Saturday, February 10, 2018

छात्र और राजनीति -- 11-2-18

छात्र और राजनीति




इस महत्वपूर्ण राजनितिक मसले पर यह लेख जुलाई , 1928 में '' कीर्ति '' में छपा था | उन दिनों अनेक नेता विद्यार्थियों को राजनीति में हिस्सा न लेने की सलाहे देते थे , जिनके जवाब में यह लेख बहुत महत्वपूर्ण है | यह लेख सम्पादकीय विचारों में छपा था , और सम्भवत: भगत सिंह का लिखा हुआ है | - स .

इस बात का बड़ा भारी शोर सूना जा रहा है कि पढने वाले नौजवान राजनीतिक या पोलिटिकल कामो में हिस्सा न ले | पंजाब सरकार की राय बिलकुल न्यारी है | छात्रो से कालेज में दाखिल होने से पहले इस आशय की शर्त पर दस्तखत करवाए जाते है कि वे राजनीतिक कामो में हिस्सा नही लेंगे |
आगे हमारा दुर्भाग्य की लोगो की ओर से चुना हुआ मनोहर , जो अब शिक्षा मंत्री है , स्कूलों - कालेजो के नाम एक सर्कुलर भेजता है कि कोई पढने या पढ़ाने वाला पोलिटिक्स में हिस्सा न ले | कुछ दिन हुए जब लाहौर में स्टूडेंट्स यूनियन या छात्र सभा की और से छात्र सप्ताह मनाया जा रहा था | वहाँ पर सर अब्दुल कादर और प्रोफ़ेसर इश्वर्चन्द्र नंदा ने इस बात पर जोर दिया कि छात्र को पोलिटिक्स में हिस्सा नही लेना चाहिए |
पंजाब को राजनीतिक जीवन में सबसे पिछड़ा हुआ (Politcally backward ) कहा जाता है | इसका क्या कारण है ? पंजाब ने बलिदान कम किये है ? क्या पंजाब ने मुसीबते कम झेली है ? फिर क्या कारण है कि हम इस मैदान में सबसे पीछे है ? इसका कारण स्पष्ट है कि हमारे शिक्षा विभाग के अधिकारी लोग बिलकुल ही बुद्धू है | आज पंजाब काउन्सिल की कार्यवाई पढ़कर इस बात का अच्छी तरह पता चलता है कि इसका कारण यह है कि हमारी शिक्षा निकम्मी होती है और फिजूल होती है | और छात्र - युवा जगत अपने देश की बातो में कोई हिस्सा नही लेता | उन्हें इस सम्बन्ध में कोई ज्ञान नही होता | जब वे पढ़कर निकलते है तब उनमे से कुछ आगे पढ़ते है , लेकिन वे ऐसी कच्ची - कच्ची बाते करते है कि सुनकर स्वंय ही अफ़सोस कर बैठ जाने के सिवाए कोई चारा नही होता | जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है , उन्हें आज ही अक्ल के अंधे बनाने की कोशिश की जा रही है | इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमे खुद ही समझ लेना चाहिए | यह हम मानते है कि छात्र का मुख्य काम पढ़ाई करना है , उन्हें अपना पूरा ध्यान उस और लगा देना चाहिए | लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार के उपाए सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नही ? यदि नही तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते है , जो सिर्फ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाए | ऐसी शिक्षा की जरुरत ही क्या है ? कुछ ज्यादा चालाक आदमी यह कहते है --- '' काका तुम पालिटिक्स के अनुसार पढो और सोचो जरुर , लेकिन कोई व्यवहारिक हिस्सा न लो | तुम अधिक योग्य होकर देश के लिए फायदेमन्द साबित होंगे |''
