आज पूंजी के हाथ में शिक्षा है ---
कहा से मिलेगा नैतिक मूल्य या सामजिकता ?
भारत जब गुलाम था तब एक आदमी आया लार्ड मैकाले उसने यहाँ के लिए शिक्षा नीति बनाई उसने कहा था चंद लोग लिखे पढ़े बाकि सब मजदुर पर आज के नेता तो पुरे समाज को भ्रष्ट और निकम्मा बना रहे है
( भारतीय जनमानस देख रहा है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली मानवीय एवं सामाजिक मूल्यों को बढ़ाने में असफल साबित होती जा रही है | लेकिन इस तथ्यगत सच्चाई से वर्तमान दौर की शिक्षा को अपने उद्देश्य में असफल होना नही कहा जा सकता है | क्योकि वर्तमान दौर की शिक्षा ने लोगो को सामाजिक व नैतिक रूप से बनाने को अपना उद्देश्य बनाया ही नही है | )
दैनिक जागरण में पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने एक फैसले में शिक्षा की असफलता को लेकर की गयी टिप्पणी को प्रकाशित किया गया है | माननीय कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि '' शिक्षा अपने उद्देश्यों को नही पा स्की है | शिक्षा से लोगो के व्यवहार में सुधार होने के बजाए समाज में परेशानी का वातावरण बधा है | शिक्षित लोगो की संख्या बढने के वावजूद समाज के नैतिक मूल्यों में गिरावट आ रही है | यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है | पहले की तुलना में साक्षरता के स्तर में खासी बढ़ोत्तरी हुई है , लेकिन इससे मानवीय मूल्यों में कोई बढ़ोत्तरी नही हुई है | आज भी हम शिक्षित व्यवहार के प्रारम्भिक स्तर पर ही है | पुराने समय में शिक्षा का स्तर जितना उंचा नही था , लेकिन सामाजिक मूल्यों की अहमियत थी | यह दुर्भाग्य पूर्ण है कि शिक्षा अपने उद्देश्य को पाने में असफल रही है | इसमें तत्काल सुधार लाने की जरूरत है | यह जरूरी हो गया है कि शिक्षा सस्थाए , शिक्षक , सरक्षक छात्र और सम्पूर्ण समाज मिलकर बदलाव लाये | न्यायालय की यह टिप्पणी तो बिलकुल ठीक है कि शिक्षित लोगो की संख्या बढने के साथ नैतिक मूल्यों में भारी गिरावट देखने को मिल रही है लेकिन इसमें सुधार से पहले यह जानना जरूरी है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ? क्या यह वर्तमान शिक्ष प्रणाली की असफलता का द्योतक है ? पूरा समाज देख रहा है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली मानवीय एवं सामाजिक मूल्यों को बढाने में असफल साबित होती जा रही है | लेकिन इस तथ्यगत सच्चाई से वर्तमान दौर की शिक्षा को अपने उद्देश्य में असफल होना नही कहा जा सकता | क्योकि वर्तमान दौर की शिक्षा ने लोगो को सामाजिक व नैतिक रूप से बेहतर बनाने को अपना उद्देश्य बनाया ही नही है और न ही उसके लिए कोई गम्भीरकार्यक्रम हो घोषित किया है | इसके विपरीत आधुनिक बाजार वादी फैलाव के साथ शिक्षा को भी बाजार के उद्देश्य के अनुसार चालाया व बढाया जा रहा है | वर्तमान दौर की शिक्षा प्राप्ति में वाणिज्य व्यापार के चलन के अनुसार उससे होने वाले लाभ का आकलन पहले ही कर लिया जा रहा है | उसमे मिलने वाले ज्ञान या फिर सामाजिकता नैतिकता को किसी आकलन की कोई गुंजाइश नही रह गयी है | शिक्षा देने लेने के लिए व्यापार बाजार की तरह धन पैसा लगाने और फिर उससे निजी कमाई -- धमाई सुख - सुविधा , पद -- प्रतिष्ठा का अवसर पाकर समाज में उपर चढने आदि ही वर्तमान दौर की शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बना हुआ है | शिक्ष्ण संस्थाए इसी उद्देश्य व योजना को अपनाकर लोकोपकारी -- जनहित के संस्थान की जगह निजी लाभकारी उद्यम का दर्जा लेती जा रही है | ओद्योगिक व्यापारिक संस्थानों की तरह आपसी होड़ और दौड़ में लगी है | प्रचार माध्यमो के जरिये बाजार में अपनी साख मजबूत करने में लगी है |
