Friday, November 20, 2015

अपना शहर - मगरुवा --- रहस्यमयी मुस्कान --- सत्ता के चिथड़ो में लिपटे मगरुवा 21-11-15

अपना शहर -
मगरुवा --- रहस्यमयी मुस्कान --- सत्ता के चिथड़ो में लिपटे मगरुवा
बहुत दिनों बाद हल्की ठढ का असर ,मौसम में गुनगुनाती धूप मजा दे रही थी , ऐसे में मुझे चाय की तलब महसूस हुई अपने स्टूडियो से निकल कर तिलोकी चाय वाले की दूकान की तरफ नजर दौड़ाया कुछ जाने - पहचाने चेहरे नजर आ रहे थे तलब ने कदम आगे बढा दिए स्टूडियो के बगल में पड़े कांक्रीट के पहाड़ो से गुजर कर आगे बढा देखा साथी दीप नारायन , बृजेश सिंह व वेद उपाध्याय पहले से गल - गौच कर रहे है मेरी नजर दीप पर पड़ी वो अपने होठो को दबाकर हल्की मुस्कान फेंक रहे थे उनके इस तरह मुस्कुराने में उनका अलग अंदाज है रहस्यमयी मुस्कान बहुत कुछ कह जाती है ऐसे में दिल के अन्दर उठ रहे गुबार को वो कभी - कभी छुपा नही पाते है और कह जाते है इसी बीच मगरुवा आ गया शायद उसे भी तलब थी चाय की मैं भी वहा पहुच गया और एक मुद्दे पे चर्चा शुरू ही किया था कि दीप का रहस्मयी मुस्कान बदस्तूर जारी था मैंने ही दीपनारायण को छेड़ दिया दीप गजब की मुस्कान मारते हो तब दीपनारायण बोल पड़े जाए देबा मजा मत ला हमने कहा ऐसी कोई बात नही तब तक मेरी नजर सत्ता के चिथड़ो में लिपटे मगरुवा पर पड़ी उससे कुछ पूछता मैं उससे पहले दीपनारायण का गुबार बाहर निकला और उन्होंने मुझसे कहा उनकी आवाज में जहा दर्द था वही आक्रोश भी झलक रहा था मैंने कहा कि दीप आखिर कहना क्या चाहते हो जो कहना चाहते हो वो बया कर दो वहा खड़े सारे लोगो के बीच ' दीप ने अपनी बाते शुरू की दुष्यंत की इन लाइनों ' कहते हुए कल मिला था नुमाइश में वो चिथड़ा ओढ़े हुए , मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है ' आज दीप का आक्रोश देखने लायक था वो अपनी रौ में बोल पड़े --- समाजवादी दो रँगे बैनर का चिथड़ा , ओढना कहना गलत होगा , लपेटे खड़ा था मगरुवा , दीप ने पूछा मगरुवा से , इसे क्यों लपेट रखा है तुमने ? ------ उसके चहरे पे कोई विषाद नही था , बड़े बेफिक्री से उसने कहा , इसे इसलिए ओढ़ रखा है कि''' साहब लोगो की निगाह पड़ेगी | वाह क्या बात है उसे पता है कि साहब लोगो को ' बदलते मौसम के साथ कौन सा रंग पसंद है | ' दीप आज मुड में थे कुछ कहने को वो मुखातिब हुए बृजेश सिंह की तरफ और बोले भाई इसे दो रँगे का अर्थ पता है , सत्ता के प्रतीक का चिथड़ा इसके काम आया कि नही , यह पूछना बेमानी है | उसकी बातचीत , उसके बारे में हमारी शुरूआती समझ से ज्यादा जटिल थी | दीप उसे देख रहा था और सातवे वेतन आयोग की सिफारिशो के आईने में उसकी तस्वीर बना रहा था , उसने मुझसे कहा कि मेरी सोच बेवकूफाना है शायद इसे किसी की फ़िक्र नही है , एक आदमी उसे छेड़ रहा था , यह काहिल है कुछ करना ही नही चाहता है ,..... वह बोल पडा लोग जाहिल है , जालिम है कुछ करने ही नही देते है --- जाने कितने धर्मो के प्रतीक मगरुवा ने अपने शरीर पर डाल रखे थे , दुनिया भर के लाकेट -- सिक्के -- माला -- चुल्ला चूड़ी और न जाने क्या - क्या |
दीप उसे बिडम्बना व विद्रूप का नगा साक्ष्य बता रहा था उसके साथ बहुत देर तक नही रहा जा सकता था | उसने भाप लिया | हम चलते इससे पहले मगरुवा चाल पडा यह कहते हुए कि सच्चाई गई बन में , सोचा अपने मन में | उसके जाने के बाद दीप ने कहा ' दादा ' सच्चाई के बन गमन की मगरुवा की उदघोषणा मेरी स्मृति में अब भी गूंज रही है ...............

3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (21-11-2015) को "काँटें बिखरे हैं कानन में" (चर्चा-अंक 2168) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....

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