23= 11 = 2014
स्वतंत्रता के अजेय '' सेनापति '' पांडुरंग महादेव बापट
( अब गप्प मारने के दिन खत्म हो गये है क्रान्ति के दिन आ गये है | )
बहुमुखी आन्दोलन के सेनापति , पांडुरंग महादेव बापट शिक्षक थे , सामाजिक कार्यकर्ता थे और सबसे बढ़कर वे ब्रिटिश विरोधी राष्ट्रवाद -- स्वतंत्रता के सेनापति थे | वे राष्ट्र स्वतंत्रता हेतु सशस्त्र संघर्ष से लेकर अहिंसक आन्दोलन में लगातार सेनानी और सेनापति थे | साथ ही सामाजिक सुधार से लेकर समाज के विभिन्न हिस्सों के न्यायोचित मांगो के साथ खड़े होकर उनका नेतृत्व करने वालो नेता व कार्यकर्ता भी थे | वस्तुत: उनके इन्ही गुणों के कारण उन्हें समाज से सेनापति की उपाधि मिली थी | वैसे उन्हें यह उपाधि 1922 में जनहित में मोलसी में निर्माणाधीन बाँध परियोजना के विरोध और उसके नेतृत्व के लिए मिला था | बहुमुखी प्रतिभा बहुमुखी नेतृत्व क्षमता और असीमित ऊर्जा से भरपूर पांडुरंग बापट 1947 की स्वतंत्रता के बाद भी जीवित रहे | लेकिन वे स्वतंत्रता आन्दोलन के अन्य तमाम लीडरो की तरह 1947 के बाद भी पद -- प्रतिष्ठा के पीछे एकदम नही गये | उनकी जगह राष्ट्र सेवा जन सेवा तथा राष्ट्र की सामाजिक एकता के लक्ष्य को लेकर आजीवन संघर्ष करते रहे | सेनापति पांडुरंग महादेव बापट ने राष्ट्र व समाज को दिया बहुत कुछ और लिया कुछ भी नही | अपना समस्त जीवन राष्ट्र के लिए होम कर दिया | इसीलिए वे हमारे लिए आदरणीय व स्मरणीय है | सेनापति पांडुरंग के बारे में प्रचलित है कि एक तरफ वे अगर वे शिवाजी , रामदास और तुकाराम के प्रतिनिधि थे तो दूसरी तरफ वे लोकमान्य तिलक सावरकर गांधी और सुभाष के भी प्रतिनिधि थे | बहुमुखी प्रतिभा के धनी सेनापति पांडुरंग का जन्म महाराष्ट्र में नगर जिले के पारनेर ताल्लुके में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में 12 नवम्बर 1880 को हुआ था | पिता का नाम महादेव और माँ का नाम गंगा बाई था | पारनेर में प्राथमिक शिक्षा के बाद 12 वर्ष के उम्र में वे पूना के न्यू इंग्लिश हहाई स्कुल में दाखिल हुए | वह योग्य शिक्षको के सानिध्य में इनकी बौद्धिक प्रतिभा का निखार हुआ | पढाई के दौरान ही पूना में प्लेग का प्रकोप फ़ैल गया | पांडुरंग को स्कुल छोड़कर पारनेर वापस आना पडा | बाद में अहमदाबाद रहकर हाईस्कूल की परीक्षा दी | परीक्षा में उच्च अंको से पास होने के कारण उन्हें छात्रवृति भी मिली | 1900 में उन्हें पुणे डेक्कन कालेज में दाखिला मिल गया | शिक्षा के साथ वे नौकायन टेनिस कविता नाटक के क्षेत्र में भी बढचढ कर हिस्सा लेते | बी ए करके वे बम्बई आ गये | एक स्कुल में अंशकालिक नौकरी करते हुए आगे की पढाई में जुट गये | इसी वक्त उन्हें विदेश जाने के लिए मंगलदास नाथुभाई की छात्रवृति मिल गयी | वे स्काटलैंड पहुचकर एडिनबरा शहर में मेकेनिकल इंजीनियरिग पढने लगे | साथ ही क्वीन्स रायफल क्लब में निशाने बाजी भी सिखने लगे | यही उन्हें '' ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन भारत की परिस्थिति पर बोलने का एक अवसर मिला | प्रवासी क्रांतिकारी श्याम जी कृष्ण वर्मा की सहायता से उन्होंने इसके लिए पूरी तैयारी की | उन्होंने शेफर्ड सभागार में '' ब्रिटिश रुल इन इंडिया '' विषय पर लिखे अपने निबन्ध को गंम्भीर एवं ओजस्वी ढंग से प्रस्तुत किया | बाद में वह निबन्ध के रूप में प्रकाशित भी किया गया | लेकिन उसके प्रकाशन के तुरंत बाद निबन्ध में पांडुरंग द्वारा ब्रिटिश सत्ता के कड़ी आलोचना व विरोध को लेकर उनकी छात्रवृति समाप्त कर दी गयी | फलस्वरूप उन्हें लन्दन के ' इंडिया हाउस ' में आना पडा | यहाँ उनकी भेट विनायक दामोदर सावरकर से हुई | आपसी सलाह से वे बम बनाने का हुनर सिखने के लिए पेरिस चले गये | इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ दी | 1906 में दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में होने वाले काग्रेस अधिवेशन के लिए उन्होंने ' कांग्रेस को क्या करना चाहिए " शीर्षक से एक गंम्भीर और सुझावपूर्ण लेख अधिवेशन के अध्यक्ष के पास प्रेषित किया था | इसमें उन्होंने मुख्यत: कांग्रेस को राष्ट्र -- स्वतंत्रता को उद्देश्य बनाकर रणनीतिया तय करने का सुझाव रखा था |
1908 में वे श्यामजी कृष्ण वर्मा और सावरकर की सलाह पर हिन्दुस्तान लौट आये | पहले वे कलकत्ता गये | कलकता से उनके लिए बुलावा भी आया था | खासकर बम बनाने के लिए सलाह व मशविरे देने के लिए उन्हें वहा बुलाया गया था | यह काम वहा के क्रान्तिकारियो की फौजी शाखा कर रही थी | क्रान्तिकारियो की दूसरी शाखा प्रचार कार्य में जुटी हुई थी | उसका काम समाचार पत्र निकालना और क्रान्तिकारियो के कतार में नई भर्तिया करना था | पांडुरंग अपना कार्य करके शीघ्र ही पारनेर वापस लौट आये | लेकिन दो महीने के अन्दर ही कलकता के क्रांतिकारी दल का सदस्य नरेंद्र गोस्वामी पकड़ा गया और वह पुलिस का मुखबिर बन गया | उसने सभी का नाम बता दिया | उसमे बापट का नाम भी था | सुचना मिलते ही बापट भूमिगत हो गये | और लगभग साढ़े चार वर्ष तक अज्ञात वास में रहे | इस बीच वे पुणे मगर भुसावल औरंगाबाद , बडवानी धार देवास इंदौर उज्जैन मथुरा वृन्दावन काशी घूमते हुए पुलिस को चकमा देते रहे | लेकिन काशी से पुन: इंदौर आते ही वे पुलिस के गिरफ्त में आ गये | लेकिन तब तक उनके व अन्य क्रान्तिकारियो के विरुद्ध मुखबिर बने नरेंद्र गोस्वामी को क्रान्तिकारियो ने मार दिया था | अत: साक्ष्य के आभाव में बापट को भी मुक्त कर दिया गया | इस बीच बीमार पड़ जाने के कारण वे अपने गृह क्षेत्र पारनेर वापस लौट आये |
पारनेर में उन्होंने समाज सुधार का काम शुरू किया | वह नालिया साफ़ करने महारो ( दलित जाति ) के बच्चो को पढाने तथा लोगो में गीता व ज्ञानेश्वरी पर प्रवचन देने का काम करने लगे | 1914 में पुत्र की प्राप्ति पर उन्होंने लोगो को भोज दिया | भोज में दलितों की पंगत पहले बैठाई और ब्राह्मणों की पंगत बाद में | समाज सुधार के इन कामो का विरोध भी उन्हें लगभग हमेशा ही झेलना पडा | अप्रैल 1915 में वे पूना आगये | पहले उम्होने ' चित्रमय जगत ' नाम से समाचार पत्र में काम किया | 5 - 6 माह बाद तिलक के पत्र ' मराठा ' में काम करने लगे | पुणे में भी नालियों की सफाई और सामाजिक सुधार का काम जारी रखे | 1916 में बीजापुर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में बापट प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार द्वारा नागरिक अधिकारों की कटौतियो के विरोध में काउन्सिल व् नगर पालिका के सदस्यों को अपने पदों से इस्तीफा दे देने का प्रस्ताव किया | साथ ही सरकार को युद्ध का खर्चा न देने तथा सैनिको की भर्ती में ब्रिटिश हुकूमत की सहायता न करने का भी प्रस्ताव किया | उनके इस प्रस्ताव का वह की आम जनता में भारी समर्थन मिला | हालाकि उनका प्रस्ताव संचालक कमेटी द्वारा नामंजूर कर दिया गया | बाद में बापट ने ' मराठा ' पत्र छोड़कर ' लोक संग्रह ' नाम के दैनिक समाचार पत्र में विदेशी राजनीति पर लेख लिखने का कार्य आरम्भ किया | साथ ही वे ज्ञान कोष कार्यालय में काम करते