शिक्षा और उसके उद्देश्य के बाजारीकरण का एक ठोस सबूत यह भी है कि केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय वर्षो पहले ही खत्म कर दिया है | उसकी जगह मानव संसाधान एवं विकास मंत्रालय ने ले ली है | जिसका स्पष्ट अर्थ निकलता है कि अब देश की सत्ता सरकारे शिक्षा प्रणाली को मानव संसाधन के विकास के उद्देश्य से संचालित कर रही है | वर्तमान शिक्षा प्रणाली के जरिये विधार्थियों को एक मानव संसाधन के रूप में खड़ा करने व विकसित करने का लक्ष्य बनाई हुई है | राष्ट्र व समाज में अन्य स्रोतों संसाधनों की तरह शिक्षा प्राप्त कर रहे लोगो को शिक्षित दीक्षित करके वे उन्हें एक संसाधन में बदल देने का काम करने लगी है ताकि उनका उपयोग अन्य संसाधनों की तरह कारोबारी लाभ के लिए किया जा सके | सरकार के नियत साफ़ -- साफ़ दिख रही है कि अब देश की सरकार का लक्ष्य शिक्षा के जरिये सामाजिक एवं नैतिक रूप से जिम्मेदार नागरिक का विकास करना नही रह गया है | इसीलिए अगर आधुनिक शिक्षा के जरिये मानवोचित सामाजिक नैतिक व्यवहार करने वाले मनुष्य न निकल रहे हो अथवा उनके सामाजिक नैतिक आचरण में भारी गिरावट आ रही हो तो इसमें कोई आश्चर्य कैसा !वे तो शिक्षित मानव संसाधन मात्र है न कि सामाजिक व नैतिक रूप से शिक्षित व जिम्मेवार मानव | अब चुकी देश के व्यापक संसाधनों का मालिकाना थोड़े से अति धनाढ्य लोगो के ही हाथ में है इसीलिए उन्हें आधुनिक वैज्ञानिक तकनिकी के युग में कारोबारी ढंग से शिक्षित अतिशिक्षित संसाधनों की ही आवश्यकता रह गयी है | बाकी के काम आधुनिक यंत्र व मशीने कर दे रही है | इसीलिए शिक्षित मानवो की बड़ी संख्या का संसाधन बन पाने में असफल रह जाने अर्थात बेरोजगार ओ जाने के प्रक्रिया भी लगातार बढती जा रही है | एकदम व्यापार बाजार में न खप पाने वाले या फिर आउट डेटेड माल सामन की तरह |
सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक
कहा से मिलेगा नैतिक मूल्य या सामजिकता ?
भारत जब गुलाम था तब एक आदमी आया लार्ड मैकाले उसने यहाँ के लिए शिक्षा नीति बनाई उसने कहा था चंद लोग लिखे पढ़े बाकि सब मजदुर पर आज के नेता तो पुरे समाज को भ्रष्ट और निकम्मा बना रहे है
( भारतीय जनमानस देख रहा है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली मानवीय एवं सामाजिक मूल्यों को बढ़ाने में असफल साबित होती जा रही है | लेकिन इस तथ्यगत सच्चाई से वर्तमान दौर की शिक्षा को अपने उद्देश्य में असफल होना नही कहा जा सकता है | क्योकि वर्तमान दौर की शिक्षा ने लोगो को सामाजिक व नैतिक रूप से बनाने को अपना उद्देश्य बनाया ही नही है | )
दैनिक जागरण में पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने एक फैसले में शिक्षा की असफलता को लेकर की गयी टिप्पणी को प्रकाशित किया गया है | माननीय कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि '' शिक्षा अपने उद्देश्यों को नही पा स्की है | शिक्षा से लोगो के व्यवहार में सुधार होने के बजाए समाज में परेशानी का वातावरण बधा है | शिक्षित लोगो की संख्या बढने के वावजूद समाज के नैतिक मूल्यों में गिरावट आ रही है | यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है | पहले की तुलना में साक्षरता के स्तर में खासी बढ़ोत्तरी हुई है , लेकिन इससे मानवीय मूल्यों में कोई बढ़ोत्तरी नही हुई है | आज भी हम शिक्षित व्यवहार के प्रारम्भिक स्तर पर ही है | पुराने समय में शिक्षा का स्तर जितना उंचा नही था , लेकिन सामाजिक मूल्यों की अहमियत थी | यह दुर्भाग्य पूर्ण है कि शिक्षा अपने उद्देश्य को पाने में असफल रही है | इसमें तत्काल सुधार लाने की जरूरत है | यह जरूरी हो गया है कि शिक्षा सस्थाए , शिक्षक , सरक्षक छात्र और सम्पूर्ण समाज मिलकर बदलाव लाये | न्यायालय की यह टिप्पणी तो बिलकुल ठीक है कि शिक्षित लोगो की संख्या बढने के साथ नैतिक मूल्यों में भारी गिरावट देखने को मिल रही है लेकिन इसमें सुधार से पहले यह जानना जरूरी है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ? क्या यह वर्तमान शिक्ष प्रणाली की असफलता का द्योतक है ? पूरा समाज देख रहा है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली मानवीय एवं सामाजिक मूल्यों को बढाने में असफल साबित होती जा रही है | लेकिन इस तथ्यगत सच्चाई से वर्तमान दौर की शिक्षा को अपने उद्देश्य में असफल होना नही कहा जा सकता | क्योकि वर्तमान दौर की शिक्षा ने लोगो को सामाजिक व नैतिक रूप से बेहतर बनाने को अपना उद्देश्य बनाया ही नही है और न ही उसके लिए कोई गम्भीरकार्यक्रम हो घोषित किया है | इसके विपरीत आधुनिक बाजार वादी फैलाव के साथ शिक्षा को भी बाजार के उद्देश्य के अनुसार चालाया व बढाया जा रहा है | वर्तमान दौर की शिक्षा प्राप्ति में वाणिज्य व्यापार के चलन के अनुसार उससे होने वाले लाभ का आकलन पहले ही कर लिया जा रहा है | उसमे मिलने वाले ज्ञान या फिर सामाजिकता नैतिकता को किसी आकलन की कोई गुंजाइश नही रह गयी है | शिक्षा देने लेने के लिए व्यापार बाजार की तरह धन पैसा लगाने और फिर उससे निजी कमाई -- धमाई सुख - सुविधा , पद -- प्रतिष्ठा का अवसर पाकर समाज में उपर चढने आदि ही वर्तमान दौर की शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बना हुआ है | शिक्ष्ण संस्थाए इसी उद्देश्य व योजना को अपनाकर लोकोपकारी -- जनहित के संस्थान की जगह निजी लाभकारी उद्यम का दर्जा लेती जा रही है | ओद्योगिक व्यापारिक संस्थानों की तरह आपसी होड़ और दौड़ में लगी है | प्रचार माध्यमो के जरिये बाजार में अपनी साख मजबूत करने में लगी है |
शिक्षा और उसके उद्देश्य के बाजारीकरण का एक ठोस सबूत यह भी है कि केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय वर्षो पहले ही खत्म कर दिया है | उसकी जगह मानव संसाधान एवं विकास मंत्रालय ने ले ली है | जिसका स्पष्ट अर्थ निकलता है कि अब देश की सत्ता सरकारे शिक्षा प्रणाली को मानव संसाधन के विकास के उद्देश्य से संचालित कर रही है | वर्तमान शिक्षा प्रणाली के जरिये विधार्थियों को एक मानव संसाधन के रूप में खड़ा करने व विकसित करने का लक्ष्य बनाई हुई है | राष्ट्र व समाज में अन्य स्रोतों संसाधनों की तरह शिक्षा प्राप्त कर रहे लोगो को शिक्षित दीक्षित करके वे उन्हें एक संसाधन में बदल देने का काम करने लगी है ताकि उनका उपयोग अन्य संसाधनों की तरह कारोबारी लाभ के लिए किया जा सके | सरकार के नियत साफ़ -- साफ़ दिख रही है कि अब देश की सरकार का लक्ष्य शिक्षा के जरिये सामाजिक एवं नैतिक रूप से जिम्मेदार नागरिक का विकास करना नही रह गया है | इसीलिए अगर आधुनिक शिक्षा के जरिये मानवोचित सामाजिक नैतिक व्यवहार करने वाले मनुष्य न निकल रहे हो अथवा उनके सामाजिक नैतिक आचरण में भारी गिरावट आ रही हो तो इसमें कोई आश्चर्य कैसा !