धनकुबेरो उनके समर्थको द्वारा राष्ट्रीय हितो के साथ खिलवाड़
धनकुबेरो उनके समर्थको द्वारा राष्ट्रीय हितो के साथ खिलवाड़
समाचार पत्रों में यह सुचना प्रकाशित हुई है की 2017 में 7000 धनकुबेर इस देश से पलायन कर विदेशो में बस गये | वही के नागरिक बन गये | इससे पहले 2016 में पलायन करने वाले धनकुबेरो की संख्या 6000 और 2015 में उनकी संख्या 4000 थी | इससे पहले के सालो में भी यह पलायन जारी था | देश के धनकुबेरो का यह पलायन साल दर साल बढ़ता रहा है | न्यूवर्ल्ड रिपोर्ट में भारत से धनकुबेरो के पलायन को विश्व में चीन के बाद दूसरा स्थान दिया गया है | यहाँ के धनकुबेरो का यह पलायन मुख्यत: अमेरिका , कनाडा , आस्ट्रेलिया , न्यूजीलैंड तथा संयुक्त अरब अमीरात में हो रहा है | रिपोर्ट में एक बड़ी दिलचस्प बात यह कही गयी है कि '' भारत से अमीरों के पलायन पर चिंता करने की कोई बात नही है | क्योकि इस देश को जितने लोग छोड़कर जाते है ,उससे ज्यादा संख्या में नये अमीर बन जाते है |' बात तो चिंताजनक है , लेकिन न्यूवर्ल्ड रिपोर्ट इस पर चिंता न करने का एक अजीब सा तर्क दे रही है | उसके तर्क का यह मतलब है कि यह देश धनी बनने में लगे लोगो को राष्ट्रीय ससाधनो अधिक अमीर बनाता रहे और फिर उन्हें अपना धन - पूंजी विदेश जाने की छूट देता रहे | उस पर नियंत्रण न लगाये , चिंता ना करे | यही हो रहा है | देश के धनाढ्यो और उच्च हिस्सों के लिए तो यह चिंता की बात है भी नही | क्योकि ये हिस्से शासन सत्ता के सहयोग से विदेशो में पलायन करने वाली की कतार में हैं | वे अपनी पुन्जियाँ विदेशी कारोबार और विदेशी सम्पत्तियों में पहले से लगाये हुए है | अगर वहाँ उनका कारोबार - बाजार बढ़ता है तो इस देश की कमाई लेकर आसानी से विदेश चले जायेंगे और वही पर बस जायेंगे | पलायन की इस प्रक्रिया को रोकने का काम कोई सरकार नही कर रही है | यह पलायन सरकारों द्वारा अपनाई जाती रही वैश्वीकरणवादी नीतियों , कानूनों से मिलती रही छूटो तथा मंत्रियो , अधिकारियों के हर तरह के सहयोग से बढ़ता रहा है | इस 1991 से पहले लगे ''फेरा ' व अन्य रोक नियंत्रण वाली नीतियों को हटाते हुए बढ़ाया गया है | विदेशी ताकतों के साथ - साथ देश के उच्च स्तरीय विद्वानों बुद्धिजीवियों , कलाकारों द्वारा इस पलायन का भरपूर समर्थन किया जाता रहा है | लेकिन देश का जनसाधारण हिस्सा धनकुबेरो के इस पलायन पर धनाढ्यो ,उच्च तबको एवं सरकारों जैसा रवैया नही अपना सकता | क्योकि देश की श्रम सम्पदा से अर्जित पूंजी सम्पत्ति के इस बढ़ते पलायन से व्यापक जनसाधारण के राष्ट्रीय एवं सामाजिक हितो में कमी कटौती का होना निश्चित है | क्योकि धनकुबेरो की यह धनाढ्यता उन्हें अपने उत्पादन व बाजार को बढाने की मिलती रही छूटो के जरिये राष्ट्र के श्रम व ससाधन के शोषण दोहन के फलस्वरूप बढती रही है | इसीलिए उनके मालिकाने की धन - पूंजी केवल उनकी ही धन पूंजी नही है , बल्कि वह राष्ट्रीय धन पूंजी भी है | उसे लेकर विदेशो में पलायन करना भी है एवं निजीवादी लूट है | इस धन पूंजी की वृद्धि में लगे राष्ट्र के श्रमजीवी लोगो की श्रम शक्ति और राष्ट्र के प्राकृतिक ससाधनो की लूट है | इसके फलस्वरूप भी राष्ट्र में पूंजी की अभावग्रसता और राष्ट्र की विदेशी पूंजी पर निर्भरता में और ज्यादा वृद्धि होती रही है | राष्ट्रीय धन को विदेशी पूंजी द्वारा बढती सूदखोरी मुनाफाखोरी की लूट के साथ अब राष्ट्र के हजारो की संख्या में बढ़ते धनकुबेरो के धन पूंजी के विदेशो में पलायन के जरिये भी विदेशो में पहुचाया जा रहा है | बिडम्बना यह है कि ये धनाढ्य हिस्से तथा विदेशो में उनके पलायन को छूट देने वाले राजनीतिक प्रशासनिक हिस्से तथा उन्हें समर्थन देने वाले बौद्धिक एवं सांस्कृतिक हिस्से ही अपने आपको सबसे बड़े राष्ट्रवादी के रूप में प्रचारित करते रहे है | जन साधारण समाज भी उन्हें विभिन्न नामो वाले राष्ट्रवाद