रहे तथा महाविद्यालय के विद्यार्थियों के लिए ट्यूशन कक्षाए भी चलाने लगे | इसी के साथ वे 1920 में बाम्बे में चल रही मेहतरो की हडताल में सक्रिय रूप से भागीदारी भी निभाते रहे | उनका मार्ग दर्शन करते रहे | समाचार पत्रों ने इस हडताल को कोई महत्व नही दिया | बापट ने ' सन्देश ' समाचार पत्र द्वारा इसे प्रमुखता देकर झाड़ू -- कामगार मित्र मंडल की स्थापना की | हडताल के लिए धन इकठ्ठा किया | हडतालियों और उनके परिवार वालो के लिए घर -- घर जाकर रोटिया एकत्रित करने का काम भी करते रहे | अंतत: यह हड़ताल सफल हुई | श्रमिको के सफल नेतृत्व का यह उनके जीवन का प्रथम अनुभव था |
तत्पश्चात बापट ने गोखले की अध्यक्षता में पुणे राजबंदी मुक्ता मंडल स्थापित किया और उसके कार्यवाहक बने | इस मंडल का मुख कार्य अंडमान में काले पानी की नारकीय सजा भोग रहे कैदियों को छुडवाने का प्रयास करना था | विनायक दामोदर सावरकर इस प्रयास में पहले से ही लगे थे | राज बन्दियो को छुडवाने के लिए बापट ने अथक प्रयास किये | घर - घर घूमकर गले में पट्टी लगाकर और समाचार पत्रों के जरिये आह्वान कर लोगो को जागृत करने का काम शुरू किया | समर्थन में लोगो का हस्ताक्षर लेने की मुहीम शुरू की | इसी के साथ वे मुलसी के सत्याग्रह आन्दोलन से भी जुड़ गये और उनके अगुवा लीडर बन गये | महाराष्ट्र के सहयात्री पर्वत की विभिन्न चोटियों पर टाटा कम्पनी ने 20 से 22 की संख्या में बाँध बनाने की योजना तैयार की थी | इसमें से एक बाँध मुलसी के निकट मुला व नीला नदियों के संगम पर बाधा जाना था | मुलसी बाँध के काम में 54 गाँव को वह से उजड़ जाना था | बाँध परियोजना का यह काम ब्रिटिश सरकार के सहमती व समर्थन से देश की टाटा कम्पनी द्वारा किया जा रहा था | उसके विरुद्ध आन्दोलन पहले से ही चल रहा था लेकिन उसके सारे नेताओं को पहले ही गिरफ्तार किया जा चुका था | अब बापट के नेतृत्व में 1 मई 1922 को सत्याग्रह आन्दोलन पुन: शुरू किया गया | कुछ ही दिनों बाद उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया और 6 माह के लिए यरवदा जेल भेज दिया गया |जब वे छूटे तो आन्दोलन ठंठा पड़ चुका था | इन विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने आन्दोलन को पुन: शुरू किया | इसके लिए उन्होंने पूरे क्षेत्र में दौरा किया | वे जगह -- जगह लोगो को जागृत करने मुलसी बाँध के विरोध में अत्यंत प्रभावपूर्ण ढंग से बताते हुए अपनी कविताओं का पाठ भी करते | अपने भाषणों में वे यह बात भी जरुर कहते कि अब गप्प मारने के दिन खत्म हो गये है बम मारने के दिन आ गये है | पुलिस फिर उनके पीछे लगी और उन्हें एक वर्ष के लिए जेल में डाल दिया गया | जेल से छूटने के बाद उन्होंने अपने व्यक्तिगत प्रयास से आन्दोलन तेज करने का निर्णय लिया |
उन्हें इसके लिए सहयोगी भी मिल गये | बाँध के विरोध में उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ रेल रोकने के लिए लाइन पर पत्थर डालकर और स्वंय हथियार से लैस होकर रेलवे लाइन पर एक अडिग सेनापति के रूप में खड़े हो गये | संभवत: तभी से उन्हें आम जनता सेनापति कहने लगी | लेकिन इस विरोध के बाद उन्हें पुन: गिरफ्तार कर लिया गया , और इस बार 7 वर्ष के लिए सिंध प्रांत के हैदराबाद जेल में डाल दिया गया | जेल से रिहा होने के बाद 28 जून 1931 को वे महाराष्ट्र प्रांतीय काग्रेस समिति के अध्यक्ष चुने गये | विदेशी बहिष्कार आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर भागीदारी निभाया | ब्रिटिश राज्य के विरोध में