Thursday, October 8, 2015

अपनी खुद्दारी को झुकने नही दिया मसान ( श्मशान ) पर लाश फूकने का काम किया ----- 8-10-15

अपना शहर ----



अपनी खुद्दारी को झुकने नही दिया मसान ( श्मशान ) पर लाश फूकने का काम किया -----
मगरुवा आपको ले चलता है पुरानी कोतवाली उससे पहले मैं चलता हूँ बौरह्वा बाबा के स्थान पर यह स्थान नया उदासीन अखाड़े के रूप में जाना जाता है | मगरुवा पहुचता है सोच कर कि आज बाबा के हाथो से बना नए मॉल की चुस्की मारेगा और हुआ भी वही बाबा ने जब आग जलाई वहा का माहौल अलग तरह का बन गया ,पूरा वातावरण सब अलग सा दिखने लगा मगरुवा वहा से उठा और अपने साइकिल से वापस लौट रहा था अपने ठीहे पे ऐसे में उसके मन में इसी शहर का एक चरित्र घूम रहा था बार – बार नेक दिल इन्सान – अन्याय के विरुद्द लड़ने वाला कभी – कभी झूठ भी बोल लेता है कब वो क्या बोलेगा उसे खुद पता नही लेकिन गजब का व्यक्ति अपने सबसे बुरे दिनों में उसने अपने वसूलो को नही छोड़ा उसने ठाना था कुछ भी करूँगा पर अपराध नही करूंगा और उसने अपनी बातो को सिद्द किया | आइये मिलते है उस मेन्टल केस से मैंने इस लिए इस शब्द का प्रयोग किया आज के जमाने में ऐसे आदमी को इसके आलावा कोई और उपाधि समाज नही दे सकता , मेरी जो छोटी सी समझ कहती है आज समाज का चरित्र पूरी तरह से बदल गया है |
नाम है उसका विजय लोग उसे बाबा के नाम से जानते है यह चरित्र यथार्थ में मौजूद है उसकी जुबानी उसकी बानी सुनिए अब वह पेशे से वीडियो फोटोग्राफर है |
विजय ने गाजे की भरी सिगरेट का जब दो कश मारा तो बोल पड़ा अब छक्का मार दिया और अपनी धुनकी में कह दिया की अब का बताई तोहके – का भयल रहे ? कैसे सर में चोट लगी थी लग गया था जब मैं ठीक हो गया तो बाबूजी ने कहा की अब ठीक ठाक हो गये हो अब क्या करोगे ? हमने अपने पापा से एक लेटर लिखवाया कि आप लिख दीजिये की मैं आपका बेटा नही उनसे पत्र लिखवाकर मैं जौनपुर अपनी ससुराल गया वहा का हाल चाल लिया , उसके बाद मैंने अपने ससुर से सारी बाते बताई और कहा कि मैं बनारस जा रहा हूँ ससुर जी ने मुझे चार सौ रूपये दिए और मैं उन रुपयों से अपने जीवन के नए संघर्ष के रस्ते पर निकल गया बनारस पहुचकर मैं मौसा के यहाँ एक सप्ताह रहा और वो पत्र भी दिखाया , तब मौसा ने कहा काम ओम खोजो मैं पूरे शहर में काम खोजने निकला जहा भी जाता वही पर सरवा गारंटी मांगते भला मैं बनारस में कहा से गारंटी देता |
एक दिन मैं हरिश्चन्द्र घाट पहुच गया , वहा बैठ गया सोचने लगा कि क्या करू , जहा – जहा शहर में काम मांगने जा रहा हूँ वह पर जमानत मांग रहे है | मैंने यहाँ तक सोच लिया था की साला अगर होटल में बर्तन भी माजे के पड़ी त उहो काम कर लेब|, मगर भोसड़ी के हमार किस्मत दूसरे दिन पहुच गईनी हरिश्चन्द्र घाट पर एक किनारे बैठ गईनि लगनी सोचे अब का करी समझ में ना आवत रहे उलझन रहे सरवा कौनो मोके कामो ना देत हउये , का करी समझ में इहे आइल की यही मशाने में भोले बाबा के साथे रह लेइ |
साले के का करी कमवे सारे के कमवे ना मिलत रहे , फिर कुछ देर बाद चचा उठनी गईनी इकठे डोमडा के गोमती पर पूछनी काम मिली का उ बोललस इहा के काम कर लेबा काम त ह हमऊ सोचनी चला जियले के खातिर जिन्दगी से लड़े के खातिर इहो काम कईले में कउनो फर्क ना चोरी – चमारी ना न करत हई साले के मुर्दवे फूंके के ह ना एकरी बहिन --- सारे के इहे काम पकड लेइ |
डोमडवा से इह कह के की कल से आ जाइब गयनी मौसा के घरे आपन कपड़ा सपडा ले लेइ मौसा मिल गईने कहनी उनसे काम मिल गयल बा चल थई |
कल से मौसा पूछने कहा मिलल काम बिना जमानत के काम कहा मिल सकत ह बिना जमानत के काम मुरदहवा घाट पर ( हरिश्चन्द्र घाट ) मिल गयल ह मौसी खड़ी रहे वही कहलस ऊहा कम करबा अब हमऊ कहनी त का करी का हमार दादा – परदादा त कउनो फैक्ट्री छोड़ के न गयल हउये की उहा चल जाई मौसी बोलनी जो तोके मन करे जहा मन करे जो ,हमऊ निकल के चल अईनी मुरदहवा घाट पर काम शुरू कइनी , वह से शुरू हुआ फिर मेरे संघर्षो की कहानी का एक नया पन्ना मैं उतना पढ़ा लिखा था नही करता क्या मगरुवा सोचने लगा यहाँ भी व्यापार -------------------------------जहा पर लोग कहते है मुक्ति है बड़े – बड़े ज्ञानी - ध्यानी जोगी – महात्मा यही तो कहते फिरते है आइये आगे बढ़ते है विजय की तरफ मगरुवा त साला पागल है पता नही कब क्या सोचेगा इधर विजय अपनी धुनकी में कहता रहा जानत हउआ हम लगली सोचे चला इहु लाशंन के व्यापार माने मुरदा फुकले में कईसे धंधा करेने सब डोमडवा , एक नये व्यापार के नयी जानकारी घाट के एक डोमडे का नौकर बन गया | जानत हउआ चचा सारा कबो – कबो सोची की ईमानदारी के फल इतना मीठा बा लेकिन इहा भी सारा बेईमनिये बा जहा लोग आके गंगा मइया में तिरोहित होने पता ह तोहके इहा साला महापत्तर के भी कमिशन फिक्स बा एक लाश पर करीब आठ सौ से हजार रुपया मार देवेने कुल , अपने संघर्ष के दिनों को याद करता है बोलता है पता ह तोहके केतना मिलत रहे
ओ मुरदहवा घाट पर पर एक लाश जलाई त पच्चीसव रुपया ,टिकटी लगे बॉस पाच बाँस देहले पर पाँच रुपया अउर लाश के जरले के बाद ओकर बचल बोटा डोमडा के घरे ले पांच बोटा के पन्द्रह रुपया मिलत रहे चचा सब दिन भर में साठ रुपया मिल जाए एक दिन में , मगरुवा का हृदय काप सा गया क्या इसी के लिए हमारे क्रांतिवीरो ने अपने प्राणों की आहुती दी थी मगरुवा सोचता है | उन क्रांतिवीरो को जिनका हम नाम तक नही जानते . जिन्होंने अपना वर्तमान हमारे भविष्य के लिए बलिदान कर दिया |

No comments:

Post a Comment