Friday, January 30, 2015

प्रेरणा के स्वर

प्रेरणा के स्वर

एक पुरानी कथा है | एक सम्राट के दरबार में बाहरी देश से आया एक चारण पहुचा | उसने सम्राट की स्तुति में अनेक सुन्दर - सुन्दर गीत प्रस्तुत किये | उन गीतों ने सम्राट के साथ - साथ दरबारियों का भी मन मोह लिया | यह सब उस चारण ने कुछ पाने की लालसा से किया था | जब उसका स्तुतिगान खत्म हुआ तो सम्राट ने खुश होकर सोने की बहुत सी मुहरे उसे भेंट की | इन मुहरो को पाकर चारण बहुत खुश हुआ  | पर जैसे ही उसने इन मुहरो पर नजर डाली उसके भीतर मानो कुछ कौध गया | एक चमक उसकी चेतना में बिखर गयी  | अब उसके चेहरे के भाव बिलकुल बदल गये | उसने आकाश की ओर कृतज्ञता भरी नजरो से देखा | उसे लगा कि मानो आकाश भी मौन स्वर में उसके अंतर्भावो के साथ सहमती जता रहा है | अब उसने मोहरे वही छोड़ दी और नाचने लगा | एक अनूठी कृतज्ञता उसके मुखमंडल पर छा  गई  | उसके हाव - भाव पूरी तरह बदल चुके थे | उन मुहरो को देखकर उसमे ना जाने जैसी क्रान्ति हो गयी थी | अब वह चारण नही रहा , वरन संत हो गया | उसकी अंतर्चेतना में कामना के बजाए प्रेरणा के स्वर गुजने लगे | काफी अरसा गुजरने के बाद एक दिन किसी ने उससे पूछा -- ' क्यों भाई , ऐसा क्या था उन मुहरो में ? क्या वे जादुई थी ? इस पर वो हंसा और बोला -- मुहरे जादुई नही थी | वह वाक्य जादुई था जो उन पर लिखा था | ' कुछ पलो की आत्मनिमग्नता के बाद उसने अपनी बात पूरी की -- '' उन मुहरो पर लिखा था -- जीवन की सभी आवश्यकताओ के लिए परमात्मा पर्याप्त है | '' उसने इस बात का सार समझाते हुए आगे कहा -- जो इस बात को जानते है , वे सभी इस सच की गवाही देते है | जिनके पास सब कुछ है , सारा ऐश्वर है , ईश्वर के बिना वे दरिद्र दिखाई देते है |  वही ऐसे सम्पत्तिशाली भी है , जिनके पास कुछ भी नही , केवल वे संतुष्ट है वो सुखी है | जिन्हें सब पाना है , उन्हें सब छोड़ देना होगा | जो सब कुछ छोड़ने का साहस रखते है , वे स्वंय को पा  लेते है | उनके सामने अनायास ही सत्य उजागर हो जाता है |

Thursday, January 29, 2015

नया भूमि अधिग्रहण विधयेक और उसके मसौदे में संशोधन 30-1-15

नया भूमि अधिग्रहण विधयेक और उसके मसौदे में संशोधन

 ( क्या किसानो के हित में , या किसानो के विरोध में )

