Sunday, February 18, 2018

तवायफे -- गदर से पहले -- भाग चार 18-2-18

तवायफे -- गदर से पहले -- भाग चार


प्राचीनकाल के भारत में भी कभी लगभग इसी प्रकार के व्यवसाय से जुडी नारिया हुआ करती थी जिन्हें प्राचीन भाषा में गणिका, पतुरिया नटीनिया , वैश्या आदि कहकर सम्बोधित किया जता था | कालान्तर , देश में उर्दू भाषा के प्रादुर्भाव के साथ गजलो की प्रस्तुती का चलन प्रारम्भ हुआ जिसकी प्रस्तुतकर्ता गणिकाओ को तवायफ कहकर सम्बोधित किया जाने लगा और शारीरिक सम्बन्धो को स्थापित करके जीविकोपार्जन करने वाली वैश्याओ को रंडी शब्द से |
पुरातन समय में लखनऊ एक धार्मिक नगरी हुआ करती थी , जहां चौक क्षेत्र के निकट प्रवाहित गोमती के तट पर यज्ञादि अनुष्ठान सम्पन्न हुआ करते थे | ऐतिहासिक दृष्टि से भारत में लूटपाट मचाने के उपरान्त जब टर्कीस्तान का महमूद गजनवी सन 1026 - 27 में सिंध के जाटो से युद्ध करता हुआ अपने देश वापस चला गया तो उसकी सेना में कार्यरत परशिया के शेखो और अफगानिस्तान के पठानों का एक समूह लखनऊ आकर बस गया | तेरहवी शताब्दी में बिजनौर से लखनऊ आकर बसे शेखो - पठानों के बर्चस्व के उपरान्त यहाँ कुछ समय के लिए हिन्दुओ के धार्मिक अनुष्ठान ढीले पड़ गये और शासक वर्ग की छत्रछाया में दरगाहो में कव्वालियो की संस्कृति पनपने लगी , जिसमे चौदहवी सदी के अन्त में लखनऊ आकर बसे फकीर हाजी हरमैन मृत्यु 1436 तथा शाह मीना मृत्यु 1479 के नाम उल्लेखनीय है | कालांतर , इन्ही शेखो और पठानों के शासनकाल में ही पंद्रहवी सदी में जयपुर राज्य के राजकीय सम्मान से विभूषित पंडित विष्णु शर्मा नामक एक विद्वान् ने लखनऊ में पदार्पण किया और चौक क्षेत्र में प्रवाहित गोमती नदी के किनारे यज्ञशाला स्थापित करते हुए वहाँ सोमयज्ञ सम्पन्न कराया और उसके उपरान्त उपरोक्त यज्ञशाला अपने पुत्रो को सौपकर स्वंय गोला गोकरन नाथ चले गये | लखनऊ में रुके पंडित विष्णु शर्मा के पुत्र प्रीतिकर शर्मा एवं ओनके पुत्र बुद्धि शर्मा ने भी एक - एक सोमयज्ञ सम्पन्न करवाया | इन यज्ञो में शास्त्र के नियमो के अनुरूप परम्परागत गायन - वादन एवं नृत्यग्नाओ के नृत्य के कार्यक्रम सम्पन्न हुए , किन्तु इन नृत्यों में धार्मिक तत्व निहित थे |
उल्लेखनीय यह है कि यद्दपि उन दिनों शेख और पठान अपने कठोर शासन के लिए प्रसिद्द थे पर उन लोगो ने इन अनुष्ठानो में कही कोई व्यवधान नही डाला | सन्दर्भवश सोमयज्ञ को वाजपेयी यज्ञ भी कहा जाता है | लखनऊ के वाजपेयी कहे जाने वाले लोग इन्ही पंडित विष्णु शर्मा के वंशज हैं |
उस समय तक लखनऊ में तवायफो एवं वैश्याओ की उपस्थिति का कोई संकेत नही मिलता |