का अलमबरदार मानता रहा है | ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय धन का यह पलायन रुकने वाला नही है | न तो धनकुबेरो को धन - पूंजी बढाने की छूटे ही रुक पानी है और न ही उनके द्वारा और विदेशियों के द्वारा कमाए या लूटे गये धन के साथ उनका पलायन रुक पाना है | क्योकि विदेशो में पलायन कर चुके इन धनकुबेरो को कल अनिवासी भारतीय के रूप में छूटे मिलने का सिलसिला जारी रहेगा | इन परिणामो से सबक सीखते हुए देश के जन साधारण को ही यह बात समझनी पड़ेगी की राष्ट्र के धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों से राष्ट्रीय हितो की और राष्ट्र की बहुसंख्यक शारीरिक एवं मानसिक श्रमजीवी जन सध्रान के हितो की उम्मीद नही की जा सकती , फिर उन्हें अधिकाधिक उदारवादी निजीवादी राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय छूटे व अधिकार देने वाली सत्ता सरकारों से विदेशो में राष्ट्रीय धन के साथ धनकुबेरो के पलायन को रोकने की भी कोई उम्मीद नही की जा सकती | यह काम सरकारों पर राष्ट्रीय धन का पलायन रोकने के लिए व्यापक जन दबाव के जरिये ही बन सकता है | इसलिए जन साधारण और उसके प्रबुद्ध हिस्से को सचेत एवं सक्रिय होना होगा | 1947 से पहले चले स्वतंत्रता आन्दोलन जैसा जज्बा लेकर जनसाधारण को सचेत एवं सगठित करना होगा | दुसरा कोई रास्ता नही दिख रहा है | क्योकि देश के धनकुबेरो और राष्ट्रीय एवं जनहित की मांग है कि विदेशी निवेशको के जरिये देश की बढती लुट पर अधिकाधिक अन्क्य्श लगाने के साथ देश की पूंजी के पलायन पर सखत से सखत नियंत्रण लगाया जाना आवश्यक है | अगर देश का आम आदमी इसपर ध्यान नही देता तो हमको कंगाल बनने में देर नही |
चित्र साभार गूगल बाबा से
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक - आभार चर्चा आजकल की
समाचार पत्रों में यह सुचना प्रकाशित हुई है की 2017 में 7000 धनकुबेर इस देश से पलायन कर विदेशो में बस गये | वही के नागरिक बन गये | इससे पहले 2016 में पलायन करने वाले धनकुबेरो की संख्या 6000 और 2015 में उनकी संख्या 4000 थी | इससे पहले के सालो में भी यह पलायन जारी था | देश के धनकुबेरो का यह पलायन साल दर साल बढ़ता रहा है | न्यूवर्ल्ड रिपोर्ट में भारत से धनकुबेरो के पलायन को विश्व में चीन के बाद दूसरा स्थान दिया गया है | यहाँ के धनकुबेरो का यह पलायन मुख्यत: अमेरिका , कनाडा , आस्ट्रेलिया , न्यूजीलैंड तथा संयुक्त अरब अमीरात में हो रहा है | रिपोर्ट में एक बड़ी दिलचस्प बात यह कही गयी है कि '' भारत से अमीरों के पलायन पर चिंता करने की कोई बात नही है | क्योकि इस देश को जितने लोग छोड़कर जाते है ,उससे ज्यादा संख्या में नये अमीर बन जाते है |' बात तो चिंताजनक है , लेकिन न्यूवर्ल्ड रिपोर्ट इस पर चिंता न करने का एक अजीब सा तर्क दे रही है | उसके तर्क का यह मतलब है कि यह देश धनी बनने में लगे लोगो को राष्ट्रीय ससाधनो अधिक अमीर बनाता रहे और फिर उन्हें अपना धन - पूंजी विदेश जाने की छूट देता रहे | उस पर नियंत्रण न लगाये , चिंता ना करे | यही हो रहा है | देश के धनाढ्यो और उच्च हिस्सों के लिए तो यह चिंता की बात है भी नही | क्योकि ये हिस्से शासन सत्ता के सहयोग से विदेशो में पलायन करने वाली की कतार में हैं | वे अपनी पुन्जियाँ विदेशी कारोबार और विदेशी सम्पत्तियों में पहले से लगाये हुए है | अगर वहाँ उनका कारोबार - बाजार बढ़ता है तो इस देश की कमाई लेकर आसानी से विदेश चले जायेंगे और वही पर बस जायेंगे | पलायन की इस प्रक्रिया को रोकने का काम कोई सरकार नही कर रही है | यह पलायन सरकारों द्वारा अपनाई जाती रही वैश्वीकरणवादी नीतियों , कानूनों से मिलती रही छूटो तथा मंत्रियो , अधिकारियों के हर तरह के सहयोग से बढ़ता रहा है | इस 1991 से पहले लगे ''फेरा ' व अन्य रोक नियंत्रण वाली नीतियों को हटाते हुए बढ़ाया गया है | विदेशी ताकतों के