इस अन्याय का प्रतिकार भूमि अधिग्रहण का मार सहने वाले किसानो और उससे ग्रामीणों को ही करना होगा | उन्हें भूमि अधिग्रहण और उसके मसौदा को , उसमे किये जाते रहे संशोधनों को स्वंय अपनी चर्चा का तथा विरोध का विषय बनाना होगा
नया भूमि अधिग्रहण विधेयक लोकसभा में पेश किया जा चुका है | इसका मसौदा 29 जुलाई को जारी किया गया था | 5 सितम्बर के समाचार पत्रों में इस मसौदे का वह संशोधित रूप प्रकाशित हुआ , जिसे संसद में पास करवा कर कानून का रूप दिया जाना है | यही कानून , भूमि अधिग्रहण के 1894 के कानून की जगह लेगा | संसद में बहस के बाद यह कानून के रूप में कैसे सामने आता है , यह बाद की बात है | पर दिलचस्प बात यह है कि 29 जुलाई को देशव्यापी राय मशविरे के लिए जारी मसौदे में कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण बदलाव कर दिये गये है | इस बदलाव के लिए सरकार को किसने सलाह दी ? क्या किसानो ने ?एकदम नही | किसानो या किसान संगठनों कि राय तो कही चर्चा तक में नही आई | लेकिन उद्योगपतियों के संगठनों और प्रचार माध्यमी जगत के दिग्गजों कि राय जरुर आती रही | इस संदर्भ में समाचार पत्रों में सूचनाये भी प्रकाशित होती रही | बेहतर है कि किसी भी नतीजे पर पहुचने से पहले मसौदे में दिये गये बदलाव को मोटे तौर पर देख लिया जाए 
1 . 29 जुलाई को जारी किये गये मसौदे में यह कहा गया था कि , खेती योग्य और सिंचित जमीन का अधिग्रहण नही किया जाएगा |लेकिन उद्योगपतियों के संगठनों और उनके समर्थको के खुले दबाव के बाद इसके अधिग्रहण को हरी झंडी दे दी गयी है | बड़े उद्योगपतियों के संगठन "पिक्की " द्वारा मसौदे पर सुझाव के रूप में यह बयान समाचार पत्र में प्रकाशित भी हुआ है | हाँ , इस सुझाव में सांत्वना के तौर पर ग्रामीण विकास मंत्री ने विधेयक में यह प्राविधान जोड़ दिया है कि ( लेकिन कितने दिन बाद , यह अनिश्चित है ) उस जिले में उतनी कृषि भूमि का सिंचित भूमि में विकास कर दिया जाएगा |
2--- जुलाई के मसौदे में ग्रामीण इलाको कि जमीन का मुआवजा बाज़ार दर से 6 गुना ज्यादा दिये जाने का प्रस्ताव किया गया था | अब अधिग्रहण के बाद मुआवजे कि रकम अदा करने वाली कम्पनियों , डेवलपरो के दबाव में उसे घटाकर 4 गुना कर दिया गया है | 
3--- तीसरा और अत्यंत महत्वपूर्ण बदलाव - मसौदे में यह प्रस्तावित था कि 5 साल तक अधिग्रहित भूमि का घोषित उद्देश्य के लिए न इस्तेमाल किये जा सकने कि स्थिति में वह जमीन किसानो एवं ग्रामवासियों को लौटा दी जायेगी | लेकिन अब नये संशोधन के अनुसार अब वह जमीन इस्तेमाल न किये जाने के वावजूद जमीन के मालिक किसानो को बिलकुल लौटाई नही जायेगी | अब वह भूमि राज्य भूमि प्राधिकरण के कब्जे में चली जायेगी | कुछ समाचार पत्रों में यह सुचना भी आई थी कि 5 वर्ष कि मियाद को संशोधित करके 10 वर्ष कर दिया जाना है | अर्थात 10 साल तक अधिग्रहित जमीन का इस्तेमाल न होने पर वह राज्य भूमि प्राधिकरण के कब्जे में चली जायेगी | 
इसके अलावा मसौदे के कई अन्य सुझावों में बदलाव किये गये है | जिन्हें हम कानून के रूप में आने के बाद प्रस्तुत करेंगे और उस पर चर्चा भी करेंगे | लेकिन अभी तक मसौदे में किये गये उपरोक्त संशोधनों से यह बात समझना कतइ मुश्किल नही है कि , ये संशोधन किसानो द्वारा नही , बल्कि बड़े उद्योगपतियों , व्यापारियों द्वारा कराए गये है | कयोंकि भूमि अधिग्रहण से सम्बन्धित मसौदे व विधेयक को किसानो को बताने और उनकी राय जान्ने का तो कोई प्रयास ही नही किया गया | 29 जुलाई को पेश किये गये मसौदे का कोई सरकुलर ग्राम सभाओं तक को नही भेजा गया | फिर 26 जुलाई को जारी किये गये मसौदे के केवल एक माह बाद उसे विधेयक या कानून का रूप देने में यह बात स्पष्ट है कि इस मसौदे पर कृषि - भूमि के मालिक से कोई राय नही ली जानी थी | इनकी जगह भूमि अधिग्रहण के घोर समर्थक भूमि लोलुप कम्पनियों के प्रमुखों व डेवलपरो आदि जैसे गैर किसान , धनाढ्य वर्गो की ही राय ली जाने वाली थी | कयोंकि वे ही सत्ता सरकार से अपने हितो में नीतियों , मसौदो , विधेयको को बनाने व लागू करने - करवाने के लिए सत्ता सरकार के इर्द - गिर्द मडराते रहते है | सरकारे भी इन्ही की सुनती है |इनसे ही राय मशविरा करती है | साफ़ बात है कि यह मसौदा भी उन्ही के लिए जारी किया गया था , न कि किसानो तथा अन्य ग्रामीण हिस्सों के लिए | क्या यह कृषि भूमि पर किसानो व अन्य ग्रामवासियों से जुड़े अहम मुद्दे पर उकी अनदेखी करने का अन्याय नही है ? एकदम है | लेकिन इसे कहेगा कौन ? केन्द्रीय सरकार में बैठी पार्टियों ने तो अन्याय किया ही है , लेकिन विरोधी पार्टियों ने भी सरकार पर उस मसौदे के बारे में किसानो से राय मशविरा लेने की कोई बात नही करके उसी अन्याय का साथ दिया है | ज्यादातर प्रचार माध्यमि बौद्धिक हिस्सों ने भी इसी अन्याय का साथ दिया है | इसलिए अब इस अन्याय का प्रतिकार भूमि अधिग्रहण का मार सहने वाले किसानो और उससे ग्रामीणों को ही करना होगा | उन्हें भूमि अधिग्रहण और उसके मसौदो को , उसमे किये जाते रहे संशोधनों को स्वंय अपनी चर्चा का तथा विरोध का विषय बनाना होगा | यह विरोध संगठित रूप और व्यापक रूप में , गाँव स्तर से लेकर देश स्तर पर किये जाने की आवश्यकता हैं | इसके लिए उन्हें अपनी किसान समितियों और महा समितियों को भी जरुर खड़ा करना होगा | ताकि इसके जरिये वे किसान विरोधी नीतियों के विरोध के साथ कृषि विकास , कृषि सुरक्षा की मांग खड़ी कर सके | उसके लिए सरकारों पर बराबर दबाव डाल सकें | हम कब सचेत होंगे जब हमसे सब कुछ छीन जाएगा ?


