन द्वारा दिए गये निजीकरण के प्रस्ताव के विरोध में दिया गया उपरोक्त जबाब एकदम सही जबाब , सार्वजनिक बैंको के प्रमुख अधिकारियो के सगठन द्वारा दिया गया है | स्पष्ट है कि बैंको के बड़े अधिकारी और सार्वजनिक बैंको के आला मालिक सरकार के वित्तमंत्री एवं बड़े वित्तीय अधिकारी , एसोचेम और पिक्की के निजीकरण के सुझाव को शांतिपूर्वक सुन रहे है | इसका कोई जबाब नही दे रहे है | लेकिन क्यो ? क्योकी बड़े कारोबारियों द्वारा पी एन बी या किसी अन्य बैंक से लिया जाता रहा करोड़ो का लोन और बैंको द्वारा देश - विदेश के दूसरे नामी - गिरामी बैंको से उन्हें दिलवाया जाता रहा करोड़ो का लोन बैंको के छोटे अधिकारियों या साधारण कर्मचारियों के बूते के बाहर है | यह काम बड़े अधिकारी ही कर सकते है और वे यह काम अपेक्षाकृत छोटे अधिकारियो द्वारा लेटर आफ अंडरटेकिंग जारी करवा भी सकते है | बैंको के बड़े अधिकारियो की अनुशंसा - आज्ञा के बिना ऐसा होना असम्भव है | यह उद्योगपतियों और बैंको के बड़े अधिकारियो के बीच बढती साठ- गाठ का स्पष्ट परिलक्ष्ण है | इस साथ - गाठ से ही अरबो का फ्राड और बड़े कारोबारियों द्वारा लोन की अदायगी न करने का काम सालो - साल से होता रहा है | इनके साथ - गाठ के बिना लाखो करोड़ो का [एन पी ए] या अन्य वित्तीय भ्रष्टाचार का चल पाना असम्भव है | इसी कारण बैंको के बड़े अधिकारियों एवं उनके सगठनों द्वारा एसोचेम और पिक्की को जबाब नही दिया गया है | जहां तक सरकार और उसके बड़े वित्तीय अधिकारियो मंत्रियो का सवाल है तो वे उद्योगपतियों के सगठनों का सुझाव दबाव 26-27 सालो से बिना किसी गंभीर प्रतिवाद के सुनते और मानते रहे है | क्योकि इन वर्षो में सभी सरकारे स्वंय निजीकरणवादी नीतियों को लागू करती रही है | देश - विदेश के धनाढ्य मालिको के छूटो , अधिकारों को खुले आम बढाती रही है | सार्वजनिक क्षेत्रो के संस्थानों को निजी हाथो में सौपती रही है | साल दर साल इन सस्थानो के विनिवेश का लक्ष्य निर्धारिय करती रही है | स्पष्ट है कि बैंको के इन घोटालो तथा उनकी बढती गैर निष्पादित सम्पत्तियों को आगे करने और उसके फलस्वरूप रुगण होते सार्वजनिक क्षेत्रो के बैंको की रुग्णता , पूंजी की अभावग्रसता तथा कुप्रबन्धन का हल्ला ह्गामा मचाने का एक ही लक्ष्य है कि इन बैंको का निजीकरण कर दिया जाए | राष्ट्रीय धन पूंजी से बढाये गये सार्वजनिक क्षेत्रो के इन बैंको को देश व विदेश के निजी मालिको को सौप दिया जाए | उदारीकरण , वैश्वीकरण , निजीकरण की नीतियों को आगे बढ़ाती रही सभी सरकारे ऐसे मौको की तलाश में रही है , ताकि वे बैंको के निजीकरण की प्रक्रिया को नीतिगत एवं व्यवहारिक रूप से आगे बढ़ा दे | सार्वजनिक बैंको को भ्रष्टाचार एवं कुप्रबन्धन आदि से बीमार होते संस्थान प्रचारित कर इनके निजीकरण के लिए जनगण का समर्थन भी हासिल कर ले |
निकट भविष्य में सार्वजिनक बैंको की यह प्रक्रिया आगे बढ़ जानी है | उसके फलस्वरूप पूंजी के बड़े मालिको को सार्वजनिक बैंको का मालिकाना मिलने के साथ उन्हें सचालन व नियंत्रण का अधिकार मिल जाना है | जबकि इन्ही धनाढ्य वर्गो ने उच्च स्तरीय अधिकारियो से मिलकर बैंको को संकट ग्रस्त करने का काम किया है | फिर निजीकरण के बढ़ने के साथ बैंको का यही उच्च प्रबन्धकीय हिस्सा उनके साथ काम करने लग जाएगा और कुप्रबन्धन से सुप्रबन्धन भी बन जाएगा | यही काम सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के साथ भी पहले से हो रहा है | बैंको के कर्मचारी सगठन द्वारा दिए गये जबाब में एक प्रमुख बात रह गयी | पिक्की द्वारा 11 वर्षो से सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंको को राजकोष से 2.6 लाख करोड़ की वित्तीय सहायता देने की आलोचना के जबाब में कर्मचारी संघ द्वारा बैंको से इस घाटे के लिए उद्योगपतियों को एवं बड़े कारोबारियों को जिम्मेदार ठहराना तो एकदम सही है | साथ ही उन्हें यह बात भी जरुर कहनी चाहिए कि उद्योगपति वर्ग निगम कर व अन्य करो में तमाम छूटो के साथ 2008 से ही लाखो करोड़ का प्रोत्साहन पॅकेज लेता रहा है | बैंको को कर्ज का घाटा पहुचाने के साथ - साथ सरकारी खजाने का राजस्व घाटा भी बढाता रहा है | अत: बड़े उद्योगपतियों , कारोबारियों को तो किसी भी क्षेत्र में सरकारी कोष से दी जाती रही सहयाता व सब्सिडी की आलोचना का कोई अधिकार नही है | सही बात तो यह है कि धनाढ्य वर्गो के बढ़ते छूटो- लाभों के फलस्वरूप ही जनहित के सभी क्षेत्रो में संकट बढ़ते रहे है | इसीलिए इन क्षेत्रो के संकटो के लिए स्वंय उन्हें जिम्मेदार ठहराने और उनका निजीकरण करने की जगह धनाढ्य मालिको के मालिकाने के लाभ पर सख्त नियंत्रण लगा देना उनका सार्वजनिककरण किया जाना आवश्यक है |
प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (16-03-2017) को "मन्दिर का उन्माद" (चर्चा अंक-2911) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार आदरणीय आपने मेरे आलेख को मंदिर का उन्माद ( चर्चा अंक ) में स्थान दिया | आभारी हूँ आपका
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