जनता को आंदोलित करने में लगे रहे | उनके भाषणों को राज्य विरोधी तथा भडकाऊ मानकर उन्हें पुन: गिरफ्तार कर लिया गया | इस बार उन्हें 10 वर्ष की सजा सुने गयी 7 वर्ष काले पानी और 3 वर्ष तक दूसरे जेल में कैद रहने की सजा दी गयी | पहले उन्हें रत्नागिरी के केन्द्रीय जेल भेजा गया | जेल में बी वे साफ़ सफाई के काम में लग गये | साथ ही संस्कृत हिंदी मराठी में कविताओं की रचना में लगे रहते | गांधी जी के अनशन के समर्थन में उन्होंने जेल में अनशन शुरू कर दिया | तबियत बहुत खराब हो जाने के बाद उन्हें 23 जुलाई 1937 को रिहाकर दिया गया |
ठीक होने के बाद वे गांधी जी से मिलने सेवाग्राम गये वहा से लौटकर उन्होंने भारतीय प्राणयज्ञ दल बनाने में जुट गये | इस दल ने यह तय किया हुआ था कि स्वतंत्रत भारत का सविधान बनाकर उसे ब्रिटिश शासको को भेजने के साथ एक साथ लोग सार्वजनिक स्थल पर मृत्यु का आलिगन करे | ताकि ब्रिटिश हुकूमत पर उस सविधान को स्वीकारते हुए देश को स्वतंत्रत करने का दबाव पड़े | इसके लिए उन्होंने प्रतिज्ञा पत्र तैयार किया | उस प्रतिज्ञा पत्र पर 21 आदमियों ने हस्ताक्षर भी किया | प्राणयज्ञ के लिए निश्चित समय से पूर्व ही पुलिस को इसकी खबर लग गयी और उसने बापट को गिरफ्तार कर लिया | हालाकि इस बार उन्हें जल्दी ही छोड़ दिया गया | इसी बीच गांधी जी के असहयोग के चलते काग्रेस के चुने हुए अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस को अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पडा | बापट ने सुभाष बोस को सही माना और उनकी पार्टी फारवर्ड ब्लाक के साथ हो गये | उन्हें फारवर्ड ब्लाक की महाराष्ट्र शाखा का अध्यक्ष बनाया | अध्यक्ष पद से उन्होंने जगह -- जगह द्दितीय विश्व युद्ध में भारत को शामिल किये जाने का विरोध किया | फारवर्ड ब्लाक के मंच से उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरोध में अपने बयानों भाषणों का क्रम जारी रखा | कोल्हापुर रियासत में उन्हें धारा 144 के विरुद्ध बंदी बना लिया गया | लेकिन उन्हें ब्राड लाकर छोड़ भी दिया गया | इसी तरह उन्हें कई जगहों से बंदी बनाकर दूसरी जगहों पर छोड़ा जाता रहा | सबसे बाद में बाम्बे चौपाटी में भाषण देते हुए उन्हें गिरफ्तार करके नासिक जेल में राजद्रोह के आरोप में बंद कर दिया गया | जेल से छूटने के बाद नागपुर में सेनापति बापट की अध्यक्षता में ब्रिटिश राज विरोधी विद्यार्थी परिषद की सभा हुई | वहा उन्होंने पुन: इस युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य और भारत में उसके राज्य का विरोध किया | अमरावती की ऐसी एक सभा में भाषण से पहले ही पुन: गिरफ्तार कर लिया गया | एक वर्ष की सजा सुने गयी | 1946 में जेल से छूटने के बाद अपने जन्म स्थान पारनेर पहुचे | उस समय वहा दुर्भिक्ष की घनघोर छाया पसरी हुई थी बापट लोगो की सहायता में जुट गये स्वंय मजदूरी करने के साथ -- साथ अशक्त लोगो के लिए रोटिया जमा करने तथा सहायक निधि एकत्रित करने में कम में जुट गये | 15 अगस्त 1947 के दिन पुणे शहर में तिरंगा फहराने का गौरव सेनापति बापट को मिला | लेकिन उसके बाद बापट कोई पद -- प्रतिष्ठा को लेने की जगह राष्ट्र सेवा -- जनसेवा के कार्य में पुन: लग गये | बाद के दौर में उन्होंने गोवा मुक्ति आन्दोलन में हिस्सा लिया | अतत: शरीर कमजोर होते गये अथक सेनानी व सेनापति बापट का 28 नवम्बर 1967के दिन देहांत हो गया |
सुनील दत्ता ----- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक
स्वतंत्रता के अजेय '' सेनापति '' पांडुरंग महादेव बापट
( अब गप्प मारने के दिन खत्म हो गये है क्रान्ति के दिन आ गये है | )
बहुमुखी आन्दोलन के सेनापति , पांडुरंग महादेव बापट शिक्षक थे , सामाजिक कार्यकर्ता थे और सबसे बढ़कर वे ब्रिटिश विरोधी राष्ट्रवाद -- स्वतंत्रता के सेनापति थे | वे राष्ट्र स्वतंत्रता हेतु सशस्त्र संघर्ष से लेकर अहिंसक आन्दोलन में लगातार सेनानी और सेनापति थे | साथ ही सामाजिक सुधार से लेकर समाज के विभिन्न हिस्सों के न्यायोचित मांगो के साथ खड़े होकर उनका नेतृत्व करने वालो नेता व कार्यकर्ता भी थे | वस्तुत: उनके इन्ही गुणों के कारण उन्हें समाज से सेनापति की उपाधि मिली थी | वैसे उन्हें यह उपाधि 1922 में जनहित में मोलसी में निर्माणाधीन बाँध परियोजना के विरोध और उसके नेतृत्व के लिए मिला था | बहुमुखी प्रतिभा बहुमुखी नेतृत्व क्षमता और असीमित ऊर्जा से भरपूर पांडुरंग बापट 1947 की स्वतंत्रता के बाद भी जीवित रहे | लेकिन वे स्वतंत्रता आन्दोलन के अन्य तमाम लीडरो की तरह 1947 के बाद भी पद -- प्रतिष्ठा के पीछे एकदम नही गये | उनकी जगह राष्ट्र सेवा जन सेवा तथा राष्ट्र की सामाजिक एकता के लक्ष्य को लेकर आजीवन संघर्ष करते रहे | सेनापति पांडुरंग महादेव बापट ने राष्ट्र व समाज को दिया बहुत कुछ और लिया कुछ भी नही | अपना समस्त जीवन राष्ट्र के लिए होम कर दिया | इसीलिए वे हमारे लिए आदरणीय व स्मरणीय है | सेनापति पांडुरंग के बारे में प्रचलित है कि एक तरफ वे अगर वे शिवाजी , रामदास और तुकाराम के प्रतिनिधि थे तो दूसरी तरफ वे लोकमान्य तिलक सावरकर गांधी और सुभाष के भी प्रतिनिधि थे | बहुमुखी प्रतिभा के धनी सेनापति पांडुरंग का जन्म महाराष्ट्र में नगर जिले के पारनेर ताल्लुके में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में 12 नवम्बर 1880 को हुआ था | पिता का नाम महादेव और माँ का नाम गंगा बाई था | पारनेर में प्राथमिक शिक्षा के बाद 12 वर्ष के उम्र में वे पूना के न्यू इंग्लिश हहाई स्कुल में दाखिल हुए | वह योग्य शिक्षको के सानिध्य में इनकी बौद्धिक प्रतिभा का निखार हुआ | पढाई के दौरान ही पूना में प्लेग का प्रकोप फ़ैल गया | पांडुरंग को स्कुल छोड़कर पारनेर वापस आना पडा | बाद में अहमदाबाद रहकर हाईस्कूल की परीक्षा दी | परीक्षा में उच्च अंको से पास होने के कारण उन्हें छात्रवृति भी मिली | 1900 में उन्हें पुणे डेक्कन कालेज में दाखिला मिल गया | शिक्षा के साथ वे नौकायन टेनिस कविता नाटक के क्षेत्र में भी बढचढ कर हिस्सा लेते | बी ए करके वे बम्बई आ गये | एक स्कुल में अंशकालिक नौकरी करते हुए आगे की पढाई में जुट गये | इसी वक्त उन्हें विदेश जाने के लिए मंगलदास नाथुभाई की छात्रवृति मिल गयी | वे स्काटलैंड पहुचकर एडिनबरा शहर में मेकेनिकल इंजीनियरिग पढने लगे | साथ ही क्वीन्स रायफल क्लब में निशाने बाजी भी सिखने लगे | यही उन्हें '' ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन भारत की परिस्थिति पर बोलने का एक अवसर मिला | प्रवासी क्रांतिकारी श्याम जी कृष्ण वर्मा की सहायता से उन्होंने इसके लिए पूरी तैयारी की | उन्होंने शेफर्ड सभागार में '' ब्रिटिश रुल इन इंडिया '' विषय पर लिखे अपने निबन्ध को गंम्भीर एवं ओजस्वी ढंग से प्रस्तुत किया | बाद में वह निबन्ध के रूप में प्रकाशित भी किया गया | लेकिन उसके प्रकाशन के तुरंत बाद निबन्ध में पांडुरंग द्वारा ब्रिटिश सत्ता के कड़ी आलोचना व विरोध को लेकर उनकी छात्रवृति समाप्त कर दी गयी | फलस्वरूप उन्हें लन्दन के ' इंडिया