सुनील दत्ता
पत्रकार

Wednesday, January 28, 2015

तत्वज्ञानी --- 29-1-15

 तत्वज्ञानी ---




सिकन्दर ने सुन रखा था कि भारत विश्व गुरु है वो सुन रखा था की यहाँ पर एक से बढ़कर एक तत्वज्ञानी  मौजूद है  | उसके मन में विचार आया कि ऐसे ही किसी श्रेष्ठ तत्वज्ञानी को उसे अपने देश में लेकर चलना चाहिए | ऐसा सोचने के बाद वह श्रेष्ठ तत्वज्ञानी की तलाश में लग गया | एक दिन उसके सेवको ने आकर बताया कि पास के जंगल में एक  कुटिया में साधू रहता है , जो श्रेष्ठज्ञानी है | यह जानकार सिकन्दर उस जगह पर जा पहुचा  | साधू बेहद सादगी पूर्ण जीवन व्यतीत करता था | किन्तु साधनों का सर्वथा अभाव रहते हुए भी प्रसन्नता और तह्स्विता उसके मुख से स्पष्ट झलक रही थी  | उसे देखकर सिकन्दर को लगा कि यही उस वर्ग का व्यक्ति है , जिसकी उसे तलाश है | सिकन्दर ने साधू को अपने साथ चलने और विपुल ऐश्वर्य भोगने का प्रलोभन दिया | सिकन्दर की बात सुनकर साधू मुस्कुराया और बोला -- इन वस्तुओ की नश्वरता देखकर मैं विवेक पूर्वक बहुत समय पहले ही इन्हें त्याग चुका हूँ | अब इन्हें पाने के लिए प्रकृति का सुरम्य माहौल छोड़कर महलो की कैद में भला क्यों जकडू  ?  साधू का इनकार करना सिकन्दर को अपना अपमान लगा | वह गुस्से से तिलमिला उठा और म्यान से तलवार निकालते हुए साधू से बोला -- तुम्हे मेरे साथ चलना ही होगा | यदि मेरा कहना नही मना तो अभी तुम्हारा सिर धड से अलग कर दूगा | सिकन्दर की यह हरकत देख साधू हँस पडा और बोला -- तुम चाहे कितने ही शक्तिशाली क्यों न हो , लेकिन यह समझ लो कि काल से अधिक बली नही हो | तुम उसके विधान को नही मिटा सकते | यदि मेरा मरना आज ही और तुम्हारी इस तलवार के जरिये ही मरना लिखा है तो उस अमिट को निकट आया देखकर मैं भला डरुंगा क्यों ? बंधन मुक्ति पर प्रसन्न क्यों नही होऊँगा | यह सुनकर सिकन्दर अचंभित रह गया | उसने उस तत्वज्ञानी साधू की मन: स्थिति को लोभ और भय से ऊँचा पाया | वह समझ गया कि साधू को अपने इरादों से डिगाया नही जा सकता  | लिहाजा उसने साधू को अपने साथ ले जाने का विचार छोड़ दिया |

