Friday, November 20, 2015

लौकिक सम्पदा --- 20-11-15

लौकिक सम्पदा

अयोध्या के विशाल गौरवमयी साम्राज्य के अधिपति थे महाराज चक्कवेण | वे जितने रणकुशल थे , उतरने ही नीतिकुशल , न्यायनिष्ठ और दुआर भी थे | भगवान नारायण की भक्ति और सहज  उनका स्वभाव था | इतने बड़े साम्राज्य के अधिपति होते हुए भी वे एक साधारण -- सी कुटिया में रहते हुए अपनी गुजर - बसर करते थे | एक बार उनके महामंत्री ने उनसे अनुरोध किया -- ' महाराज अन्य  राजागण अपनी प्रत्येक क्रिया  में ऐश्वर्य का प्रदर्शन करते है  | इतनी ही नही , वे आपस की चर्चा में यह व्यंग्य भी करते है कि तुम्हारा  राजा दरिद्र है , जो एक साधारण -- सी कुटिया में रहता है | '  महामंत्री के इस कथन पर महाराजा चक्कवेण थोड़ी देर चुप रहे , फिर बोले -- ' मन्त्रिवर ,, आप दुसरो की ऐसी बातो पर ध्यान क्यों देते है ! वैसे सच है कि मैं एक अर्थ में दरिद्र ही हूँ , किन्तु एक अर्थ में वे महादरिद्र है | मैं अपनी तमाम लौकिक सम्पदा को अपनी प्रजा की सेवा में लगा चुका हूँ , परन्तु इसी के साथ मैंने सत्कर्म -- सद्भाव व सद्ज्ञान की सम्पदा पाई भी है | कोई इस सत्य पर विचार कर सकता हो तो कहा जा सकता है कि सेवा से श्रेष्ठ अन्य कुछ भी नही है | जब हृदयपूर्वक सेवा की जाती है , जब ह्रदय दुसरो के दुःख से दुखी होना सिख जाता है , तब एक नए व्यक्तित्व का जन्म होता है | पर दुःख से जब हृदय विदीर्ण  होता है , तब व्यक्तित्व की सीमाए भी विदीर्ण होती है | व्यक्तित्व में पनपती है एक परम व्यापाक्ता | स्वचेतना में प्र्म्चेतना समाती है | नारायण भक्त भी अपने भगवान की तरह व्यापक हो जाता है और ऐसे में निजी लाभ - लोभ की कामनाये चित्त से उसी तरह झड जाती है , जैसे कि पतझड़ आने पर पेड़ से सूखे प[त्ते | मेरे अंत: करण की स्थिति कुछ ऐसी ही हो गई है | ' महामंत्री उनकी बात ध्यान से सुन रहे थे | महाराज ने आगे कहा  - ; जैसे अन्य राजाओं को विलासिता - ऐश्वर्य  में सुख मिलता  है , उसी तरह बल्कि उससे कई गुना अधिक सुख मुझे जनजीवन की सेवा में मिलता है | सेवा में मिलने वाला प्रत्येक कष्ट मुझे गहरी तृप्ति देता है | हर दिन मेरे द्वारा जो भावभरे हृदय से सत्कर्म किये जाते है , मन से जनता की भलाई के लिए योजनाये बनाई जाती है उससे बड़ा तृप्त और कुछ नही |

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (21-11-2015) को "हर शख़्स उमीदों का धुवां देख रहा है" (चर्चा-अंक 2167) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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