लखनऊ तथा उसके आसपास के क्षेत्रो में तवायफो के आगमन का क्रम तब प्रारम्भ हुआ , जब दिल्ली के बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले के उपर सन 1738 में नादिरशाह का बर्बर आक्रमण हुआ | उनकी निर्दयता से आक्रान्ता साहित्यकार कलाकार , गायन , वादन , संगीतज्ञ ,नर्तकिया आदि सभी दिल्ली छोड़ अन्यत्र भागने लगे | उस समय फैजाबाद में मोहम्मद शाह'रंगीले ' के सैन्य अधिकारी सेनापति मोहम्मद अमीन उर्फ़ बुरहान - उल - मुल्क 1724 - 1739 लखनऊ को शेखो एवं पठानों के चंगुल से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से नियुक्त थे | अत: उस समय वह एवं उनकी शासन व्यवस्था उसी कार्य को सम्पन्न करवाने में व्यस्त थी , जिसके कारण कलाकारों के समूह के साथ दिल्ली से पलायन करने वाली तवायफे अपने समूह के साथ लखनऊ , फैजाबाद , जौनपुर व अन्य क्षेत्रो में इधर - उधर डेरा डालकर अपने गायन , वादन व नृत्य की कला के माध्यम से जीविकोपार्जन करती रही |
सन 1748 में दिल्ली के बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले की मृत्यु हो गयी परिणाम स्वरूप सन 1738 में नादिरशाह के क्रूर आक्रमण काल के समय जो तवायफे और संगीतज्ञ अन्यत्र कही पलायन न करके दिल्ली में रुक गये थे उनके साथ बहुत बुरा हुआ | पलायन की इस प्रक्रिया में कुछ तवायफे अपने समूह के साथ प्रश्रय हेतु फैजाबाद के तत्कालीन नवाब सफदर गंज 1739 -1754 के दरबार जा पहुची | किन्तु वहाँ उनको सहारा न मिल सका | उसके उपरान्त जब सत्ता की बागडोर शुजाउद्दौला 1754 - 1775 के हाथो आई तो उन्होंने इन सबको प्रश्रय दे दिया | कमश: शुजाउद्दौला का इन तवायफो के प्रति आकर्षण इतना बढ़ गया कि जब भी वो कही बाहर की यात्रा करते तो तवायफो और उनके संगीतज्ञो को भी अपने साथ ले जाते | यही नही वरन उनके शासनकाल के समय शहर की पूरी रात तवायफो के घुघरूओ की रुनझुन से गुजायमान रहती थी |
सत्ता की बागडोर आसफुद्दौला 1775 - 1798 के हाथो आई और उन्होंने राजपाट के कार्य को फैजाबाद से लखनऊ स्थानातरित करते हुए स्वंय भी लखनऊ में रहने का निर्णय लिया | उनके लखनऊ पहुचते ही न की मात्र फैजाबाद की तवायफे अपनी संगीत मण्डली के साथ लखनऊ पहुच गयी | इस क्रम में पंजाब की अनेक तवायफे भी लखनऊ आकर बस गयी | लखनऊ आने वाली इन सभी तवायफो को उनके मूल स्थान से अधिक सरक्षण एवं सम्मान लखनऊ में मिला | कहा जाता है कि आसफुद्दौला , सन 1795 में अपने पुत्र वजीर अली की बारात में तवायफो के एक बड़े समूह को जिनकी संख्या सैकड़ो में आंकी जाती है , अपने साथ ले गये थे |
क्रमश: तवायफो की घुसपैठ नवाबो के बीच बढती ही चली गयी | महफ़िलो में तवायफो की उपस्थिति उनकी प्रतिष्ठा व गरिमा का प्रतीक बन गया |
नवाब सआदत अली खा 1798 - 1814 के बारे में प्रसिद्ध है कि अपने कार्यालय के कमरे में जहां बैठकर वह अपने राजकीय कार्यो को निपटाते थे , उसके एक ओर तवायफो की चौकी सजी रहती थी | जब नवाब अपने कार्य से थक जाते थे तो तवायफे अपने नृत्य के हाव - भाव प्रदर्शन के माध्यम से उनके दिलो दिमाग को ताजा करती थी | गाजीउद्दीन हैदर 1814 - 1827 के विषय में कहा जाता है ई इन्ही के समय से मोहर्रम के दो महीने व आठ दिनों के बीच मातम के रूप में सोजख्वानी अंदाज में मर्सिया पढ़े जाने की परम्परा की शुरुआत हुई |