Friday, January 23, 2015

प्रकृति अपने सबसे अनुपम स्वरूप में नजर आती है | 24-1-15

ऋतुराज बसंत -------

प्रकृति अपने सबसे अनुपम स्वरूप में नजर आती है |




पतझड़ और बहार की संधि ऋतु .. शीत व ग्रीष्म को जोड़ने वाला सेतु है बसंत . प्रकृति के श्रृगार का उत्सव है बसंत | माघ के शुकल पक्ष के पांचवे दिन हम बसंत के आगमन पर  बसंत पंचमी उत्सव  के रूप में इसका स्वागत करते है |
पौराणिक कथाओ के अनुसार बसंत चूकी ऋतुओ का राजा  है , इसलिए सारे ऋतुओ ने अपने हिस्से के आठ -- आठ दिन बसंत को दिए .... इस तरह बसंत चालीस दिन की ऋतु मानी जाती है |

बसंत ऋतु से सम्बन्धित कई सारी कथाये है , हमारे साहित्य , संगीत , नृत्य , चित्रकला व विविध कलाओ का समागम है बसंत इसका हर कोना अपने आप महकता रहता है | अगर देखा जाए तो बसंत महज एक ऋतु नही है . यह एक जीवन दर्शन है जीवन शैली है | सर्दी के सीलन भरे अँधेरे दिनों से निकल कर जब प्रकृति सूर्य के आलोक में मुस्कुराती है तो हर कही रंग , सुगंध और सौन्दर्य की सृष्टि होती है | यु ही नही बसंत को ऋतुराज कहा जाता है | ये भवरो के गुंजन , आम के बौराने , फूलो के खिलने और कलियों के चटखने का मौसम है | हल्के - सुहाने दिनों की ऋतु मन - मस्तिष्क को गहरे से प्रभावित करती है ऐसे में साहित्य शिल्पी हो या छाया शिल्पी  व  रंग शिल्पी उनके सृजन मन को तरंगित करती है और वह नये सृजन का कार्य बड़े मोहक अंदाज में करते है | इस खुबसूरत ऋतु में  मानव मन उल्लास  से भर जाता है हृदय के उमंगो को पंख लग जाते है - हल्की - हल्की , सुहानी बयार जैसे शीत के सारे संताप मिटा देती है | प्रकृति को नवाकुरो का उपहार देती है |  पतझड़ से सुनी पड़ी डालियों पर कोपले आने लगती है | मानो प्रकृति ये सन्देश देना चाहती है कि कुछ भी स्थायी नही होता | यदि सर्दी का कठिन दौर आयेगा तो बसंत भी आयेगा ही | चाहे कुछ हो हर वक्त एक -- सा नही होता है |


कला व साहित्य में बसंत

बसंत तो है ही सृजन की ऋतु ... यू ही नही बसंत पंचमी पर कला -- साहित्य की देवी सरस्वती की पूजा होती है  | जब मन तंग में हो , प्रकृति उत्सव के दौर में हो .. तो हम इंसान कैसे इससे अलग रह सकते है ? जीवन का सौन्दर्य उमड़ - घुमड़कर बरसता है और रचता है . अपनी ख़ुशी व्यक्त करता है सुर .. शब्द लय. ताल .. रंग के माध्यम से | हमारे प्राचीन साहित्य में बसंत को कामदेव का स्वरूप कहा गया है वही कामदेव जब गन्नो के धनुष पर . भवरो की पात की डोरी बाँध रंग - बिरंगे फूलो के बाण चढाए निकलता है . तब आम लोगो की तो बिसात ही क्या , देवधि देव महादेव भी उसके प्रभाव से बच नही पाते , कालिदास ने अपने महाकाव्य कुमार सम्भव में इस प्रसंग का विशद वर्णन किया है | कलाकार साहित्य को संगीत , नृत्य और चित्रकला में  ढालते नजर आते है  | कालिदास के साहित्य के चित्र इसी का उदाहरण है | संगीत में भी बसंत अपने पूरे राग - रंग के साथ उपस्थित है |



मन - भावन बसंत


प्रकृति का प्रभाव इतना अधिक होता है कि वर्ष में परिवर्तित होने वाले मौसम में भी मनुष्य के मन मस्तिष्क को प्रभावित एवं परिवर्तित करते है | शोध से ज्ञात होता है कि वे लोग जो मानसिक समस्याओं से घिरे हुए है बसंत ऋतू में वे बेहतर महसूस करते है |
बसंत ऋतु में रंगों की विविधता भी मानव के व्यवहार और उसके मनोबल को प्रभावित करती है | नीला आसमान , हरी - भरी धरती , रंग - बिरंगे फूल और सुन्दर कलिया यह सब मनुष्य के शरीर और उसकी आत्मा पर सकारात्मक प्रभाव डालते है |

