क्या आधुनिक बाज़ार व्यवस्था जनसाधारण की विरोधी नही है ?
हम आधुनिक युग में जी रहे है | आधुनिक युग की बाज़ार व्यवस्था में जी रहे है | क्योंकि हमारे भोजन - वस्त्र , घर - मकान , शिक्षा - इलाज़ की सभी बुनियादी जरूरते बाज़ार से जुड़ने पर ही मिल पाती है और फिर छोटे - बड़े लाभ - मुनाफे कमाना तो बाज़ार व्यवस्था का अपरिहार्य हिस्सा है और यही बाज़ार व्यवस्था का वास्तविक लक्ष्य भी है | वर्तमान सामाजिक - व्यवस्था को बाज़ार व्यवस्था क्यों कहा जा रहा है ? इसका एकदम सीधा जबाब है कि इस सामाजिक व्यवस्था में राष्ट्र व् समाज के सभी लोगो को खरीद - बिक्री की प्रक्रिया से जुड़ना लाजिमी है | कुछ भी पाने के लिए कुछ बेचना और खरीदना जरूरी है | कुछ बेचे बिना कोई भी कुछ खरीद नही सकता | उदाहरण के लिए मजदूर को अपना भोजन , कपड़ा खरीदने के लिए अपनी श्रमशक्ति को बेचना जरूरी है .अपरिहार्य है | किसानो को अपनी खेती के लिये तथा अपने कपड़े -लत्ते तथा दूसरी जरुरतो के लिए अपने कृषि उत्पाद को या अपने किसी सदस्य की श्रम शक्ति को बेचना जरूरी है | यही स्थिति तमाम छोटे उत्पादकों की है |
इसके अलावा, चिकित्सा , शिक्षा तथा कानून व न्याय के क्षेत्र के लोगो के लिए भी जरूरी है कि वे पहले अपनी बौद्धिक क्षमता को बेचने लायक बने| इसके लिए विभिन्न क्षेत्रो का शिक्षा ज्ञान हासिल करे | फिर अपने शिक्षा ज्ञान का बिक्री - व्यापार करे | चाहे उसका नौकरी के जरिये वेतन आदि के रूप में मूल्य पाए या फिर अपने निजी काम धंधे के जरिये उसका व्यापार करे| अपनी सेवा का कम या ज्यादा मूल्य पाए और फिर उससे अपने जीवन को संसाधनों , सुविधाओं को खरीदे | व्यापारियों , उद्योगपतियों के मालो , सामानों की बिक्री से लाभ - मुनाफे के लिए आवश्यक ही है की वे अपने मालो , सामानों की बिक्री बाज़ार बढाये | इसी लक्ष्य से उत्पादन विनिमय को संचालित करे| यही वह हिस्सा है , जो बाज़ार - व्यवस्था का प्रबल हिमायिती है | उसका संचालक है | इसे आप इस तरह भी कह सकते है कि जंहा व्यापारी , उद्योगपति नही है या छोटे स्तर के है तो वंहा बाज़ार व्यवस्था नही है | अगर कंही व्यापारी व उद्योगपति अत्यंत छोटे स्तर के है तो इस बात का सबूत है कि अभी वंहा छोटे - मोटे बाज़ार तो है , पर बाज़ार व्यवस्था भी नही है | उदाहरण ---- आज से 100 - 200 साल पहले भारतीय समाज में खासकर ग्रामीण समाज में लोगो के आवश्यकताओ कि पूर्ति ग्रामीण समाज में मौजूद श्रम विभाजन से ही पूरी हो जाती थी | किसी ख़ास सामान के लिए ही उन्हें बाज़ार जाना पड़ता था |लेकिन आधुनिक बाज़ार व्यवस्था के आगमन के साथ बाज़ार का यानी खरीद - बिक्री केंद्र का विकास नगर , शहर , कस्बे से होता हुआ हर चट्टी - चौराहे तक फ़ैल गया है | हर आदमी खरीद - बिक्री कि प्रक्रिया से जुड़ गया है और अधिकाधिक जुड़ता जा रहा है |आधुनिक युग कि बाज़ार व्यवस्था ने हर किसी कि महत्ता महानता को चीन लिया है , कयोंकि हर तरह का हुनर , ज्ञान , अनुभव , बिकाऊ माल बन गया है | उसे पाने का लक्ष्य मालो , सामानों कि तरह ही उसकी खरीद - फरोख्त बन गया है |आज कोई आश्चर्य नही कि , मनुष्य का मूल्य उसके गुणों के आधार पर नही बल्कि खरीद - बिक्री की क्षमता के आधार पर किया जा रहा है |इस बाज़ार व्यवस्था का अनिवार्य पहलु यह भी है कि यदि किसी के पास बेचने के लिए कुछ भी