नसीरुद्दीन हैदर 1827- 1837 के विषय में तवायफो से सम्बन्धित केवल एक घटना का विवरण मिलता है जिसमे उन्होंने एक पुस्तक में दिए गये राग - रागनियो के अनुरूप 500 तवायफो को सुसज्जित करवाकर प्रत्येक रागनी के लिए तीस दिनों तक अलग अलग नृत्य कार्यक्रम आयोजित करवाया | बाद में मुम्मद अली शाह 1837 - 1842 तथा नवाब अमजद अली 1842 - 1847 के शासनकाल में इन तवायफो को शासन की तरफ से कोई प्रोत्साहन न मिलने के कारन तवायफो का एक बड़ा वर्ग लखनऊ से अन्यत्र कही और पलायन कर गया | जब वाजिद अली शाह 1847 - 1856 ने सत्ता की बागडोर सम्भाली तो तवायफो के साथ सभी संगीतकारों के पाव बारह हो गये तथापि उल्लेखनीय है ई इन तवायफो से सम्बन्ध बनाये रखने की प्रक्रिया में नवाबो ने उसन सबसे एक गरिमामय दुरी अवश्य बनाये रखी |
लखनऊ में नवाबो की सन1775 से1856 के बीच की यात्रा में लखनऊ के चौक क्षेत्र में इन तवायफो एवं वैश्याओ के समूहों के अनेक ठिकाने स्थापित हो गए | चौक , जो कभी धार्मिक क्रित्र्यो का गढ़ माना जाता था उसका एक महत्वपूर्ण क्षेत्र ऐय्याशी के अड्डे के रूप में परिवर्तित हो गया | तथापि नवाबो के समय तवायफो एवं वैश्याओ के उन अड्डो में एक अनुशासन स्थापित रहा |

प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार -- आभार हमारा लखनऊ पुस्तक से - लेखक -रामकिशोर बाजपेयी |


प्राचीनकाल के भारत में भी कभी लगभग इसी प्रकार के व्यवसाय से जुडी नारिया हुआ करती थी जिन्हें प्राचीन भाषा में गणिका, पतुरिया नटीनिया , वैश्या आदि कहकर सम्बोधित किया जता था | कालान्तर , देश में उर्दू भाषा के प्रादुर्भाव के साथ गजलो की प्रस्तुती का चलन प्रारम्भ हुआ जिसकी प्रस्तुतकर्ता गणिकाओ को तवायफ कहकर सम्बोधित किया जाने लगा और शारीरिक सम्बन्धो को स्थापित करके जीविकोपार्जन करने वाली वैश्याओ को रंडी शब्द से |
पुरातन समय में लखनऊ एक धार्मिक नगरी हुआ करती थी , जहां चौक क्षेत्र के निकट प्रवाहित गोमती के तट पर यज्ञादि अनुष्ठान सम्पन्न हुआ करते थे | ऐतिहासिक दृष्टि से भारत में लूटपाट मचाने के उपरान्त जब टर्कीस्तान का महमूद गजनवी सन 1026 - 27 में सिंध के जाटो से युद्ध करता हुआ अपने देश वापस चला गया तो उसकी सेना में कार्यरत परशिया के शेखो और अफगानिस्तान के पठानों का एक समूह लखनऊ आकर बस गया | तेरहवी शताब्दी में बिजनौर से लखनऊ आकर बसे शेखो - पठानों के बर्चस्व के उपरान्त यहाँ कुछ समय के लिए हिन्दुओ के धार्मिक अनुष्ठान ढीले पड़ गये और शासक वर्ग की छत्रछाया में दरगाहो में कव्वालियो की संस्कृति पनपने लगी , जिसमे चौदहवी सदी के अन्त में लखनऊ आकर बसे फकीर हाजी हरमैन मृत्यु 1436 तथा शाह मीना मृत्यु 1479 के नाम उल्लेखनीय है | कालांतर , इन्ही शेखो और पठानों के शासनकाल में ही पंद्रहवी सदी में जयपुर राज्य के राजकीय सम्मान से विभूषित पंडित विष्णु शर्मा नामक एक विद्वान् ने लखनऊ में पदार्पण किया और