लू शुन -- एक परिचय -- लेखक फेंग शुएफेंग
लू शुन का असली नाम झाऊ शु रेन था | वे 25 सितम्बर 1881 को झेजियांग प्रांत के शाओशिंग में पैदा हुए थे | उनका जन्म एक विद्वान् अधिकारी परिवार में हुआ था | लू शुन के जन्म के समय उनके दादा बीजिंग के एक दफ्तर में काम करते थे | जब वे 13 साल के थे , तभी उनके दादा को जेल में डाल दिया गया था | उनका परिवार इस आघात से कभी उभर नही पाया | लू शुन के पिता भी एक विद्वान् थे , लेकिन उन्हें कभी नौकरी नही मिली और वे हमेशा गरीबी में ही परिवार पालते रहे | दादा के गिरफ्तार हो जाने पर उनके पिता गंभीर रूप से बीमार हो गये और तीन साल बाद , अपनी मृत्यु तक बिस्तर से उठ न सके | इस कारण लू शुन का परिवार गरीबी की गर्त में चला गया | उनकी माँ एक सक्षम महिला थी | वे भी एक विद्वान् की बेटी थी |हालाकि उनका लालन - पालन देहात में हुआ था फिर भी उन्होंने पढना सीखा | उनकी उदारता और जीवटता का उनके पुत्र पर काफी गहरा असर हुआ | उनकी नौकरानी का नाम लू था और उसी के नाम पर लू शुन ने अपना उपनाम रखा |
लू शुन के बचपन में ही उनके सभी रिश्तेदार उनकी समझदारी से प्रभावित थे | वे 6 साल की उम्र में स्कूल में दाखिल हुए और जल्दी ही उन्होंने प्राचीन क्लासकीय साहित्य पढना शुरू कर दिया | वे 17 साल की उम्र तक शाओशिंग में ही रहे , यहाँ से बाहर वे केवल एक बार अपने चाचा के साथ कुछ समय के लिए देहात में रहे |
इन 12 सालो में लू शुन ने चीन के बहुत से प्राचीन क्लासकीय ग्रंथो का अध्ययन कर लिया | इससे उनके दिमाग में न केवल उनका चित्र खीच गया , बल्कि उन्होंने प्राचीन ग्रंथो की नयी व्याख्या पर जोर दिया और उनके बारे में स्थापित नजरिये और सामन्ती पितृसत्तात्मक समाज में पुरातन पंथी पारम्परिक नीतिशास्त्र को चुनौती देने का साहस किया | ग्रंथो और इतिहास के अध्ययन के साथ - साथ उन्होंने पौराणिक कथाओं , अनौपचारिक इतिहास विविध निबन्धों और दंतकथाओ में भी विशेष रूचि ली |
युवा लू शुन ने जन कला में भी बहुत आनन्द लिया , जैसे - नए साल की तस्वीरे , किस्से और दंतकथाए , धार्मिक जलूस और ग्रामीण नृत्य नाटिका |
किशोरावस्था में उन्हें चित्रकारी पसंद थी | उन्होंने तस्वीरो के एल्बम और सचित्र किताबे इकठ्ठी की और इन एल्बम और प्रेम कथाओ में वे काष्ठकला की तलाश करते थे | उन्होंने कार्टून भी बनाये |
देहात से परिचय और साधारण , ईमानदार किसानो के ढेर सारे बच्चो से दोस्ती लू शुन की किशोरावस्था की विशेषताओं में से एक थी | इसने उनके चरित्र और लेखन , दोनों पर काफी अधिक प्रभाव डाला | बड़े होने पर लू शुन ने इन सम्बन्धो और मित्रताओ को अपने जीवन के सबसे अच्छे दिनों के रूप में याद किया | मेहनतकश जनता के साथ लू शुन के आत्मिक रिश्ते की शुरुआत करने में इनकी महत्पूर्ण भूमिका थी |