इस बारे में ईरान  के मनोविशेषज्ञ डा इब्राहिमी मुकद्दम का कहना है कि जिस तरह बसंत ऋतू के दौरान हमारे इर्दगिर्द हरा , नीला , लाल और पीले रंग बहुतायत में दिखाई देते है और हमारी आत्मा तथा शरीर पर इन रगों का उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है | आकाश का नीला रंग शान्ति , सहमती , स्वभाव में नरमी तथा प्रेम का आभास करता है | हरा रंग सम्बन्ध की भावना तथा आत्म सम्मान की भावना को उंचा रखता है | लाल रंग कामना , उत्साह तथा आशा , विशेष प्रकार के आंतरिक झुकाव को उभारता है | सूर्य का पीले रंग का प्रकाश और कलियों का चटखना  भविष्य के बारे में सकारात्मक सोच तथा कुछ कर गुजरने की भावना उत्पन्न  करती है |

प्रकृति के रंग
यह भी एक वास्तविकता है कि बसंत के सुन्दर मौसम में प्रकृति में फैले संगीत को सुनने से मनुष्य के भीतर विशेष प्रकार के आनन्द का आभास होता है | जैसे पत्तो के आपस में टकराने की आवाज , चिडियों के चहचहाने की आवाजे या फिर बहने वाली नदियों से उत्पन्न होने वाली कल - कल की ध्वनी . कोयल भी इन्ही दिनों में कूकती है रंग - रंग के फूल खिलते है . प्रकृति अपने सबसे अनुपम स्वरूप में नजर आती है |


जीवन का गूढ़ दर्शन


बसंत सिर्फ सौन्दर्य , राग - रंग और मादकता की ऋतू नही है ये जीवन का गूढ़ दर्शन भी देती है | शीत से झुलसे पेड़ो और झरे हुए पत्तो के बाद नई कोपले बसंत में ही आती है |  ये इस बात का प्रतीक है कि जीवन किसी एक बिंदु पर ठहरता नही है | ये चलता रहता है निरन्तर यही निरंतरता एक उम्मीद है | पतझड़ के बाद बसंत आता ही है | बसंत को आना ही होता है | ये सिर्फ प्रकृति पर ही नही , बल्कि हमारे जीवन पर भी लागू होता है | हर दुःख का अंत होता है हर बुरा वक्त गुजरता ही है | बसंत आशा का उत्सव भी है उम्मीद का आधार भी |


प्रकृति और जीवन का सम 


न सर्दी , न गर्मी ऐसा होता है बसंत सर्दी का उतार  और गर्मी की आमद के बीच एक सेतु की तरह आता है | इसी तरह ये बसंत इस बात का संदेश है कि जीवन हर वक्त सुख और दुःख की लहरों पर सवारी नही करता है | ज्यादातर वक्त वह सम पर होता है | यही जीवन है , यही जीवन का सार भी है |

Thursday, January 22, 2015

कर्तव्य में चूक 23-1-15

कर्तव्य में चूक


चीन का एक अमीर च्यांग भेड़ पालने का धंधा करता था | उसके बाड़े में बहुत -- सी भेड़े थी | वह उनके खान - पान का पूरा ध्यान रखता | धीरे - धीरे उसके बाड़े में भेड़े इतनी बढ़ गयी कि उन्हें अकेले संभालना मुश्किल हो गया | उसने भेड़ो का ध्यान रखने के लिए दो लडको को नियुक्त किया | भेड़ो को भी दो हिस्सों में बाट दिया गया और उन लडको को काम दिया गया कि वे अपने - अपने हिस्से की भेड़ो का पूरा ख्याल रखेगे और नियत समय पर मैदान में चराने के लिए ले जायेगे तथा वापस लायेगे | अमीर च्यांग अपनी भेड़ो को उनके भरोसे छोड़ यात्रा पर निकल गया | कुछ दिनों बाद वह जब लौटकर आया तो उसने बाड़े में जाकर भेड़ो का मुआयना किया | वहा पर भेड़ो की स्थिति देख उसे बहुत दुःख हुआ | भेड़े दुबली भी हो गयी थी और उनमे से कुछ मर भी गयी थी | अमीर ने इसके लिए उन चरवाहे लडको को जिम्मेदार ठहराया | उसने इस बात की छानबीन की कि आखिर किस वजह से भेड़ो की इतनी हानि हो गयी | छानबीन से पता लगा कि दोनों लड़के अपने - अपने व्यसनों में लगे रहते थे | एक को जुआ खेलने की आदत थी | जहा कही भी वह जुए की बाजी लगते हुए देखता . वही डाव लगाने के लिए बैठ जाता | इस चक्कर में भेड़े कही से कही जा   पहुचती और भूखी - प्यासी रहते हुए कष्ट पाती | दुसरे लड़के का मामला थोड़ा अलग था | वह पूजा पाठ का व्यसनी था | इस चकर में वह भी भेड़ो पर ज्यादा ध्यान नही देता और अपनी रूचि के काम   में ही लगा रहता | अमीर उन दोनों लडको को पकड़कर एक न्यायाधीश के समक्ष ले गया | न्यायाधीश ने पुरे मामले को गौर - से सूना और दोनों को समान रूप से दण्डित किया | यह सुनकर दूसरा लड़का न्यायाधीश से बोला -- ' माना कि मुझसे चुक हुई | लेकिन मैं इस लड़के की तरह जुआरी तो नही हूँ | मैं तो पूजा - पाठ करने वाला सदाचारी व्यक्ति हूँ | फिर मुझे इसके समान दंड क्यों दिया जा रहा है ? न्यायाधीश ने कहा -- ' माना कि  तुम दोनों के कारणों में भेद है | लेकिन कर्तव्यपालन की उपेक्षा के लिए तुम भी उसके समान दोषी हो | कर्तव्य -- भाव के बगैर जो किया जाता है , वह व्यसन है | व्यसन में जुआ खेला या पूजा की , लेकिन कर्तव्य की उपेक्षा तो की ही | उसी का दंड दिया गया है |