बात बड़ी सुन्दर लगती है , लेकिन हम इसे भी रद्द करते है , क्योकि यह भी सिर्फ उपरी बात है | इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि एक दिन छात्र एक पुस्तक "Appeal to the young ' 'Prince Kropotkin' ( नौजवानों के नाम अपील प्रिंस क्रोपोटकिन ) पढ़ रहा था | एक प्रोफ़ेसर साहब कहने लगे , यह कौन सी पुस्तक है ? और यह तो किसी बंगाली का नाम जान पड़ता है ! लड़का बोल पडा प्रिंस क्रोपटकिन का नाम बड़ा प्रसिद्द है | वे अर्थशास्त्र के विद्वान् थे | इस नाम से परिचित होना प्रत्येक प्रोफ़ेसर के लिए बड़ा जरूरी था | प्रोफ़ेसर की ' योग्यता ' पर लड़का हंस पडा ! और उसने कहा फिर कहा -- ये रुसी सज्जन थे | बस! ''रुसी !" कहर टूट पडा ! प्रोफ़ेसर ने कहा की 'तुम बोल्शेविक हो , क्योकि तुम पोलिटिकल पुस्तके पढ़ते हो ""|
देखिये आप प्रोफ़ेसर की योग्यता ! अब उन बेचारे छात्र को उनसे क्या सीखना है ? ऐसी स्थिति में वे नौजवान क्या सीख सकते है ? दूसरी बात यह हैकरना कि व्यवहारिक राजनीति क्या होती है ? महात्मा गांधी जवाहरलाल नेहरु और सुभाष चन्द्र बोस का स्वागत करना और भाषण सुनना तो हुई व्यवहारिक राजनीति , पर कमिशन या वायसराय का स्वागत करना क्या हुआ ? क्या वह पालिटिक्स का दूसरा पहलु नही ? सरकारों और देशो के प्रबंध से सम्बन्धित कोई भी बात पालिटिक्स के मैदान में ही गिनी जायेगी , तो फिर यह भी पालिटिक्स हुई की नही ? कहा जाएगा की इससे सरकार खुश होती है और दूसरी से नाराज ? फिर सवाल तो सरकार की ख़ुशी या नाराजगी का हुआ | क्या छात्र को जन्मते ही खुशामद का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए ? हम तो समझते है कि जब तक हिन्दुस्तान में विदेशी डाकू शासन कर रहे है तब तक वफादारी करनेवाले वफादार नही बल्कि गद्दार है , इंसान नही पशु है , पेट के गुलाम है | तो हम किस तरह कहे की छात्र वफादारी का पाठ पढ़े | सभी मानते है कि हिदुस्तान को इस समय ऐसे देश - सेवको की जरूरत है , जो तन - मन - धन देश पर अर्पित कर दे और पागलो की तरह सारी उम्र देश की आजादी के लिए न्योछावर कर दे | लेकिन क्या बुड्ढो में ऐसे आदमी मिल सकेंगे ? क्या परिवार और दुनियादारी के झझटो में फंसे सयाने लोगो में से ऐसे लोग निकल सकेंगे ? यह तो वही नौजवान निकल सकते है जो किन्ही जंजालो में न फंसे हो और जंजालो में पड़ने से पहले छात्र या नौजवान तभी सोच सकते है यदि उन्होंने कुछ व्यवहारिक ज्ञान भी हासिल किया हो | सिर्फ गणित और ज्योग्राफी का ही परीक्षा के पर्चो के लिए घोटा न लगाया हो |
क्या इंग्लैण्ड के सभी छात्र कालेज छोड़कर जर्मनी के खिलाफ लड़ने के लिए निकल पड़ना पालिटिक्स नही थी ? तब हमारे उपदेशक कहाँ थे जो उनसे कहते -- जाओ , जाकर शिक्षा हासिल करो | आज नेशनल कालेज , अहमदाबाद के जो लड़के सत्याग्रह के बारदोली वालो की सहायता कर रहे है , क्या वे ऐसे मुर्ख रह जायेगे ? देखते है उनकी तुलना में पंजाब विश्व विद्यालय कितने योग्य आदमी पैदा करता है ? सभी देशो को आजाद करवाने वाले वहाँ के छात्र और नौजवान ही हुआ करते है | क्या हिदुस्तान के नौजवान अलग - अलग रहकर अपना और अपने देश का अस्तित्व बचा पायेगे ? नौजवानों को 1919 में छात्र पर किये गये अत्याचार भूल नही सकते | वे यह भी समझते है कि उन्हें एक भारी क्रान्ति की जरूरत है | वे पढ़े , जरुर पढ़े | साथ ही पालिटिक्स का भी ज्ञान हासिल करे और जब जरूरत हो तो मैदान में कूद पड़े और अपने जीवन इसी काम में लगा दे | अपने प्राणों का इसी में उत्सर्ग कर दें | वरन बचने का कोई उपाए नजर नही आता |


प्रस्तुती सुनील दत्ता ---- पुस्तक --- नौजवानों के नाम भगत सिंह का संदेश

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