लेकिन , जिस चीज ने वास्तव में लू शुन को क्रान्ति के रास्ते पर आगे बढने के लिए प्रेरित किया , वह था विदेशी ताकतों का देश में अतिक्रमण और चीनी सामन्तवाद का दिवालियापन |
लू शुन के बचपन में ही साम्राजवादी हमला तेज हो गया था किवंग साम्राज्य अधिकाधिक पतित और नपुंसक होता जा रहा था | अपने शासन को टिकाये रखने के प्रयास में उसने विदेशी ताकतों को खुश करने के लिए खुद अपनी और अपने भू भाग के एक हिस्से की सम्प्रभुता को उनके हवाले कर दिया और जनता के देशभक्ति पूर्ण प्रतिरोध का दमन किया | अर्द्ध - औपनिवेशिक अव्श्था तक निचे गिरकर चीन , साम्राज्वादियो द्वारा बाट लिए जाने के आसन्न खतरे में पड़ गया था |
लू शुन ने चार साल नानजिंग में बिठाये | जिस समय वे वहाँ रह रहे थे , उसी समय सवैधानिक राजतंत्र की स्थापना के लिए 1898 का सुधर आन्दोलन , साम्राज्यवाद विरोधी हे तुवां विद्रोह , आठ साम्राज्यवादी शक्तियों की संयुक्त सेनाओं द्वारा 1900 में बीजिंग पर हमला और 1901 में चीन के उपर आक्रामक शक्तियों द्वारा थोपी गयी अपमानजनक नयी शर्त जैसी घटनाए हुई , जब देश का भविष्य हवा में लटक रहा था | इन चार वर्षो के दौरान लू शुन इस बात के कायल हो गये कि साम्राज्यवाद और किविंग साम्राज्य के खिलाफ समूचे राष्ट्र का विद्रोह जरूरी है | टी एच हक्सले की पुस्तक इवोल्यूशन एंड इथिक्स के चीनी अनुवाद का इस अवधि में उन पर काफी अधिक प्रभाव हुआ | इसने न केवल उन्हें डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत को अपनी दिशा निर्देशक बनाने के लिए प्रेरित किया , बल्कि अपने क्रांतिकारी रास्ते के रूप में विज्ञान का अध्ययन और प्रचार - प्रसार करने के लिए उत्साहित किया |1901 में उन्होंने स्कूल आफ रेलवेज एंड माइस से स्नातक किया और अगले साल उन्हें जापान में पढ़ाई करने के लिए सरकारी वजीफा मिला | लू शुन सीधे जापान पहुचे | वे पहले से अधिक प्रबल देशभक्त हो गये | वहां रहने वाले चीनी विद्यार्थी के बीच किविंग विरोधी आन्दोलन अपनी ऊँचाई पर था और जापान एक साम्राज्यवादी शक्ति बनने के लिए युद्द की तयारी कर रहता | चीन की स्थितियों को लेकर लू शुन के मन में तीव्र आक्रोश था , जिसने उन्हें अपना जीवन देश के लिए न्योछावर करने के लिए पूरी तरह तैयार किया | अपने खली समय में वे यूरोपीय विज्ञानं , दर्शन और साहित्य का अध्ययन करते थे | जापान में रहते हुए ही उन्हें पहली बार बायरन , शैली , हाइने, पुश्किन , लरमन्तोव , मैकियेविज और पेतोफी जैसे क्रांतिकारी कवियों के साथ जर्मन भाषा में पढ़ी | इस उम्मीद में की चिकित्सा विज्ञान चीन के क्रांतिकारी आन्दोलन में मदद पहुचायेगा , लू शुन ने सेनडाई के मेडिकल कालेज में प्रवेश लिया , लेकिन दो साल से भी कम समय में ही कुछ ऐसा हुआ की उन्होंने अपना मन बदल लिया | उन्होंने रूस - जापान युद्द के उपर एक समाचार ध्वनी चित्र देखा जिसमे उत्पीडित