Monday, July 8, 2019

राष्ट्र पुरुष -- चन्द्रशेखर जी की जुबानी

स्मृति शेष - नमन

राष्ट्र पुरुष -- चन्द्रशेखर जी की जुबानी

हमारे गाँव में एक कोट थी --

हमारे गाँव में एक कोट थी | लोग कहते है , इस गाँव के अन्दर शुरू में आबादी यही थी कोट ऊँचे टीले जैसी थी | यहाँ पर किसी देवता का स्थान था | उसे देखने से मालुम पड़ता था कि वह कोट तीन सौ वर्ष पुरानी तो जरुर होगी | गाँव की रक्षा के लिए यह कोट बनाई गयी थी | कोट के चारो तरफ गहरी खाई रही होगी | मेरे बचपन में वह गढ्ढे में बदल गयी थी | मेरे बाबा तीन भाई थे |बचपन में मैंने दो भाइयो को देखा था | सबसे बड़े पलकधारी सिंह थे | बड़े बाबा का नाम जंगबहादुर सिंह था | छोटे सहदेव सिंह थे | पलकधारी सिंह जी की कोई संतान नही थी | जंगबहादुर सिंह के दो पुत्र थे :एक लड़के का नाम यशोदा सिंह दूसरे का यमुना सिंह | मेरे पिता सदानंद सिंह सहदेव सिंह के इकलौते बेटे थे | मेरे परिवार के लोग किसान थे | खेती करते थे | 25-30 एकड़ की खेती थी | लेकिन खेती के लिए सिंचाई की व्यवस्था नही थी | ढेकुली से लोग पानी का इंतजाम करते थे | गाँव में बेहद गरीबी थी | दो तीन परिवारों को छोड़कर कोई परिवार ऐसा नही था जो साल भर के खाने का अनाज पैदा कर सकता हो | तब गेंहू नही होता था | जाऊ सावा कोदो और चना होता था | जौ और सावा जैसे अनाज तो अब कम उपजाए जाते हैं | हमारे खाने - पीने की आदत भी पैदा होने वाली फसल से निर्धारित थी | रबी की फसल आई तो हम गेंहू या जौ - कोदई खाते थे | मकई उबाल कर खाई जाती थी | मटर की घुघनी भी बहुत बनती थी | मटर को छौंक कर घुघनी बनाते है | लोग गाय - भैस पालते थे - अपने परिवार में दूध के लिए व्यवसाय के लिए नही हमारा संयुक्त परिवार था | उसमे 25 लोग थे अपनी उम्र के बच्चो में हम लोग दो ही थे एक मैं दुसरे मेरे चाचा के लड़के शिव पूजन सिंह | अब वह इस दुनिया में नही हैं | परिवार से लगे हुए तीन चार घर थे जिनमे हमारी उम्र के कुछ बच्चे थे | उनके साथ हम खेलते थे बाकी सब हमसे बड़ी उम्र के थे | हमारे परिवार से लगे तीन घर और थे सब एक ही अहाते के अन्दर गाँव के पूरब से पश्चिम तक फैले एक दुसरे से लगे हुए | बीच में दो तीन आगन और एक से दुसरे घर में आने का रस्ता था |
रात में यदि सारे दरवाजे बंद कर दिए जाए तो कोई बाहरी आ ही नही सकता था | बीच में कुआँ था - पीने के पानी के लिए |
उस समय गाँव में आपसी सौहार्द था | हमारे परिवार के निकट के लोगो में एक थे शिवभाल सिंह | उनको सारा रामायण कंठस्थ थी | वैसे वे ज्यादा पढ़े - लिखे नही थे | घर में बैठकर वे हम सबको रामायण सुनाया करते थे | उस समय आल्हा का बहुत प्रचलन था | गाँव में फगुआ और कजरी आदि गई जाती थी | हरिकीर्तन भी होता था | चौधरी रामलखन जी पास के गाँव उसरी के थे यह गाँव उस समय आजमगढ़ जिले में था | अब मऊ में है | मेरा गाँव बलिया जिले के पश्चिम के अंतिम गाँव हैं |
चौधरी रामलखन राम भक्त थे हर साल रामलीला का आयोजन करते थे उसमे समय लगाते थे | और पैसा भी हम लोग काफी दिलचस्पी लेते थे | उसमे मैं वानर- भालू का रोल भी किया करता हाईस्कूल में भी मैंने नाटको में अभी ने किया | कभी नारद बना कभी कुछ ! यह सब शौक से किया |
असल मैं मैं उस समय बहुत शांत स्वभाव था गाँव में सबसे सीधा कहा जाने वाला | स्वास्थ्य में भी मैं कमजोर था मैं तो सोच भी नही सकता था की कभी गाँव से बाहर जाउंगा | उन दिनों के गाँव की याद आती है तो एक अजीब सी सिहरन सी होती हैं | एक तरफ कीचड़ भरे रास्ते प्रारम्भिक पाठशाला के केवल दो कमरे अधिकतर कक्षाए पास के बरगद और पाकड़ के नीचे लगती थी | पर कभी पास की घनी अमराई गाँव की बंस्वारी में आपसी रगड़ से उठती धुन और कहीं दूर से आती चरवाहों के संगीत की आवाज | सूरज की पहली किरण के साथ अनेक घरो से उठती पूजा की ध्वनी और पेड़ो पे चचहाती चिड़िया | गाँव के पूरब में मिश्राइन का पोखरा जिसमे लोग सुबह शाम जुटते थे नित्यक्रिया व स्नान आदि के लिए अब वहाँ कुछ नही हैं |
हमारे चारो घरो के बीच एक बड़ा मैदान था | गर्मी के दिनों में वहां पर चारपाई बिछाने के लिए स्थान मिलना कठिन हो जाता था | हम लोग बड़े होने पर पास ही बगीचे में बने खलिहान में सोने के लिए चले जाते थे |
घर के आगन के बीच एक चबूतरा उससे लगा हुआ एक ऊँचा पौधा लगाने के लिए बना छोटा स्तम्भ जिस पर लगा तुलसी का बिरवा , जो शायद जीवन के प्रारम्भ में मुझे प्रकृति के निकट जाने का संकेत दे गया और साथ ही रहस्मयी पर अनजान आध्यात्मिकता की जिज्ञासा भी जो आज तक उतनी ही रहस्यमयी बनी हुई हैं
मुझे याद नही कि अपने गाँव से पहली बार मैं बलिया शहर कब गया | बचपन में कभी बैलगाड़ी पर चढ़कर दादरी का मेला देखने गया था | आज बेशक मेरे गाँव से कार या बस द्वारा ढेढ़ घंटे में दादरी पंहुचा जा सकता हैं लेकिन तब बैलगाड़ी से दो दिन में पंहुचा था | वहां रात को रुका फिर अगले दिन मेला घूमके घर लौटा | कार्तिक पूर्णिमा को यह मेला अब भी लगता है | उसमे गाय - भैंस घोड़े बिकते हैं | अपने जीवनकाल में भारतेंदु दादरी के मेले में बोलने के लिए आये थे | उनका यह भासहं बहुत महत्वपूर्ण है | उसमे उन्होंने देश के उत्थान के लिए लोगो का आव्हान किया था | भारतेंदु जी की पुस्तक मैंने पटियाला जेल में पढ़ी थी उसका जिक्र मैंने अपनी जेल डायरी में किया हैं |

प्रस्तुती -- सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

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