चौक क्षेत्र में प्रवाहित गोमती नदी के किनारे यज्ञशाला स्थापित करते हुए वहाँ सोमयज्ञ सम्पन्न कराया और उसके उपरान्त उपरोक्त यज्ञशाला अपने पुत्रो को सौपकर स्वंय गोला गोकरन नाथ चले गये | लखनऊ में रुके पंडित विष्णु शर्मा के पुत्र प्रीतिकर शर्मा एवं ओनके पुत्र बुद्धि शर्मा ने भी एक - एक सोमयज्ञ सम्पन्न करवाया | इन यज्ञो में शास्त्र के नियमो के अनुरूप परम्परागत गायन - वादन एवं नृत्यग्नाओ के नृत्य के कार्यक्रम सम्पन्न हुए , किन्तु इन नृत्यों में धार्मिक तत्व निहित थे |
उल्लेखनीय यह है कि यद्दपि उन दिनों शेख और पठान अपने कठोर शासन के लिए प्रसिद्द थे पर उन लोगो ने इन अनुष्ठानो में कही कोई व्यवधान नही डाला | सन्दर्भवश सोमयज्ञ को वाजपेयी यज्ञ भी कहा जाता है | लखनऊ के वाजपेयी कहे जाने वाले लोग इन्ही पंडित विष्णु शर्मा के वंशज हैं |
उस समय तक लखनऊ में तवायफो एवं वैश्याओ की उपस्थिति का कोई संकेत नही मिलता |
लखनऊ तथा उसके आसपास के क्षेत्रो में तवायफो के आगमन का क्रम तब प्रारम्भ हुआ , जब दिल्ली के बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले के उपर सन 1738 में नादिरशाह का बर्बर आक्रमण हुआ | उनकी निर्दयता से आक्रान्ता साहित्यकार कलाकार , गायन , वादन , संगीतज्ञ ,नर्तकिया आदि सभी दिल्ली छोड़ अन्यत्र भागने लगे | उस समय फैजाबाद में मोहम्मद शाह'रंगीले ' के सैन्य अधिकारी सेनापति मोहम्मद अमीन उर्फ़ बुरहान - उल - मुल्क 1724 - 1739 लखनऊ को शेखो एवं पठानों के चंगुल से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से नियुक्त थे | अत: उस समय वह एवं उनकी शासन व्यवस्था उसी कार्य को सम्पन्न करवाने में व्यस्त थी , जिसके कारण कलाकारों के समूह के साथ दिल्ली से पलायन करने वाली तवायफे अपने समूह के साथ लखनऊ , फैजाबाद , जौनपुर व अन्य क्षेत्रो में इधर - उधर डेरा डालकर अपने गायन , वादन व नृत्य की कला के माध्यम से जीविकोपार्जन करती रही |
सन 1748 में दिल्ली के बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले की मृत्यु हो गयी परिणाम स्वरूप सन 1738 में नादिरशाह के क्रूर आक्रमण काल के समय जो तवायफे और संगीतज्ञ अन्यत्र कही पलायन न करके दिल्ली में रुक गये थे उनके साथ बहुत बुरा हुआ | पलायन की इस प्रक्रिया में कुछ तवायफे अपने समूह के साथ प्रश्रय हेतु फैजाबाद के तत्कालीन नवाब सफदर गंज 1739 -1754 के दरबार जा पहुची | किन्तु वहाँ उनको सहारा न मिल सका | उसके उपरान्त जब सत्ता की बागडोर शुजाउद्दौला 1754 - 1775 के हाथो आई तो उन्होंने इन सबको प्रश्रय दे दिया | कमश: शुजाउद्दौला का इन तवायफो के प्रति आकर्षण इतना बढ़ गया कि जब भी वो कही बाहर की यात्रा करते तो तवायफो और उनके संगीतज्ञो को भी अपने साथ ले जाते | यही नही वरन उनके शासनकाल के समय शहर की पूरी रात तवायफो के घुघरूओ की रुनझुन से गुजायमान रहती थी |
