Sunday, March 25, 2018

भारत विभाजन के गुनहगार -- भाग दो - डा राम मनोहर लोहिया

भारत विभाजन के गुनहगार -- भाग दो - डा राम मनोहर लोहिया

जमातो और सामाजिक गुटों के अंतर्गत राजनितिक , आर्थिक और सामाजिक कारणों का मूल स्रोत कही और से आता है , धार्मिक प्रतिको व कल्पनाओं से | निश्चित रूप से ऐसे सामजिक सुधार सामूहिक भोजो या अंतरजातीय विवाहों द्वारा होने चाहिए और आर्थिक सुधार सर्व - रोजगार या राष्ट्रीयकरण या समानता द्वारा राजनितिक सुधार पिछड़ी जातियों व जमातो के निश्चित प्रतिनिधित्व द्वारा | इन सुधारों के बिना पृथकवादी भावना की समस्या का अंत न होगा , बल्कि यह समस्या किसी न किसी रूप में बनी रहेगी | धर्म तथा इतिहास के तथ्यों पर गंभीरतापूर्वक गौर करना होगा | यही वे तथ्य है जो आदमी के दिमाग व मन को सत्ता बनाते है | धर्म के पैगम्बरों और ईश्वरो में पूर्ण समानता तब तक नही लाई जा सकती जब तक नास्तिकवाद और धार्मिक अराधना को न तोड़ा जाए | जो भी प्राप्त होगा वह समानता के निकट होगा | विभिन्न धार्मिक ज्ञान के लिए पर्याप्त शिक्षा और मानसिक स्तर को बढाने के बाद ही राम और मोहम्मद को एक जैसी उंचाई पर रखना सम्भव होगा | इसके लिए एक दुसरे के विश्वासों के प्रति आदरभाव और समझदारी पैदा करना होगा | इस जागरण के लिए ऐतिहासिक और धार्मिक ज्ञान आवश्यक तथा सर्वश्रेष्ठ साधन है | जो शक्ति पृथकता में महत्वपूर्ण है वह है इतिहास के प्रति ख़ास दृष्टि | गुट और जमात का निर्माण मूलरूप से इस कारण होता है कि वे घटनाओं के प्रति क्या दृष्टिकोण रखते है | भारत के हिन्दू व मुसलमान एक ही इतिहास के प्रति भिन्न - भिन्न दृष्टिकोण रखते है | ऐसे हिन्दू विरले ही है जो एक मुसलमान शासक या इतिहास पुरुष को अपने पुरखे के रूप में स्वीकार करे | उसी तरह ऐसा मुसलमान भी विरला ही होगा जो किसी हिन्दू इतिहास - पुरुष को अपना पुरखा माने , इतिहास के ऐसे शोधकर्ता की भी कमी नही है जिन्होंने सभी मुस्लिम शासको और आक्रमणकारियों की सूचि एक साथ इतिहास के एक पन्ने पर लिख दी है |
 शायद आज या जब भारत का बटवारा हुआ था , तब हिन्दू - मुस्लिम जैसी कोई समस्या न होती यदि हिन्दू और मुसलमान एक साथ इतिहास की एक जैसी व्याख्या करने में समर्थ होते और शान्ति से रहना सीखे होते | ब्रिटिश राज ने ऐसा कुछ नही किया जो पहले न रहा हो | एक ही इतिहास के प्रति हिन्दू और मुसलमान - दृष्टिकोण भिन्न रहे है , अतीत में भी आज भी और उनके स्वरूप तथा चरित्र में पृथकता का यही मुख्य कारण रहा है | भारत के मुसलमान अपनी उत्पत्ति गजनवी और गोरी जैसे लुटेरो से समझते है | ऐसी गलती समझ के भीतर एक झूठी आत्म संतुष्टि का तत्व होता है , वही इतिहास के तत्व - ज्ञान द्वारा और भी पुष्टि पा जाता है जब हर बार आक्रमण को प्रगति का बढ़ा हुआ कदम समझा जाता है | निश्चित रूप से समाज में ठहराव या घोर पतन हो रहा होगा जब कोई आक्रमण हुआ होगा | उसी तरह निश्चय ही हर नई शक्ति में चाहे वह किसी आक्रमणकारी द्वारा लाई गयी हो , बुराई के साथ मिली कोई अच्छाई रही होगी | किसी भी आक्रमण के नतीजे की जाँच , कमजोरी पर शक्ति की विजय के साथ अच्छाई व बुराई के बीच पैदा हुई हलचल और नयेपन से की जानी चाहिए | कोई भी राष्ट्र जो इस दृष्टि के भिन्न किसी अन्य दृष्टि से इतिहास का अध्ययन करता है वह सतत आक्रमणों का शिकार होता है और इस रूप में भारत विश्व में सबसे उपर है |
