Tuesday, July 2, 2019

विरासत में मिली गुड - पानी की परम्परा

राष्ट्रपुरुष की कहानी उनकी जुबानी -- राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर

विरासत में मिली गुड - पानी की परम्परा

बलिया जिले का इब्राहिम पट्टी मेरा गाँव है | इस छोटे से गाँव में मेरे पूर्व कहाँ से आये , अब तक एक अनजान कहानी हैं | मैंने इस बात का पता लगाने का प्रयास किया लेकिन सफलता नही मिली | गाँव का नाम इब्राहिम पट्टी कैसे पडा , इसका पता मुझे जरुर चला | कोई नवाब था बहुत पहले उनका एक कारिन्दा था , जिसका नाम इब्राहिम | उसी ने अपने नाम पर गाँव का नाम इब्राहिम पट्टी रख दिया | इब्राहिम पट्टी उन दिनों छोटा सा गाँव था मेरे बचपन में में लगभग यहाँ 500 लोगो की आबादी थी | यह आबादी बहुत छोटी कही जायेगी | वहां तक पहुचने का कोई रास्ता और आने - जाने का कोई साधन नही था | लेकिन वास्तव में मेरा जन्म तो हुआ मेरे ननिहाल क्चुअरा में | तारीख थी 17 अप्रैल 1927 अर्थात चैत्र पूर्णिमा सवत 1887 मेरा ननिहाल कचुअरा सिकन्दरपुर कस्बे के नजदीक है यह बहुत छोटा सा गाँव है कचुअरा में हमारे नाना के परिवार में अब कोई नही हैं इब्राहिम पट्टी में मेरा बचपन गुजरा | यहाँ अपने पूर्वजो के आगमन की कहानी जान्ने के लिए मैंने कई बार कोशिश की | तब मैं इंटर में पढता था | हमारे यहाँ एक बड़े बुजुर्ग थे - परगन सिंह | उनके पूर्वजो के नाम याद थे | उनसे पूछकर मैंने कुर्सीनमा बनाया था | बड़ी मेहनत की थी लेकिन वास्तविकता यह है कि किसी को सच्चाई मालुम नही | गर्मियों की छुटियो में लगा रहा | कई रंगी की रोशनाई से उसे बहुत आकर्षक बनाया था | लेकिन कोई उसे चुरा ले गया | इसलिए मेरे पूर्वजो के इब्राहिम पट्टी आगमन की कहानी अंजन ही हैं | वैसे तरह तरह की
मेरे गाँव की आबादी बहुजातीय रही हैं | मेरे बचपन में वहां दो घर पंडितो के थे | 8-10 घर ठाकुरों के रहे होंगे | 8-10 घर बनियों के भी थे | हरिजन बस्ती दो थी | एक छोटी एक बड़ी | वह गाँव से बहार थी | कहार और कुर्मी के भी कुछ घर थे | मेरे गाँव में तब किसी एक जाती का प्रभुत्व नही था | वहां मुसलमान के भी दो घर थे | आज भी ये दोनों घर हैं | मेरे बचपन से आज तक उनकी दो पुश्ते गुजर गयी | बचपन के वे दिन याद आते है जब गाँव में मुहर्रम के लिए ताजिया रखा जता था | हम सब लड़के ताजिया उठाते थे मर्सिया गाते थे ताजिया गाँव में घुमाया जाता था हर दरवाजे पर घर के बड़े -- बूढ़े एक घडा पानी लुध्काते थे गुड का एक धेला चढाते थे | बचपन में ही मुझे बताया गया था की कर्बला के मैदानों में खिलिफा हुसैन अवाम के हक के लिए लड़ते हुए शहीद हुए थे | उन्हें पिने के लिए पानी नही मिला था , उसी याद में यह पानी और गुड देने की परम्परा मेरे गाँव में राखी गयी थी | मैं नही जानता कही और है या नही |
प्रस्तुती -- सुनील दत्ता ----- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

1 comment:

  1. तब कितने सौहार्द के दिन थे, मुहब्बतों की दुनिया थी...

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