लखनऊ ही नही वरन विश्व के हर नगर वैश्याओ के बाजार से गर्म रहे है ; कारण कि विश्व के हर कोने में कुछ न कुछ ऐसी विकृत मानसिकता वाले लोग मिल ही जाते है जो अनेकानेक स्त्रियों से शारीरिक सम्पर्क स्थापित करने में गौरव महसूस करते है | हाँ ! विश्व के अन्य शहरों की तुलना में लखनऊ में वैश्याओ की उपस्थिति अपने में कुछ विशिष्टताए समेटे ही है | इनकी बात कुछ अलग रही है | लखनऊ की वैश्याए कभी इस शहर की शान समझी जाती थी , जिसका कारण था उनकी सभ्यता उनकी सज्जनता , उनका शिष्टाचार और उनकी मिठ- बोलिया अनूठी थी | अच्छे वस्त्रो एवं आभुश्नो से सुसज्जित तो ये रहती ही थी | लखनऊ की ऐसी वैश्याए , जो रहन - शान की उपरोक्त विशिष्टताओ को अपने जीवन शैली में न उतर सकी , उन्हें समाज के शौक़ीन लोगो न न कि मात्र नकार दिया , वरन वे अपने क्षेत्र में भी तिरस्कृत व उपेक्षित रही | परिणामत्या वे अपने ही समूह में अपने आपको अलग - थलग पाने लगी |
सामने वैश्याओ के घर साफ़ सुधरे हुआ करते थे और घरो के अन्दर के वे कमरे , जहां उनके अपने ग्राहकों से मेल - मिलाप होता था , वहाँ की फर्शो पर साफ़ - सुधरी चद्दरे बिछी होती थी | कही - कही गलीचे बिछाए जाने किम व्यवस्था होती थी |
इन वैश्याओ की दिनचर्या प्रात:काल के बजाए सायंकाल से कुछ इस प्रकार प्रारम्भ होती थी कि मानो अस्त होता सूरज इन्हें संदेश दे रहा हो कि उठो ! अब तुम्हारे उदित होने का समय अ गया है | बस ! यही से जनान - बाजारी की गलिया मचल उठती थी | इन गलियों की छतो व कोठो के छ्जो पर नहाए धोये और सुन्दर वस्त्रो व आभुश्नो से सजकर वैश्याए चौक की और मुँह करके अपने चहेतों की प्रतीक्षा में बैठ जाया करती थी | लखनऊ की समर्थ व सम्पन्न वैश्याओ में अधिकाश चौक की इन्ही गलियों में बने कोठो पर आबाद थी | इन गलियों में प्रवेश लेने वाले वास्तविक वेश्यागामी जन इनके कोठो पर निसंकोच पहुच जाते जाते | हाँ ! कुछ लोग भी , जो उन तक खुले आम पहुचना पसंद नही करते थे | उनकी सुविधा के लिए मकान के पीछे दरवाजा हुआ करता था | बहरहाल इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों की आवाजाही से इन गलियों की चल - पहल बढ़ जाती थी |परिणाम स्वरूप , कभी - कभी ऐसा भी हो जाता था कि एक ही छज्जे के नीचे चचा - भतीजे , बड़े व छोटे भाई आदि की परस्पर मुलाक़ात हो जाया करती थी जिससे दोनों ही लोग एक विचित्र दुविधा की स्थिति में पहुच जाते थे |
इन वैश्याओ के यहाँ अपनी कुछ अदब - तहजीब की स्थापित परम्पराए हुआ करती थी , जिसका अक्षरश: पालन होता था | इन्ही वैश्याओ में कुच्छ एक ऐसी भी थी , जिनको संगीत शास्त्र की अच्छी जानकारी हुआ करती थी | साथ ही वे रूपवती भी होती थी जिसके कारण उन्हें प्राय: अच्छी महफ़िलो में प्रवेश मिल जाया करती | शादी - व्याह जैसे उत्सवो में उन्हें मुजरे के लिए भी आमंत्रित कर लिया जाता था जिसके बदले उन्हें उचित प्राश्र्मिक दिया जाता था | संगीत शास्त्र की जानकार वैश्याओ का कला पारखियो के बीच सम्मान होता था तथा ऐसे कला प्रेमी उनसे मित्रता करने में कोई संकोच नही करते थे | खुशहाल रईसों की एक आन अवश्य रही कि वे अपनी स्वंयम की तृप्ति के लिए किसी नई ख्याति लब्ध सुन्दरी वैश्या के घर नही जाते थे | यदि कोई ऐसी वैश्या उनके मन भा गयी तो किसी दलाल के माध्यम से उसे अपने घरो पर बुला लिया करते |
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