साथ - साथ देश के उच्च स्तरीय विद्वानों बुद्धिजीवियों , कलाकारों द्वारा इस पलायन का भरपूर समर्थन किया जाता रहा है | लेकिन देश का जनसाधारण हिस्सा धनकुबेरो के इस पलायन पर धनाढ्यो ,उच्च तबको एवं सरकारों जैसा रवैया नही अपना सकता | क्योकि देश की श्रम सम्पदा से अर्जित पूंजी सम्पत्ति के इस बढ़ते पलायन से व्यापक जनसाधारण के राष्ट्रीय एवं सामाजिक हितो में कमी कटौती का होना निश्चित है | क्योकि धनकुबेरो की यह धनाढ्यता उन्हें अपने उत्पादन व बाजार को बढाने की मिलती रही छूटो के जरिये राष्ट्र के श्रम व ससाधन के शोषण दोहन के फलस्वरूप बढती रही है | इसीलिए उनके मालिकाने की धन - पूंजी केवल उनकी ही धन पूंजी नही है , बल्कि वह राष्ट्रीय धन पूंजी भी है | उसे लेकर विदेशो में पलायन करना भी है एवं निजीवादी लूट है | इस धन पूंजी की वृद्धि में लगे राष्ट्र के श्रमजीवी लोगो की श्रम शक्ति और राष्ट्र के प्राकृतिक ससाधनो की लूट है | इसके फलस्वरूप भी राष्ट्र में पूंजी की अभावग्रसता और राष्ट्र की विदेशी पूंजी पर निर्भरता में और ज्यादा वृद्धि होती रही है | राष्ट्रीय धन को विदेशी पूंजी द्वारा बढती सूदखोरी मुनाफाखोरी की लूट के साथ अब राष्ट्र के हजारो की संख्या में बढ़ते धनकुबेरो के धन पूंजी के विदेशो में पलायन के जरिये भी विदेशो में पहुचाया जा रहा है | बिडम्बना यह है कि ये धनाढ्य हिस्से तथा विदेशो में उनके पलायन को छूट देने वाले राजनीतिक प्रशासनिक हिस्से तथा उन्हें समर्थन देने वाले बौद्धिक एवं सांस्कृतिक हिस्से ही अपने आपको सबसे बड़े राष्ट्रवादी के रूप में प्रचारित करते रहे है | जन साधारण समाज भी उन्हें विभिन्न नामो वाले राष्ट्रवाद का अलमबरदार मानता रहा है | ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय धन का यह पलायन रुकने वाला नही है | न तो धनकुबेरो को धन - पूंजी बढाने की छूटे ही रुक पानी है और न ही उनके द्वारा और विदेशियों के द्वारा कमाए या लूटे गये धन के साथ उनका पलायन रुक पाना है | क्योकि विदेशो में पलायन कर चुके इन धनकुबेरो को कल अनिवासी भारतीय के रूप में छूटे मिलने का सिलसिला जारी रहेगा | इन परिणामो से सबक सीखते हुए देश के जन साधारण को ही यह बात समझनी पड़ेगी की राष्ट्र के धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों से राष्ट्रीय हितो की और राष्ट्र की बहुसंख्यक शारीरिक एवं मानसिक श्रमजीवी जन सध्रान के हितो की उम्मीद नही की जा सकती , फिर उन्हें अधिकाधिक उदारवादी निजीवादी राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय छूटे व अधिकार देने वाली सत्ता सरकारों से विदेशो में राष्ट्रीय धन के साथ धनकुबेरो के पलायन को रोकने की भी कोई उम्मीद नही की जा सकती | यह काम सरकारों पर राष्ट्रीय धन का पलायन रोकने के लिए व्यापक जन दबाव के जरिये ही बन सकता है | इसलिए जन साधारण और उसके प्रबुद्ध हिस्से को सचेत एवं सक्रिय होना होगा | 1947 से पहले चले स्वतंत्रता आन्दोलन जैसा जज्बा लेकर जनसाधारण को सचेत एवं सगठित करना होगा | दुसरा कोई रास्ता नही दिख रहा है | क्योकि देश के धनकुबेरो और राष्ट्रीय एवं जनहित की मांग है कि विदेशी निवेशको के जरिये देश की बढती लुट पर अधिकाधिक अन्क्य्श लगाने के साथ देश की पूंजी के पलायन पर सखत से सखत नियंत्रण लगाया जाना आवश्यक है | अगर देश का आम आदमी इसपर ध्यान नही देता तो हमको कंगाल बनने में देर नही |
चित्र साभार गूगल बाबा से
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक - आभार चर्चा आजकल की
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-03-2017) को "नवसम्वतसर, मन में चाह जगाता है" (चर्चा अंक-2913) नव सम्वतसर की हार्दिक शुभकामनाएँ पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका आभार की आपने मेरे लेखन को चर्चा मंच पे जगह दी
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