वे तो शिक्षित मानव संसाधन मात्र है न कि सामाजिक व नैतिक रूप से शिक्षित व जिम्मेवार मानव | अब चुकी देश के व्यापक संसाधनों का मालिकाना थोड़े से अति धनाढ्य लोगो के ही हाथ में है इसीलिए उन्हें आधुनिक वैज्ञानिक तकनिकी के युग में कारोबारी ढंग से शिक्षित अतिशिक्षित संसाधनों की ही आवश्यकता रह गयी है | बाकी के काम आधुनिक यंत्र व मशीने कर दे रही है | इसीलिए शिक्षित मानवो की बड़ी संख्या का संसाधन बन पाने में असफल रह जाने अर्थात बेरोजगार ओ जाने के प्रक्रिया भी लगातार बढती जा रही है | एकदम व्यापार बाजार में न खप पाने वाले या फिर आउट डेटेड माल सामन की तरह |
- जहा तक शिक्षित लोगो की संख्या बढने के वावजूद सामाजिक नैतिक मूल्यों में गिरावट की बात है , तो इसका प्रमुख कारण भी यही है | व्यक्तियों को विधार्थी की जगह मानव संसाधन बनाने हेतु दी जा रही वह शिक्षा है जिसे ग्रहण कर व्यक्ति उसे अपनी निजी फायदे के लिए सीधी के रूप में इस्तेमाल करने के रूप में ग्रहण किया हुआ है या ग्रहण कर रहा है | वह उसी सीधी के सहारे समाज को उपेक्षित करके उपर चढने में लगा हुआ है | राष्ट्र के संसाधनों के मालिक धनाढ्य वर्ग व कम्पनिया तथा सरकारे उसे अपनी सेवा में लगाकर समाज से उसकी समस्याओं से आँख मुड़कर तथा अलग रहकर मानव संसाधन के रूप में किसी सेवा तक ही सीमित रहने की सिख व हिदायत देती है | इसलिए मानव संसाधन के रूप में खपकर उच्च व औसत दर्जे का शिक्षित व्यक्ति ससाधन के मालिको की तरह ही भ्रष्ट भी होता जा रहा है | सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों से हिन् भ्रष्टाचारी व महा भ्रष्टाचारी मानव बनता जा रहा है | इसलिए अनपढ़ अशिक्षित या कम शिक्षित तथा बेहतर कमाई करने में विफल लोग सामाजिक एवं नैतिक दृष्टि से कही ज्यादा बेहतर नजर आते है | इसलिए वर्तमान दौर की शिक्षा के फैलाव के वावजूद शिक्षित व्यक्तियों में तथा समाज के नैतिक मूल्यों में गिरावट पर आश्चर्य करने की कही कोई गुंजाइश नही है | कम से कम किसी प्रोढ़ अनुभवी शिक्षित या उच्च शिक्षित व्यक्ति के लिए तो कदापि नही है | क्योकि वह स्वंय अपने अनुभव से ज्ञान से खुद की मिली और मिलती रही शिक्षा तथा उससे अपने भीतर आते रहे बदलावों को बखूबी समझ सकता है | अत: यह समझना कत्तई मुश्किल नही है कि भूमण्डलीकरण की वर्तमान दौर के शिक्षा का न कोई सामाजिक नैतिक उद्देश्य है और न ही हो सकता है | न ही वह समाज के ज्यादातर लोगो की जिविकोपार्जन का जरिया बन सकता है | और न ही वह समाज राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार और सामाजिक नैतिक रूप से बेहतर मानव का निर्माण कर सकता है | यह तभी संभव हो पायेगा जब संसाधनों के मालिको का सेवक बनने की
शिक्षा की जगह उसे समाज के स्वतंत्र चिन्तक सेवक के रूप में उसको शिक्षित दीक्षित किया जाय | लेकिन यह काम देश दुनिया के संसाधनों के धनाढ्य मालिको और उच्च स्तरीय राजनितिक व गैर राजनितिक वर्गो पर अंकुश लगाये बिना तथा उनके स्वार्थी हितो के अनुसार लायी जा रही कारोबारी शिक्षा प्रणाली पर अंकुश लगाये बिना नही हो पायेगा |
सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक
No comments:
Post a Comment