Monday, October 5, 2015

अपना शहर 6-10-15

अपना शहर

मगरूवा के साथ ने जब    चिलम की टाड मारकर चिलम को जगाया तो  चिलम ने एक जबर्दस्त आग को शोला फेंका मगरूवा भी अपनी बारी में बैठा था पाकर उसकी नजर चिलम पे थी उस शोले को देखते ही वो विचारमग्न हो चला सुबह ही उसने अखबार देखा था चाय की दुकान पर लोगो की बक - बक सुना था आज कल नेताओ के पास मुद्दा नही रहा अब उनका चुनावी मुद्दा खान - पान बच गया है | बिगडती व्यवस्था - शिक्षा स्वास्थ्य बेरोजगारी के मुद्दे गायब है बच गया अब मुद्दा खान - पान का का होता जा रहा हमरे देश का समझ से बाहर है ऐसे में उसे राही मासूम रजा साहब की एक कविता याद अ जाति है सोचता है इस पढ़े लिखे समाज क्या हो गया है देखता है अपने ही शहर को कभी - कभी काप उठता है एक विद्रोह की आग सुलग  जाती है -- अब दो बड़े नर्सिंग होम को देख ले आम जनता कहती नजर आती है इ लोगोन त मुदों से भी पइसा निकल लेट बाने सरकार बा इहका के बड़के अधिकारी भी कुछ कर न सकेने समज में ना आवत बा मगरूवा के अगर आप सुधि लोगन के पास बा त मगरूवा के इह सवाल सुलझा देइ |

मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी

मंदिर राम का निकला

लेकिन मेरा लावारिस दिल

अब जिस की जंबील में कोई ख़्वाब

कोई ताबीर नहीं है

मुस्तकबिल की रोशन रोशन

एक भी तस्वीर नहीं है

बोल ए इंसान, ये दिल, ये मेरा दिल

ये लावारिस, ये शर्मिन्दा शर्मिन्दा दिल

आख़िर किसके नाम का निकला

मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी

मंदिर राम का निकला

बन्दा किसके काम का निकला

ये मेरा दिल है

या मेरे ख़्वाबों का मकतल

चारों तरफ बस ख़ून और आँसू, चीख़ें, शोले

घायल गुड़िया

खुली हुई मुर्दा आँखों से कुछ दरवाज़े

ख़ून में लिथड़े कमसिन कुरते

एक पाँव की ज़ख़्मी चप्पल

जगह-जगह से मसकी साड़ी

शर्मिन्दा नंगी शलवारें

दीवारों से चिपकी बिंदी

सहमी चूड़ी

दरवाज़ों की ओट में आवेजों की कबरें

ए अल्लाह, ए रहीम, करीम, ये मेरी अमानत

ए श्रीराम, रघुपति राघव, ए मेरे मर्यादा पुरुषोत्तम

ये आपकी दौलत आप सम्हालें

मैं बेबस हूँ

आग और ख़ून के इस दलदल में

मेरी तो आवाज़ के पाँव धँसे जाते हैं। ---------- राही मासूम रज़ा

2 comments:

  1. मुद्दों पर नहीं अब तो में लड़ा लो एक दूसरे को .... छींटाकशी करते रहो .....एक दूसरे की टाँग खींचते रहो और फिर बन जाओ 5 साल के लिए राजा ....

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    1. आखिर ऍम आदमी की आँखे कब खुलेगी

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