Wednesday, January 21, 2015

नतमस्तक ------- 22-1 -15

नतमस्तक  -------



महान तर्कशास्त्री आचार्य  रामनाथ नवद्दीप के समीप एक छोटी - सी जगह में छात्रो को पढाते थे| उस समय कृष्णनगर के राजा शिवचंद्र थे . जो नीतिकुशल शासक होने के साथ - साथ विद्यानुरागी भी थे | उन्होंने भी आचार्य  रामनाथ की कीर्ति सुनी  | पर यह जानकार उन्हें दुःख हुआ कि ऐसा विद्वान् गरीबी में दिन गुजार रहा है  | एक दिन राजा स्वंय पंडित जी से मिलने उनकी कुटिया में जा पहुचे  | आचार्य  जी ने राजा का यथोचित स्वागत किया | कुशलक्षेम पूछने के बाद राजा ने कहा -- आचार्य  प्रवर , मैं आपकी कुछ मदद करना चाहता हूँ  | यह सुनकर आचार्य  रामनाथ ने जबाब दिया -- राजन भगवत्कृपा ने मेरे सारे अभाव मिटा दिए है | मुझे किसी चीज की आवश्यकता नही | तब राजा बोले - विद्वतवर . मैं घर खर्च के बारे में पूछ रहा हूँ | सम्भव है उसमे कुछ कठिनाई आ रही हो  | राजा की मन: स्थिति जान आचार्य  रामनाथ बोले -- घर खर्च के बारे में गृहस्वामिनी मुझसे अधिक जानती है | आप उन्ही से पूछ लें  | राजा ने साध्वी गृहणी के समक्ष पहुचकर कहा -- ' माता , घर खर्च के लिए कोई कमी तो नही  ? सादगी की मूरत गृहणी ने कहा - ' भला सर्व - समर्थ परमेश्वर के रहते उनके भक्तो को क्या कमी रह सकती है ? ' फिर भी माता ... ' लग रहा था कि राजा कुछ और सुनने के इच्छुक है | तब गृहणी ने कहा -- ' महाराज , वाकई हमे कोई कमी नही है |पहनने को कपडे है | सोने को बिचौना है | पानी रखने के लिए मिटटी का घडा है | भोजन की खातिर विद्यार्थी सीधा ले आते है | कुटिया के बाहर खड़ी चौराई  का साग हो जाता है | भला इससे अधिक की जरुरत भी क्या है ? उस मातृस्वरूपा नारी के ये वचन सुनकर राजा मन ही मन श्रद्दावनत हो गये | फिर भी उन्होंने आग्रह किया -- ' देवी , हम चाहते है कि आपको कुछ गाँवों की जागीर प्रदान करे | इससे होने वाली आय से गुरुकुल भी ठीक  तरह से चल सकेगा और आपके जीवन में भी कोई अभाव नही होगा | ' यह सुनकर गृहणी मुस्कुराई और बोली
' राजन , इस संसार में परमात्मा ने हर मनुष्य को जीवनरूपी जागीर पहले से दे रखी  है | जो जीवन कि इस जागीर को अच्छी तरह से सभालना सीख  जाता है , उसे फिर किसी चीज का अभाव नही रह जाता " यह सुनकर राजा का मस्तक इस संतोषी और श्रुत - साधक आचार्य दम्पत्ति के चरणों में झुक गया  |