हाउस ' में आना पडा | यहाँ उनकी भेट विनायक दामोदर सावरकर से हुई | आपसी सलाह से वे बम बनाने का हुनर सिखने के लिए पेरिस चले गये | इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ दी | 1906 में दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में होने वाले काग्रेस अधिवेशन के लिए उन्होंने ' कांग्रेस को क्या करना चाहिए " शीर्षक से एक गंम्भीर और सुझावपूर्ण लेख अधिवेशन के अध्यक्ष के पास प्रेषित किया था | इसमें उन्होंने मुख्यत: कांग्रेस को राष्ट्र -- स्वतंत्रता को उद्देश्य बनाकर रणनीतिया तय करने का सुझाव रखा था |
1908 में वे श्यामजी कृष्ण वर्मा और सावरकर की सलाह पर हिन्दुस्तान लौट आये | पहले वे कलकत्ता गये | कलकता से उनके लिए बुलावा भी आया था | खासकर बम बनाने के लिए सलाह व मशविरे देने के लिए उन्हें वहा बुलाया गया था | यह काम वहा के क्रान्तिकारियो की फौजी शाखा कर रही थी | क्रान्तिकारियो की दूसरी शाखा प्रचार कार्य में जुटी हुई थी | उसका काम समाचार पत्र निकालना और क्रान्तिकारियो के कतार में नई भर्तिया करना था | पांडुरंग अपना कार्य करके शीघ्र ही पारनेर वापस लौट आये | लेकिन दो महीने के अन्दर ही कलकता के क्रांतिकारी दल का सदस्य नरेंद्र गोस्वामी पकड़ा गया और वह पुलिस का मुखबिर बन गया | उसने सभी का नाम बता दिया | उसमे बापट का नाम भी था | सुचना मिलते ही बापट भूमिगत हो गये | और लगभग साढ़े चार वर्ष तक अज्ञात वास में रहे | इस बीच वे पुणे मगर भुसावल औरंगाबाद , बडवानी धार देवास इंदौर उज्जैन मथुरा वृन्दावन काशी घूमते हुए पुलिस को चकमा देते रहे | लेकिन काशी से पुन: इंदौर आते ही वे पुलिस के गिरफ्त में आ गये | लेकिन तब तक उनके व अन्य क्रान्तिकारियो के विरुद्ध मुखबिर बने नरेंद्र गोस्वामी को क्रान्तिकारियो ने मार दिया था | अत: साक्ष्य के आभाव में बापट को भी मुक्त कर दिया गया | इस बीच बीमार पड़ जाने के कारण वे अपने गृह क्षेत्र पारनेर वापस लौट आये |
पारनेर में उन्होंने समाज सुधार का काम शुरू किया | वह नालिया साफ़ करने महारो ( दलित जाति ) के बच्चो को पढाने तथा लोगो में गीता व ज्ञानेश्वरी पर प्रवचन देने का काम करने लगे | 1914 में पुत्र की प्राप्ति पर उन्होंने लोगो को भोज दिया | भोज में दलितों की पंगत पहले बैठाई और ब्राह्मणों की पंगत बाद में | समाज सुधार के इन कामो का विरोध भी उन्हें लगभग हमेशा ही झेलना पडा | अप्रैल 1915 में वे पूना आगये | पहले उम्होने ' चित्रमय जगत ' नाम से समाचार पत्र में काम किया | 5 - 6 माह बाद तिलक के पत्र ' मराठा ' में काम करने लगे | पुणे में भी नालियों की सफाई और सामाजिक सुधार का काम जारी रखे | 1916 में बीजापुर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में बापट प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार द्वारा नागरिक अधिकारों की कटौतियो के विरोध में काउन्सिल व् नगर पालिका के सदस्यों को अपने पदों से इस्तीफा दे देने का प्रस्ताव किया | साथ ही सरकार को युद्ध का खर्चा न देने तथा सैनिको की भर्ती में ब्रिटिश हुकूमत की सहायता न करने का भी प्रस्ताव किया | उनके इस प्रस्ताव का वह की आम जनता में भारी समर्थन मिला | हालाकि उनका प्रस्ताव संचालक कमेटी द्वारा नामंजूर कर दिया गया | बाद में बापट ने ' मराठा ' पत्र छोड़कर ' लोक संग्रह ' नाम के दैनिक समाचार पत्र में विदेशी राजनीति पर लेख लिखने का कार्य आरम्भ किया | साथ ही वे ज्ञान कोष कार्यालय में काम करते रहे तथा महाविद्यालय के विद्यार्थियों