मुसलमानों ने चूँकि गजनवी और गोरी को अपना पूर्वज माना है वे स्वंय अपनी आजादी और अपने राज्य की रक्षा करने में असमर्थ रहे है | भारत का मध्यकालीन इतिहास जितना हिन्दू और मुसलमानों के युद्ध का इतिहास रहा है , उतना ही वह मुसलमान और मुसलमान के युद्ध का भी है | आक्रमणकारियों ,मुसलमान , देशी मुसलमान से लड़ा और उन पर विजयी हुआ | पाँच बार देशी मुसलमान अपनी आजादी की रक्षा करने में असमर्थ रहे | वे लोग नादिरशाह और तैमुर जैसो द्वारा कत्लेआम के शिकार हुए | मुग़ल तैमुर ने देशी पठानों को क़त्ल किया और ईरानी नादिरशाह ने देशी मुगलों को कत्ल किया | ऐसी कौम जो आक्रमणकारियों और कत्ल करने वालो को अपना पूर्वज माने वह स्वतंत्रता की अधिकारी नही और उसका आत्मगौरव झूठा है क्योकि उनकी धारावाहिक एक रूपता नही रही न उन्होंने उसे बना कर रखा ही | आक्रमणकारी जो समय के फैलाव के साथ देशवासी बन जाते है , वे राष्ट्र का एक अंग बन जाते है और इस सत्य को मान्यता मिलनी चाहिए | एक की माँ के प्रति किये गये बलात्कार को न मानना एक चीज है और उसके परिणाम को स्वीकार करने से इन्कार करना दूसरी चीज , मुसलमानों ने बलात्कार और उसके नतीजे दोनों को मानने की भूल की है और हिन्दुओ ने किसी को न मानने की भूल की है | हिन्दू अपनी माँ की रक्षा करने में असमर्थ रहा और उसने अपनी दुर्बलता पर आये अपने क्रोध को अपने सौतेले भाई पर लादने का आसन रास्ता खोज निकला | फिर कालान्तर में वही सौतेला भाई देशवासी बन जाता है और भविष्य में इसी रोग का शिकार बनता है | मानसिक रूप से वह इतना अधम हो जाता है कि अपनी दुर्बलता को पराक्रम समझने की गलती कर बैठता है इतिहास के अध्ययन का एक और ढंग है , जो वस्तु स्थित को अधिक स्पष्ट करता है | वह रजिया , शेरशाह , जायसी और रहीम के साथ विक्रमादित्य , अशोक , हेमू और प्रताप को मुसलमान व हिन्दू समान रूप से पूर्वज बताता है | इसी तरह हिन्दू और मुसलमान समान रूप से गजनवी , गौरी और बाबर को लुटेरे और अत्याचारी आक्रमणकारी के रूप में पहचानेगे और पृथ्वीराज , सांगा और भाऊ को भारत की भूल व दुर्बलता के प्रतीक के रूप में देखेंगे | मैंने जानबूझकर ऐसे लोगो का नाम चुने है जो व्यक्तिगत रूप से बहादुर थे पर सामूहिक रूप से निर्बुद्धि , जिनके कारण देश में हार और समर्पण की लम्बी परम्परा कायम हुई | व्यक्तिगत रूप में कायर लोग देश की आजादी के लिए इतने खतरनाक नही होते जितने ऐसे बहादुर और मुर्ख योद्धाओं में मैं भामा शाह जैसे लोगो के नाम लूंगा और लुटेरो तथा अत्याचारियों में अमीरचंद जैसो का | इतिहास के वास्तविक अध्ययन से सांगा एक बहुत छोटे और मनबुद्धि दरबारियों के नायक के रूप में दिखेगा जिनके कमजोर हाथो