साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज
{ 1919 के जालियावाला बाग़ हत्याकांड के बाद ब्रिटिश सरकार ने साप्रदायिक दंगो का खूब प्रचार शुरू किया | इसके असर से 1924 में कोहाट में बहुत अमानवीय ढंग से हिन्दू - मुस्लिम दंगे हुए | इसके बाद राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना में साम्प्रदायिक दंगो पर लम्बी बहस चली | इन्हें समाप्त करने की जरूरत तो सबने महसूस की , लेकिन कांग्रेसी नेताओं ने हिन्दू - मुस्लिम नेताओं में सुलहनामा लिखाकर दंगो को रोकने के यतन किये |
इस समस्या के निश्चित हल के लिए क्रांतिकारी आन्दोलन ने अपने विचार प्रस्तुत किये | प्रस्तुत लेख जून , १९२८ के 'किरती'' में छपा | यह लेख इस समस्या पर शहीद भगत सिंह और उनके साथियो के विचारों का सार है |}
भारतवर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है | एक धर्म के अनुयायी दूसरे धरम के अनुयायियों के जानी दुश्मन है | अब तो एक धर्म के होना ही दूसरे धर्म के कट्टर शत्रु होना है | यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें | किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों , हिन्दुओ को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नही छोड़ी | यह मार काट इसलिए की गयी कि फलाँ आदमी दोषी हैं , वरन इसलिए की फलां आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है | बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था | जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है |
ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकार मय नजर आता है | इन ''धर्मो '' ने हिन्दुस्तान का बेडा गरक कर दिया है | और अभी पता नही कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे | इन दंगो ने संसार की नजरो में भारत को बदनाम कर दिया है | और हमने देखा है कि इस अंधविश्वास के भाव में सभी बह जाते है | | कोई बिरला ही हिन्दू , , मुसलमान या सिख होता है , जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है , बाकी सबके सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रॉब को कायम रखने के लिए डंडे-लाठिया , तलवारे - छुरे हाथ में पकड लेते है और आपस में सर फोड़ -- फोड़कर मर जाते है | बाकी बचे कुछ तो फाँसी चढ़ जाते है और कुछ जेलों में फेंक दिए जाते है | इतना रक्तपात होने पर इन 'धर्मजनों '' पर अंग्रेजी सरकार का डंडा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने पर आ जाता है |
जहां तक देखा गया है , इन दंगो के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है | इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली | वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो 'समान राष्ट्रीयता ' और स्वराज - स्वराज ' के दमगजे मारते नही थकते थे , वही अपने सिरों पर उठाया हुआ था वही या तो अपने सर छिपाए चुपचाप बैठे है या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले है | सर छिपाकर बैठनेवालो की संख्या भी क्या कम है ? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले , वैसे तो जमीन खोदने से सैकड़ो निकल आते है | जो नेता ह्रदय से सबका भला चाहते है , ऐसे बहुत ही कम है , और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आई हुई है कि वे भी इसे रोक नही पा रहे है |ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है |
दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगो को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे है वे अख़बार वाले है |
पत्रकारिता का व्यवसाय , जो किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था , आज बहुत ही गंदा हो गया है | यह लोग एक - दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे - मोटे शीर्षक देकर लोगो की भावनाए भडकाते है और परस्पर सर - फुटौवल करवाते है | एक - दो जगह ही नही , कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए है कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे है | ऐसे लेखक , जिनका दिल व दिमाग ऐ ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो , बहुत कम है |
अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना , लोगो से सकीणता निकालना , साम्प्रदायिक भावनाए हटाना , परस्पर मेल - मिलाप बढाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था ; लेकिन इन्होने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना , सकीणता का प्रचार करना , साम्प्रदायिक बनाना , लड़ाई - झगडे करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है | यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आँखों से रक्त के आँसू बहने लगते है और दिल में सवाल उठता है कि 'भारत का बनेगा क्या ?'
जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते है , उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है | कहाँ थे वे दिन की स्वतंत्रता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहाँ आज यह दिन की स्वराज एक सपना मात्र बन गया है | बस यही तीसरा लाभ है , जो इन दंगो से अत्याचारियों को मिला है | वही नौकरशाही - जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था , की आज गयी , कल गयी - आज अपने जड़े इतनी मजबूत कर चुकी है कि आज गयी , कल गयी -- आज अपने जड़े इतनी मजबूत कर चुकी है की उसे हिलाना कोई मामूली काम नही है |
यदि इन साम्प्रदायिक दंगो की जड़ खोजे तो हमे इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है | असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्रकारों ने ढेरो कुरबानिया दी | उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी | असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास - सा हो गया , जिससे आजकल के बहुत साम्प्रदायिक नेताओं के धंधे चौपट हो गये | विश्व में जो भी काम होता है ,, उसकी तह में पेट का सवाल जरुर होता है | कार्लमार्क्स के तीन बड़े सिद्धांतो में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है | इसी सिद्धांत के कारण ही तबलीग , तन्किम , शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई , जो अवर्णीय है |
बस , सभी दंगो का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार हो सकता है , कयोकी भारत के आम लोग आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और जन को अपमानित करवा सकता है | भूख और दुःख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धांत ताख पर रख देता है | सच है , मरता क्या न करता |
लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होना अत्यंत कठिन है कयोकी सरकार विदेशी है और यही लोगो की स्थिति को सुधरने नही देती | इसीलिए लोगो को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिए और जब तक सरकार बदल न जाए , चैन की सांस न लेना चाहिए |
लोगो को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की जरूरत है | गरीब मेहनतकशो व किसानो को स्पष्ट समझा देना चाहिए की तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति है , इसलिए तुम्हे इनके हथकंडो से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए | संसार के सभी गरीबो के , चाहे वे किसी जाति , रंग , धर्म या राष्ट्र के हो , अधिकार एक ही हैं | तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म , रंग ,नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का यत्न करो | इन यत्नों में तुम्हारा नुक्सान कुछ नही होगा , इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीर कट जायेगी और तुम्हे आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी | जो लोग रूस का इतिहास जानते है , उन्हें मालुम है कि जार के समय वहाँ भी ऐसी स्थितिया थी , वहाँ भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जुट - पतंग करते रहते | लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक शासन हुआ है वहाँ का नक्शा ही बदल गया है | अब वहाँ कभी दंगे नही हुए | अब वहाँ सभी को इंसान समझा जाता है ' धर्मजन ' नही | जार के समय लोगो की आर्थिक दशा बहुत खराब थी , इसीलिए सब दंगे - फसाद होते थे | लेकिन अब रूसियो की आर्थिक दशा सुधर गयी है और उनमे वर्ग - चेतना आ गयी है , इसीलिए अब वहाँ से कभी किसी दंगे की खबर नही आई |
इन दंगो में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते है , लेकिन कलकत्ते के दंगो में एक बात की ख़ुशी सुनने को मिली | वह यह की दंगो में ट्रेड यूनियनों के मजदूरो ने हिस्सा नही लिया और न ही वे परस्पर गुथम गुथ्था ही हुए, वर्ण सभी हिन्दू - मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते - बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे | यह इसलिए की उनमे वर्ग चेतना थी और वे अपने वर्ग हित को अच्छी तरह पहचानते थे | वर्ग चेतना का यही सुन्दर रास्ता है , जो साम्प्रदायिक दंगे रोकता सकता है |
यह ख़ुशी का समाचार हमारे कानो को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मो से जो परस्पर लडाना व घृणा करना सिखाते है , तंग आकर हाथ जोड़ रहे है और उनमे इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगो को धर्म की नजर से हिन्दू , मुसलमान या सिख रूप में नही वरण सभी को पहले इंसान समझते है , फिर भारतवासी | 1914 - 15 के शहीदों ने धर्म की राजनीति से अलग कर दिया था वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है , इसमें दूसरे का कोई दखल नही | न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए कयोकी यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नही करने देगा | इसीलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एक जुट व एक जान रहे , जिसमे सिख बढचढ कर फांसियो पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नही रहे |
यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकठ्ठे हो सकते है | धर्मो में चाहे अलग - अलग ही रहे | झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते है | हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरुर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है , उससे हमे बचा लेंगे |
नौजवानों के नाम शहीदे आजम भगत सिंह का संदेश
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