नही है या जिसका श्रम - सामान बिकाऊ नही है तो उसके जीने का अधिकार भी नही है |फिर तो वह किसी के सहारे या फिर भीख - दान अथवा ठगी , चोरी के जरिये ही जीवन जी सकता है |बाज़ार व्यवस्था के वर्तमान दौर के विकास में यही हो रहा है |आधुनिक आर्थिक व तकनिकी विकास के दौर में साधारण श्रम और साधारण उत्पादन कि बाज़ार में मांग घटी जा रही है | या तो उनकी बिक्री ही नही हो पा रही है , या फिर उनका मूल्य इतना कम है कि उससे न तो उपभोग के सामानों को खरीदकर श्रम शक्ति का पुनरुत्पादन किया जा सकता है और न ही बढ़ते लागत के चलते उन साधारण मालो , सामानों का ही पुन: उत्पादन किया जा सकता है | साधारण मजदूरों , किसानो ,सीमांत व छोटे किसानो, दस्तकारो तथा छोटे कारोबारियों कि यही स्थिति है| वे बाज़ार में टूटते जा रहे है |
चूँकि वर्तमान दौर की बाज़ार व्यवस्था विश्व - बाज़ार व्यवस्था का एक अंग है | इसका संचालन व नियंत्रण देश - दुनिया के धनाढ्य एवं उच्च हिस्से कर रहे है | उसे वे अपने जैसे लोगो के लिए या फिर अपने सेवको के लिए बाज़ार व्यवस्था को बदल रहे है |आम आदमी को उससे बाहर करते जा रहे है |बेकार , बेरोजगार , संकटग्रस्त होकर जीने और मरने के लिए छोड़ते जा रहे है |क्या यह बाज़ार व्यवस्था जनसाधारण के जीवन- यापन कि उसके बुनियादी हितो कि विरोधी नही है ? क्या जनहित में देश व समाज कि व्यवस्था में जनसाधारण कि आवश्यकतानुसार बदलाव अनिवार्य , अपरिहार्य नही हो गया है ?
क्या इस देश के लोगो को इसपे सोचना नही चाहिए ..............!!
सुनील दत्ता ---- स्वतंत्र पत्रकार -- समीक्षक
हम आधुनिक युग में जी रहे है | आधुनिक युग की बाज़ार व्यवस्था में जी रहे है | क्योंकि हमारे भोजन - वस्त्र , घर - मकान , शिक्षा - इलाज़ की सभी बुनियादी जरूरते बाज़ार से जुड़ने पर ही मिल पाती है और फिर छोटे - बड़े लाभ - मुनाफे कमाना तो बाज़ार व्यवस्था का अपरिहार्य हिस्सा है और यही बाज़ार व्यवस्था का वास्तविक लक्ष्य भी है | वर्तमान सामाजिक - व्यवस्था को बाज़ार व्यवस्था क्यों कहा जा रहा है ? इसका एकदम सीधा जबाब है कि इस सामाजिक व्यवस्था में राष्ट्र व् समाज के सभी लोगो को खरीद - बिक्री की प्रक्रिया से जुड़ना लाजिमी है | कुछ भी पाने के लिए कुछ बेचना और खरीदना जरूरी है | कुछ बेचे बिना कोई भी कुछ खरीद नही सकता | उदाहरण के लिए मजदूर को अपना भोजन , कपड़ा खरीदने के लिए अपनी श्रमशक्ति को बेचना जरूरी है .अपरिहार्य है | किसानो को अपनी खेती के लिये तथा अपने कपड़े -लत्ते तथा दूसरी जरुरतो के लिए अपने कृषि उत्पाद को या अपने किसी सदस्य की श्रम शक्ति को बेचना जरूरी है | यही स्थिति तमाम छोटे उत्पादकों की है |
इसके अलावा, चिकित्सा , शिक्षा तथा कानून व न्याय के क्षेत्र के लोगो के लिए भी जरूरी है कि वे पहले अपनी बौद्धिक क्षमता को बेचने लायक बने| इसके लिए विभिन्न क्षेत्रो का शिक्षा ज्ञान हासिल करे | फिर अपने शिक्षा ज्ञान का बिक्री - व्यापार करे | चाहे उसका नौकरी के जरिये वेतन आदि के रूप में मूल्य पाए या फिर अपने निजी काम धंधे के जरिये उसका व्यापार करे| अपनी सेवा का कम या ज्यादा मूल्य पाए और फिर उससे अपने जीवन को संसाधनों , सुविधाओं को खरीदे | व्यापारियों , उद्योगपतियों के मालो , सामानों की बिक्री से लाभ - मुनाफे के लिए आवश्यक ही है की वे अपने मालो , सामानों की बिक्री बाज़ार बढाये | इसी लक्ष्य से उत्पादन विनिमय को संचालित करे| यही वह हिस्सा है , जो बाज़ार - व्यवस्था का प्रबल हिमायिती है | उसका संचालक है | इसे आप इस तरह भी कह सकते है कि जंहा व्यापारी , उद्योगपति नही है या छोटे स्तर के है तो वंहा बाज़ार व्यवस्था नही है | अगर कंही व्यापारी व उद्योगपति अत्यंत छोटे स्तर के है तो इस बात का सबूत है कि अभी वंहा छोटे - मोटे बाज़ार तो है , पर बाज़ार व्यवस्था भी नही है | उदाहरण ---- आज से 100 - 200 साल पहले भारतीय समाज में खासकर ग्रामीण समाज में लोगो के आवश्यकताओ कि पूर्ति ग्रामीण समाज में मौजूद श्रम विभाजन से ही पूरी हो जाती थी | किसी ख़ास सामान के लिए ही उन्हें बाज़ार जाना पड़ता था |लेकिन आधुनिक बाज़ार व्यवस्था के आगमन के साथ बाज़ार का यानी खरीद - बिक्री केंद्र का विकास नगर , शहर , कस्बे से होता हुआ हर चट्टी - चौराहे तक फ़ैल गया है | हर आदमी खरीद - बिक्री कि प्रक्रिया से जुड़ गया है और अधिकाधिक जुड़ता जा रहा है |आधुनिक युग कि बाज़ार व्यवस्था ने हर किसी कि महत्ता महानता को चीन लिया है , कयोंकि हर तरह का हुनर , ज्ञान , अनुभव , बिकाऊ माल बन गया है | उसे पाने का लक्ष्य मालो , सामानों कि तरह ही उसकी खरीद - फरोख्त बन गया है |आज कोई आश्चर्य नही कि , मनुष्य का मूल्य उसके गुणों के आधार पर नही बल्कि खरीद - बिक्री की क्षमता के आधार पर किया जा रहा है |इस बाज़ार व्यवस्था का अनिवार्य पहलु यह भी है कि यदि किसी के पास बेचने के लिए कुछ भी नही है या जिसका श्रम - सामान बिकाऊ नही है तो उसके जीने का अधिकार भी नही है |फिर तो वह किसी के सहारे या फिर भीख - दान अथवा ठगी , चोरी के जरिये ही जीवन जी सकता है |बाज़ार व्यवस्था के वर्तमान दौर के विकास में यही हो रहा है |आधुनिक आर्थिक व तकनिकी विकास के दौर में साधारण श्रम और साधारण उत्पादन कि बाज़ार में मांग घटी जा रही है | या तो उनकी बिक्री ही नही हो पा रही है , या फिर उनका मूल्य इतना कम है कि उससे न तो उपभोग के सामानों को खरीदकर श्रम शक्ति का पुनरुत्पादन किया जा सकता है और न ही बढ़ते लागत के चलते उन साधारण मालो , सामानों का ही पुन: उत्पादन किया जा सकता है | साधारण मजदूरों , किसानो ,सीमांत व छोटे किसानो, दस्तकारो तथा छोटे कारोबारियों कि यही स्थिति है| वे बाज़ार में टूटते जा रहे है |
चूँकि वर्तमान दौर की बाज़ार व्यवस्था विश्व - बाज़ार व्यवस्था का एक अंग है | इसका संचालन व नियंत्रण देश - दुनिया के धनाढ्य एवं उच्च हिस्से कर रहे है | उसे वे अपने जैसे लोगो के लिए या फिर अपने सेवको के लिए बाज़ार व्यवस्था को बदल रहे है |आम आदमी को उससे बाहर करते जा रहे है |बेकार , बेरोजगार , संकटग्रस्त होकर जीने और मरने के लिए छोड़ते जा रहे है |क्या यह बाज़ार व्यवस्था जनसाधारण के जीवन- यापन कि उसके बुनियादी हितो कि विरोधी नही है ? क्या जनहित में देश व समाज कि व्यवस्था में जनसाधारण कि आवश्यकतानुसार बदलाव अनिवार्य , अपरिहार्य नही हो गया है ?
क्या इस देश के लोगो को इसपे सोचना नही चाहिए ..............!!
सुनील दत्ता ---- स्वतंत्र पत्रकार -- समीक्षक
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (29-11-2015) को "मैला हुआ है आवरण" (चर्चा-अंक 2175) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'