Tuesday, January 20, 2015

गंगा उदास हैं .........................बदहवास हैं ------------- 21- 1-15

गंगा उदास हैं .........................बदहवास हैं

 

 


गंगा की बात मत करो गंगा उदास है , वह जूझ रही खुद से और बदहवास हैं ,
न रंग हैं , न रूप हैं , न वो मिठास हैं ,गंगा-जली हैं , जल नही गंगा के पास है |

-कैलाश गौतम

अच्युत चरण तरंगिणी, नवसिरा मारुतिमाल | गंगा माँ हैं वह सब जग की तारणहार हैं | यह गंगा ही हैं जिसमे डुबकी लगाते ही मानव त्रिदेव की श्रेणी में आ जाता हैं , जब सिरपर से गंगाजलधार गिरती है तो वह शिव होता हैं , जब गंगाजल अंजुली में भरता हैं तो वह ब्रम्हा होता हैं और यही जलधार जब चरणों से होके गुजरती है तो वह विष्णु होता हैं | गंगा जिसकी महिमा का बखान करने में समस्त पृथ्वी का कागज़ और जल को स्याही बना दे तो भी कम हैं , वही गंगा जिसके माहात्म्य को बताते हुए सैकड़ो ग्रन्थ लिखे गये आज हमारी आस्था तो वही रही पर गंगा -गंगा न रही | गंगा आज कराह रही हैं | उसका अमृत तुल्य पानी आज रोगों की खान बन गया हैं |न तो उसमे हिमालय के खनिज तत्व नजर आ रहे हैं न ही उसका पानी रोगों के कीटाणुओं को नष्ट कर पा रहा | इसके अलावा आचमन या पीने लायक तो क्या इसका पानी आज नहाने लायक भी नही रह गया है | गंगा आज देश में बहने वाले तमाम छोटे बड़े नालो को मिलाकर एक बड़ा नाला बन कर रह गयी हैं लेकिन गंगा में डुबकी लगाकर पाप धोने की हमारी आस्था बरकरार हैं | बात गंगा की आई है तो एक नजर इस पर भी डाले की गंगा को किसने क्या माना और गंगा से क्या पाया | प्रख्यात इतिहास लेखक अब्दुल फजल ने अपने पुस्तक ' आईने- अकबरी ' में लिखा है कि बादशाह अकबर पीने के लिए गंगा जल ही प्रयोग में लाते थे | इस जल को वह अमृत कहते थे | काशी सुरसरी के इस जल में हिमालय क्षेत्र कि जड़ी - बूटी , ब्राम्ही , रत्न , ज्योति , अष्टवर्ग के अतिरिक्त शिलाजीत जैसे खनिज मिलते हैं | इसलिए हर प्रकार के सम्प्रदाय व धर्म के लोगो के बिना किसी भेदभाव के इसकी उपयोगिता , महत्ता को स्वीकार किया हैं | इब्न -बतूता ने लिखा है कि - मुहम्मद तुगलक भी इस जल को पिता था | वाराणसी ( काशी ) में जांच के दौरान पाया गया कि इस जल में एक विशेष प्रकार के "प्रोटेक्टिव कोलाइड "मिलते है जो अन्य नदियों में कम पाए जाते है | इसलिए हिमालय विजेता एडमंड हिलेरी ने गंगासागर से गंगोत्री तक के धरती से सागर तक अभियान कि देवप्रयाग में समाप्ति पर गंगा को 'तपस्विनी ' संज्ञा दी थी | उसके अनुसार गंगाजल मात्र साधारण जल नही हैं | इतिहासकार ' शारदा रानी ' ने मंगोलिया यात्रा का वर्णन करते हुए लिखा हैं कि वहा के निवासियों ने उन्हें गंगा देश से आई महिला कह कर साष्टांग प्रणाम किया | विश्वविख्यात जल विज्ञानी डॉ हेनफेन ने गंगा जल को विश्व का सर्वश्रेठ जल घोषित किया है |इसमें विभिन्न रोगों के कीटाणुऔ को नाश करने की अदभुत क्षमता हैं | एक बार परीक्षण के रूप में उन्होंने काशी के निकट 'अस्सी नाले ' का जल निकाला , उन्होंने पाया कि इसमें हैजे के असख्य कीटाणु है |उन्होंने उस पानी में गंगाजल मिलाकर लगभग 6 घंटे रखा और पाया कि इसमें हैजे के सभी कीटाणु समाप्त हो गये हैं |फ्रांस के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ हैरेंन ने गंगाजल पर वर्षो अनुसन्धान करके अपने प्रयोगों को विवरण शोध पत्रों के रूप में प्रस्तुत किया |उन्होंने आंत्रशोथ व हैजे से मरे