सत्ता की बागडोर आसफुद्दौला 1775 - 1798 के हाथो आई और उन्होंने राजपाट के कार्य को फैजाबाद से लखनऊ स्थानातरित करते हुए स्वंय भी लखनऊ में रहने का निर्णय लिया | उनके लखनऊ पहुचते ही न की मात्र फैजाबाद की तवायफे अपनी संगीत मण्डली के साथ लखनऊ पहुच गयी | इस क्रम में पंजाब की अनेक तवायफे भी लखनऊ आकर बस गयी | लखनऊ आने वाली इन सभी तवायफो को उनके मूल स्थान से अधिक सरक्षण एवं सम्मान लखनऊ में मिला | कहा जाता है कि आसफुद्दौला , सन 1795 में अपने पुत्र वजीर अली की बारात में तवायफो के एक बड़े समूह को जिनकी संख्या सैकड़ो में आंकी जाती है , अपने साथ ले गये थे |
क्रमश: तवायफो की घुसपैठ नवाबो के बीच बढती ही चली गयी | महफ़िलो में तवायफो की उपस्थिति उनकी प्रतिष्ठा व गरिमा का प्रतीक बन गया |
नवाब सआदत अली खा 1798 - 1814 के बारे में प्रसिद्ध है कि अपने कार्यालय के कमरे में जहां बैठकर वह अपने राजकीय कार्यो को निपटाते थे , उसके एक ओर तवायफो की चौकी सजी रहती थी | जब नवाब अपने कार्य से थक जाते थे तो तवायफे अपने नृत्य के हाव - भाव प्रदर्शन के माध्यम से उनके दिलो दिमाग को ताजा करती थी | गाजीउद्दीन हैदर 1814 - 1827 के विषय में कहा जाता है ई इन्ही के समय से मोहर्रम के दो महीने व आठ दिनों के बीच मातम के रूप में सोजख्वानी अंदाज में मर्सिया पढ़े जाने की परम्परा की शुरुआत हुई |
नसीरुद्दीन हैदर 1827- 1837 के विषय में तवायफो से सम्बन्धित केवल एक घटना का विवरण मिलता है जिसमे उन्होंने एक पुस्तक में दिए गये राग - रागनियो के अनुरूप 500 तवायफो को सुसज्जित करवाकर प्रत्येक रागनी के लिए तीस दिनों तक अलग अलग नृत्य कार्यक्रम आयोजित करवाया | बाद में मुम्मद अली शाह 1837 - 1842 तथा नवाब अमजद अली 1842 - 1847 के शासनकाल में इन तवायफो को शासन की तरफ से कोई प्रोत्साहन न मिलने के कारन तवायफो का एक बड़ा वर्ग लखनऊ से अन्यत्र कही और पलायन कर गया | जब वाजिद अली शाह 1847 - 1856 ने सत्ता की बागडोर सम्भाली तो तवायफो के साथ सभी संगीतकारों के पाव बारह हो गये तथापि उल्लेखनीय है ई इन तवायफो से सम्बन्ध बनाये रखने की प्रक्रिया में नवाबो ने उसन सबसे एक गरिमामय दुरी अवश्य बनाये रखी |
लखनऊ में नवाबो की सन1775 से1856 के बीच की यात्रा में लखनऊ के चौक क्षेत्र में इन तवायफो एवं वैश्याओ के समूहों के अनेक ठिकाने स्थापित हो गए | चौक , जो कभी धार्मिक क्रित्र्यो का गढ़ माना जाता था उसका एक महत्वपूर्ण क्षेत्र ऐय्याशी के अड्डे के रूप में परिवर्तित हो गया | तथापि नवाबो के समय तवायफो एवं वैश्याओ के उन अड्डो में एक अनुशासन स्थापित रहा |

प्रस्तुती - सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार -- आभार हमारा लखनऊ पुस्तक से - लेखक -रामकिशोर बाजपेयी |

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (20-02-2017) को "सेमल ने ऋतुराज सजाया" (चर्चा अंक-2886) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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