Monday, February 19, 2018

तवायफे -- गदर के बाद - भाग पाँच 19-2-18

तवायफे -- गदर के बाद - भाग पाँच
लखनऊ में ब्रिटिश साम्राज्य प्रस्थापन के पूर्व लखनऊ की पूर्व स्थापित भद्र तवायफे यहाँ की उच्च कोटि की संस्कृति का प्रतीक हुआ करती थी | उनका भारतीय अभिजात संगीत ( शास्त्रीय संगीत ) के प्रचार - प्रसार व उठान में अहम् योगदान रहा है | नृत्य के अभिनय पक्ष में उनकी कोई सानी नही थी | प्रारम्भ में इन्ही तवायफो के माध्यम से लखनऊ में जन्मी बोल बनाव की ठुमरी तथा कथक नृत्य का सर्वत्र प्रचार - प्रसार हुआ | लखनऊ के नवाबो का प्रश्रय पाकर वे न कि मात्र आर्थिक रूप से सम्पन्न हुई वरन उनमे से जो विदुषी थी वे नवाबो की परामर्शदाता भी हुई | यदाकदा इन लोगो ने नवाबो द्वारा लिए जाने वाले अहम् निर्णयों को भी प्रभावित किया |
लखनऊ की तवायफो एवं संगीतज्ञो को सबसे बड़ा झटका सन 1857 की गदर के समय हुआ | चूँकि उपरोक्त क्रान्ति का मुख्य केंद्र चौक व उसके आसपास का क्षेत्र था , अत: सबसे बड़ी आपदा उस क्षेत्र के संगीतकारों एवं तवायफो और वैश्याओ पर आ पड़ी | ये सभी अपनी जान बचाकर भागने लगे | दूसरी और नवाब वाजिद अली शाह के सरक्षण में उनके महल में पल रही तवायफो में से कुछ तो नवाब के साथ बंगाल स्थित मटिया बुर्ज चली गयी और कुछ कानपुर , पटना तथा अन्य शहरों को पलायन कर गयी बची खुची तवायफो ने लखनऊ शहर के निकट ही बने मकानों में आश्रय ले लिया |
इनमे से सम्पन्न तवायफे भी थी जिन्होंने सन 1857 के गदर की भूमिका निभाने वाले क्रान्तिकारियो को आर्थिक सहयोग भी दिया था | उनके ऐसे कृत्य की भनक लगते ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रशासनिक अधिकारियो ने इनको प्रताड़ित करना आरम्भ कर दिया | ब्रिटिश प्रशासन द्वारा इनकी सम्पत्ति हडप ली गयी और इनके शरीर को अपने सैनको के हाथो उनकी भौतिक तृप्ति के लिए सौप दिया | ये बेचारी तवायफे सैकड़ो की संख्या में लखनऊ के सदर क्षेत्र में बसे सैनको के समूह में उनके भोग विलास के लिए खुली छोड़ दी गयी | इस खुले भोग विलास की परिणति इन तवायफो में गर्मी व सुजाक जैसे रोगों के फ़ैल जाने से ब्रिटिश सिंक मरने लगे | परिणाम अपने नृत्य एवं गयां कला के माध्यम से समाज में हंक बनाने वाली ये तवायफे सामान्य वैश्या होने को बाध्य हो गयी |
कालांतर में सन 1860 में जब शहर की श्तिति कुछ सम्भली तो तवायफो के अड्डे पुन: आबाद होने लगे | लेकिन इनका स्वरूप बदल चूका था स्वरूप बदलने के वावजूद लखनऊ की नजाकत नफासत ववन शराफत की छवि कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यो का त्यों बनी रही | पहले जो संगीत की महफिले नवाबो के दरबारों की शोभा बढ़ाती अब वे अमीरों , राजाओ महाराजाओं के दरबारों की शोभा बढ़ाने लगी | परिवर्तन की इस प्रक्रिया में जो तवायफे लखनऊ छोड़कर अन्यत्र कही चली गयी थी उनमे से अनेक लखनऊ वापस आ गयी |
गदर के समय सन्नाटे में डूबी गलियों की रौनक वापस अ गयी |
कालान्तर , वैश्याओ और तवायफो के स्थापित वर्ग से परे एक भिन्न नये वर्ग का उदभव हुआ | इस वर्ग की स्त्रियों की गणना न तो तवायफो के वर्ग से की जा सकती थी और न ही वैश्याओ के वर्ग से | इस वर्ग में सम्मलित स्त्रियों को जनान -- खानगी अथवा खानगिया कहकर पुकारा गया | इस जनान खानी परम्परा का चलन लखनऊ से ही प्रारम्भ हुआ और इसके पूर्व इस वर्ग की स्त्रिया अन्यत्र कही उपलब्ध न थी | लखनऊ में इनके प्रादुर्भाव की अपनी ही एक व्यथा - कथा है | सन 1857 की गदर के उपरान्त इन तवायफो एवं वैश्याओ के उजाड़कर पुनर्स्थापन के क्रम में इनके अपने ही कई वर्ग बन गये | इन वर्गो का नाम जनान - खानगी पडा |लखनऊ में हुई सन १८५७ की गदर के कारण शहर में कुछ ऐसी तबाही की स्थिति बनी की सैकड़ो और हजारो की संख्या में शहर के सामान्य एवं विशिष्ठ शरनी के लोग तबाह हो गये और इनमे से अनेकानेक शालीन एवं शिष्ट लोग रोजी - रोटी के लिए दुसरो के आश्रित बन्ने को बाध्य हो गये |

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (20-02-2017) को "सेमल ने ऋतुराज सजाया" (चर्चा अंक-2886) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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