अज्ञात लोगो के शवो को गंगाजल में ऐसे स्थान पर डाल दिया जहा कीटाणु तेज़ी से पनप सकते थे |डॉ हैरेज को आश्चर्य कि कुछ दिनों बाद इन शवो से आंत्रशोथ व हैजे के ही नही अन्य कीटाणु भी गायब हो गये हैं | उन्होंने गंगाजल से 'वैक्टीरियोफ्ज ' नामक एक घटक निकाला जिसमे औषधीय गुण हैं | इंग्लैण्ड के जाने माने चिकित्सक सीई नेल्सन ने गंगाजल पर अन्वेषण करते हुए लिखा है कि इस जल में सड़ने वाले वैकटिरिया ही नही होते हैं |उन्होंने महर्षि - चरक को उद्घृत करते हुए लिखा है कि गंगाजल सही मायने में पथ्य हैं |
रुसी वैज्ञानिकों ने काशी व हरिद्वार में स्नान के उपरान्त सन 1950 में कहा था कि उन्हें स्नान के उपरान्त ही ज्ञात हो पाया कि भारतीय गंगा को इतना पवित्र क्यों मानते हैं ?गंगाजल कि पाच्कता के बारे में ओरियन्टल इंस्टीटयूट में हस्तलिखित आलेख रहे हैं |
कनाडा के मैक्लीन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ एम् सी हेमिल्टन ने गंगा कि शक्ति को स्वीकारते हुए कहा कि वे जानते किकहा कि वे नही जानते कि इस जल में अपूर्व गुण कहा से और कैसे आये ? सही तो यह है कि चमत्कृत हेमिल्टन वस्तुत:समझ ही नही पाए कि गंगा कि गुणवत्ता को किस तरह प्रकट किया जाए ?आयुर्वेदाचार्य गणनाथ सेन , विदेशी यात्री वर्नियर , अंग्रेज सेना के कैप्टन मुर आदि सभी ने गंगा पर शोध करके यही निष्कर्ष दिया कि यह नदी अपूर्व हैं |
भारतीय वांग्मय में काशी के बारे में बताया गया है कि जो व्यक्ति गंगा तट पर मन्दिर अथवा सीढ़ी का उद्धार करता है वह शिव लोक में वास करता हुआ अक्षय सुरक्षा प्राप्त करता है | इसके तट पर गौ , भूमि और स्वर्ण दान करने से पुण्य मिलता हैं | गंगा तट पर वास करने वाले विश्वनाथ कि कृपा से ब्रम्हज्ञान को प्राप्त करता हैं | इनके तट पर श्राद्ध करने से पितरो का उद्धार होता है तथा यहा की मिट्टी धारण करना , सूर्य की किरणों को धारण करने के लिए समान होता है |गंगा के अब न तो वह तट हैं न , वह गंगाजल है | गंगा की पीड़ा को जो समझ रहे हैं वह जरुर बदहवास और परेशान है | इस कड़ी में द्वारिका व ज्योतिषपीठाधीश्वर जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती तथा कांची काम कोटिपीठाधीश्वर स्वामी जयेंद्र सरस्वती का नाम महत्त्वपूर्ण है जिन्होंने अलग - अलग अपने - अपने तरीके से गंगाजल के स्वच्छ व अविरल प्रवाह को लेकर जनमानस को उद्वेलित करने की शुरुआत की हैं | ये लड़ाई आसान नही हैं इसके लिए भगीरथ तप और प्रयास की आज फिर जरूरत हैं यदि हमें गंगा को पाना हैं | वैज्ञानिक आकड़ो पर गौर करे तो गंगाजल में बीओडी से लेकर फिक्व्ल क्वालिफार्म की मात्रा सामान्य रह गयी हैं | इसलिए पीने की बात तो दूर अब उसे आचमन लायक भी नही समझा जा रहा हैं | इसके लिए सभी धर्मो , वर्ग , सम्प्रदायों के लोगो को संकल्प लेना होगा लेकिन यह भी स्पष्ट है की थोथे नारों और बयानबाजी से गंगा का गौरव फिर से नही लौटाया जा सकता है || वह गौरव जिसका वर्जिल व दांते जैसे महान पश्चिमी साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में उल्लेख्य किया हैं | सिकन्दर महान जिसके सम्मोहन में बंध गया था | अमेरिका को खोजने वाला कोलम्बस जिसकी तलाश में भटकते हुए मार्ग खो बैठा था | हमे आज एक बार फिर गंगा का वही गौरव लौटाने का संकल्प लेने की जरूरत हैं |
प्रस्तुती------  सुनील दत्ता   ------------------------------------  साभार -राष्ट्रीय सहारा