में देश की स्वतंत्रता की रक्षा का भार था और प्रताप ने बुझते अंगारों से आजादी की मशाल जलाने का प्रयत्न किया था | मानसिंह और अकबर ऐसे क्षेत्र के थे जहाँ आजादी और गुलामी का मिलन होता है , जहां एक आक्रामक देशवासी बनने का प्रयत्न करता है और जिसकी धूर्तता को महानता कहा जाता है |अकबर और जहाँगीर के अलावा लगभग सभी मुगलों के समय पृथकवाद पनपा जब कि पठान हिन्दुओ के अधिक निकट आये | हिंदी काव्य क्षेत्र में जायसी और रहीम किसी भी हिन्दू से अधिक चमकदार नक्षत्र थे | वास्तव में रहिमन ऐसा नाम है जो इस्लाम के भारतीयकरण का प्रतीक है | यह रुसी मुसलमानों जैसा नाम है जिनका नाम ''ओव '' या ''इन'' जोड़ कर परम्परागत रूप में बदला गया अथवा इंडोनेशिया मुसलमान जिनका हिन्दू नाम धर्म परिवर्तन के बाद भी बना ही रहा | मैं नही कह सकता कि अपने व्यक्तिगत परिवेश में जोधाबाई कहाँ तक राष्ट्रीय समीपता की प्रतीक बन सके | मुझे 1857 के लगभग हुई एक कवित्री ''ताजू'' का नाम सुनाई पडा है जो जन्म से मुसलमान और पेशे से रंगरेज थी , जिसकी कृष्ण भक्ति की कविताएं मीरा के भक्ति - गीतों के जोड़ की थी | इससे लगता है कि यह जैसे इतिहास का नियम हो कि समीपता के काम छोटी जाति व अर्द्धशिक्षित लोगो ने ही किये है और पृथकता का काम शासको तथा अधिक शिक्षित उच्च जाति के लोगो ने |अक्सर मैंने हिन्दू चोटी और मुस्लिम दाढ़ी हटाने तथा धार्मिक प्रतीक वाले कपड़ो , नाम और रहन - सहन से दूर हटने की बात कही है , क्योकि इसे मैं समीपता लाने का प्रथम प्रयास मानता रहा हूँ | प्रथम प्रयास के रूप में भी यह काम लगभग असम्भव है , जब तक मानसिक बदलाव का भी प्रयत्न न किया जाए | किसी व्यक्ति का बाहरी स्वरूप उसके आंतरिक चरित्र की प्रतिछवि है | विचार आदत और आत्मगौरव के आधार का प्रतिबिम्ब उसका बाह्य रूप ही है | यदि इतिहास को अधिक ईमानदारी और समझदारी से पढ़ा गया होता या धार्मिक पैगम्बरों को अच्छी तरह समझा गया होता तो इसके चमत्कारी परिणाम होते और हिन्दू - मुसलमान अपने बाह्य रूपों में इतने एक होते कि अलग अलग पहचाने तक न जाते , साथ ही उनके दिमाग भी बहुत मिले होते |दिमाग की बनावट से ही शान्ति और एकता तथा इतिहास और धर्म के प्रति सही समझदारी , साथ ही झगड़े भी जन्म लेते है | ऐसी शान्ति तथा एकता की दिमागी बनावट में मस्जिद के सामने बाजे और गोहत्या जैसे प्रश्न अपने आप सुलझ जाते |निश्चय ही मैं समझता हूँ आशा करता हूँ दुनिया लम्बे अरसे तक अनिश्चित काल तक दुराचारी नही बनी रहेगी | भारत केभीतर हिन्दू व मुसलमान के बीच शारीरिक व सांस्कृतिक एकता होगी और इसके सद्प्रिनाम स्वरूप अथवा साथ ही साथ पाकिस्तान और भारत मिलकर हिन्दुस्तान बनेगा , यही कामना है और प्रार्थना है और सम्भावना भी _ राम मनोहर लोहिया
प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (27-03-2017) को "सरस सुमन भी सूख चले" (चर्चा अंक-2922) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आभार गुरुवर आपका

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