के लिए ट्यूशन कक्षाए भी चलाने लगे | इसी के साथ वे 1920 में बाम्बे में चल रही मेहतरो की हडताल में सक्रिय रूप से भागीदारी भी निभाते रहे | उनका मार्ग दर्शन करते रहे | समाचार पत्रों ने इस हडताल को कोई महत्व नही दिया | बापट ने ' सन्देश ' समाचार पत्र द्वारा इसे प्रमुखता देकर झाड़ू -- कामगार मित्र मंडल की स्थापना की | हडताल के लिए धन इकठ्ठा किया | हडतालियों और उनके परिवार वालो के लिए घर -- घर जाकर रोटिया एकत्रित करने का काम भी करते रहे | अंतत: यह हड़ताल सफल हुई | श्रमिको के सफल नेतृत्व का यह उनके जीवन का प्रथम अनुभव था |
तत्पश्चात बापट ने गोखले की अध्यक्षता में पुणे राजबंदी मुक्ता मंडल स्थापित किया और उसके कार्यवाहक बने | इस मंडल का मुख कार्य अंडमान में काले पानी की नारकीय सजा भोग रहे कैदियों को छुडवाने का प्रयास करना था | विनायक दामोदर सावरकर इस प्रयास में पहले से ही लगे थे | राज बन्दियो को छुडवाने के लिए बापट ने अथक प्रयास किये | घर - घर घूमकर गले में पट्टी लगाकर और समाचार पत्रों के जरिये आह्वान कर लोगो को जागृत करने का काम शुरू किया | समर्थन में लोगो का हस्ताक्षर लेने की मुहीम शुरू की | इसी के साथ वे मुलसी के सत्याग्रह आन्दोलन से भी जुड़ गये और उनके अगुवा लीडर बन गये | महाराष्ट्र के सहयात्री पर्वत की विभिन्न चोटियों पर टाटा कम्पनी ने 20 से 22 की संख्या में बाँध बनाने की योजना तैयार की थी | इसमें से एक बाँध मुलसी के निकट मुला व नीला नदियों के संगम पर बाधा जाना था | मुलसी बाँध के काम में 54 गाँव को वह से उजड़ जाना था | बाँध परियोजना का यह काम ब्रिटिश सरकार के सहमती व समर्थन से देश की टाटा कम्पनी द्वारा किया जा रहा था | उसके विरुद्ध आन्दोलन पहले से ही चल रहा था लेकिन उसके सारे नेताओं को पहले ही गिरफ्तार किया जा चुका था | अब बापट के नेतृत्व में 1 मई 1922 को सत्याग्रह आन्दोलन पुन: शुरू किया गया | कुछ ही दिनों बाद उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया और 6 माह के लिए यरवदा जेल भेज दिया गया |जब वे छूटे तो आन्दोलन ठंठा पड़ चुका था | इन विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने आन्दोलन को पुन: शुरू किया | इसके लिए उन्होंने पूरे क्षेत्र में दौरा किया | वे जगह -- जगह लोगो को जागृत करने मुलसी बाँध के विरोध में अत्यंत प्रभावपूर्ण ढंग से बताते हुए अपनी कविताओं का पाठ भी करते | अपने भाषणों में वे यह बात भी जरुर कहते कि अब गप्प मारने के दिन खत्म हो गये है बम मारने के दिन आ गये है | पुलिस फिर उनके पीछे लगी और उन्हें एक वर्ष के लिए जेल में डाल दिया गया | जेल से छूटने के बाद उन्होंने अपने व्यक्तिगत प्रयास से आन्दोलन तेज करने का निर्णय लिया |
उन्हें इसके लिए सहयोगी भी मिल गये | बाँध के विरोध में उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ रेल रोकने के लिए लाइन पर पत्थर डालकर और स्वंय हथियार से लैस होकर रेलवे लाइन पर एक अडिग सेनापति के रूप में खड़े हो गये | संभवत: तभी से उन्हें आम जनता सेनापति कहने लगी | लेकिन इस विरोध के बाद उन्हें पुन: गिरफ्तार कर लिया गया , और इस बार 7 वर्ष के लिए सिंध प्रांत के हैदराबाद जेल में डाल दिया गया | जेल से रिहा होने के बाद 28 जून 1931 को वे महाराष्ट्र प्रांतीय काग्रेस समिति के अध्यक्ष चुने गये | विदेशी बहिष्कार आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर भागीदारी निभाया | ब्रिटिश राज्य के विरोध में जनता को आंदोलित करने में लगे रहे | उनके भाषणों को राज्य विरोधी तथा भडकाऊ मानकर उन्हें पुन: गिरफ्तार कर लिया गया | इस बार उन्हें 10 वर्ष की सजा सुने गयी 7 वर्ष काले पानी और 3 वर्ष तक दूसरे जेल में कैद रहने की सजा दी गयी | पहले उन्हें रत्नागिरी के केन्द्रीय जेल भेजा गया | जेल में बी वे साफ़ सफाई के काम में लग गये | साथ ही संस्कृत हिंदी मराठी में कविताओं की रचना में लगे रहते | गांधी जी के अनशन के समर्थन में उन्होंने जेल में अनशन शुरू कर दिया | तबियत बहुत खराब हो जाने के बाद उन्हें 23 जुलाई 1937 को रिहाकर दिया गया |
ठीक होने के बाद वे गांधी जी से मिलने सेवाग्राम गये वहा से लौटकर उन्होंने भारतीय प्राणयज्ञ दल बनाने में जुट गये | इस दल ने यह तय किया हुआ था कि स्वतंत्रत भारत का सविधान बनाकर उसे ब्रिटिश शासको को भेजने के साथ एक साथ लोग सार्वजनिक स्थल पर मृत्यु का आलिगन करे | ताकि ब्रिटिश हुकूमत पर उस सविधान को स्वीकारते हुए देश को स्वतंत्रत करने का दबाव पड़े | इसके लिए उन्होंने प्रतिज्ञा पत्र तैयार किया | उस प्रतिज्ञा पत्र पर 21 आदमियों ने हस्ताक्षर भी किया | प्राणयज्ञ के लिए निश्चित समय से पूर्व ही पुलिस को इसकी खबर लग गयी और उसने बापट को गिरफ्तार कर लिया | हालाकि इस बार उन्हें जल्दी ही छोड़ दिया गया | इसी बीच गांधी जी के असहयोग के चलते काग्रेस के चुने हुए अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस को अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पडा | बापट ने सुभाष बोस को सही माना और उनकी पार्टी फारवर्ड ब्लाक के साथ हो गये | उन्हें फारवर्ड ब्लाक की महाराष्ट्र शाखा का अध्यक्ष बनाया | अध्यक्ष पद से उन्होंने जगह -- जगह द्दितीय विश्व युद्ध में भारत को शामिल किये जाने का विरोध किया | फारवर्ड ब्लाक के मंच से उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरोध में अपने बयानों भाषणों का क्रम जारी रखा | कोल्हापुर रियासत में उन्हें धारा 144 के विरुद्ध बंदी बना लिया गया | लेकिन उन्हें ब्राड लाकर छोड़ भी दिया गया | इसी तरह उन्हें कई जगहों से बंदी बनाकर दूसरी जगहों पर छोड़ा जाता रहा | सबसे बाद में बाम्बे चौपाटी में भाषण देते हुए उन्हें गिरफ्तार करके नासिक जेल में राजद्रोह के आरोप में बंद कर दिया गया | जेल से छूटने के बाद नागपुर में सेनापति बापट की अध्यक्षता में ब्रिटिश राज विरोधी विद्यार्थी परिषद की सभा हुई | वहा उन्होंने पुन: इस युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य और भारत में उसके राज्य का विरोध किया | अमरावती की ऐसी एक सभा में भाषण से पहले ही पुन: गिरफ्तार कर लिया गया | एक वर्ष की सजा सुने गयी | 1946 में जेल से छूटने के बाद अपने जन्म स्थान पारनेर पहुचे | उस समय वहा दुर्भिक्ष की घनघोर छाया पसरी हुई थी बापट लोगो की सहायता में जुट गये स्वंय मजदूरी करने के साथ -- साथ अशक्त लोगो के लिए रोटिया जमा करने तथा सहायक निधि एकत्रित करने में कम में जुट गये | 15 अगस्त 1947 के दिन पुणे शहर में तिरंगा फहराने का गौरव सेनापति बापट को मिला | लेकिन उसके बाद बापट कोई पद -- प्रतिष्ठा को लेने की जगह राष्ट्र सेवा -- जनसेवा के कार्य में पुन: लग गये | बाद के दौर में उन्होंने गोवा मुक्ति आन्दोलन में हिस्सा लिया | अतत: शरीर कमजोर होते गये अथक सेनानी व सेनापति बापट का 28 नवम्बर 1967के दिन देहांत हो गया |
सुनील दत्ता ----- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक
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