चीनियों की उदासीनता दर्शाई गयी थी | इस घटना ने उन्हें गहराई तक हिला दिया | उसके बाद जल्दी ही लू शुन ने मेडिकल कालेज छोड़ दिया क्योकि उन्ही के शब्दों में ''इस ध्वनि- चित्र ने मुझे विशवास दिलाया की कुल मिलाकर चिकित्सा विज्ञान उतना महत्वपूर्ण नही है | किसी कमजोर और पिछड़े देश की जनता , चाहे वह जितना भी मजबूत और स्वस्थ कायो न हो , केवल उन्हें इसी तरह के व्यर्थ तमाशो का उदाहरण या दर्शक ही बनना होगा और इस तरह इस से कोई ख़ास फर्क नही पड़ता , अगर उनमे से ढेर सारे लोग बीमार होकर मर ही जाए | इसलिए सबसे महत्वपूर्ण चीज उनकी अंतरात्मा को बदलना है और तभी मैंने उस समय महसूस किया कि इस उदेश्य को पूरा करने का सबसे अच्छा साधन साहित्य है और एक ऐतिहासिक आन्दोलन को आगे बढाने का निर्णय लिया | यह घटना १९०६ की है |
हालाकि 1906 और 1907 के बीच टोकियो में जिस साहित्यिक पत्रिका के प्रकाशन की उन्होंने योजना बनाई थी , वह परवान नही चढ़ी | लेकिन उसी साल उन्होंने ''पैशाचिक कवियों के बारे में ' जैसे लेख लिखे तथा रूस और पूर्वी - उत्तरी यूरोप के अन्य देशो के लेखको की रचनाओं का अनुवाद किया , जिसके साथ ही उनके साहित्यिक जीवन की अत्यंत महत्वपूर्ण शुरुआत हुई | 1908 में वे किविंग विरोधी क्रांतिकारी पार्टी , गुआंगफू में शामिल हो गये |
लू शुन के बचपन में ही उनके सभी रिश्तेदार उनकी समझदारी से प्रभावित थे | वे 6 साल की उम्र में स्कूल में दाखिल हुए और जल्दी ही उन्होंने प्राचीन क्लासकीय साहित्य पढना शुरू कर दिया | वे 17 साल की उम्र तक शाओशिंग में ही रहे , यहाँ से बाहर वे केवल एक बार अपने चाचा के साथ कुछ समय के लिए देहात में रहे |
इन 12 सालो में लू शुन ने चीन के बहुत से प्राचीन क्लासकीय ग्रंथो का अध्ययन कर लिया | इससे उनके दिमाग में न केवल उनका चित्र खीच गया , बल्कि उन्होंने प्राचीन ग्रंथो की नयी व्याख्या पर जोर दिया और उनके बारे में स्थापित नजरिये और सामन्ती पितृसत्तात्मक समाज में पुरातन पंथी पारम्परिक नीतिशास्त्र को चुनौती देने का साहस किया | ग्रंथो और इतिहास के अध्ययन के साथ - साथ उन्होंने पौराणिक कथाओं , अनौपचारिक इतिहास विविध निबन्धों और दंतकथाओ में भी विशेष रूचि ली |
युवा लू शुन ने जन कला में भी बहुत आनन्द लिया , जैसे - नए साल की तस्वीरे , किस्से और दंतकथाए , धार्मिक जलूस और ग्रामीण नृत्य नाटिका |
किशोरावस्था में उन्हें चित्रकारी पसंद थी | उन्होंने तस्वीरो के एल्बम और सचित्र किताबे इकठ्ठी की और इन एल्बम और प्रेम कथाओ में वे काष्ठकला की तलाश करते थे | उन्होंने कार्टून भी बनाये |
देहात से परिचय और साधारण , ईमानदार किसानो के ढेर सारे बच्चो से दोस्ती लू शुन की किशोरावस्था की विशेषताओं में से एक थी | इसने उनके चरित्र और लेखन , दोनों पर काफी अधिक प्रभाव डाला | बड़े होने पर लू शुन ने इन सम्बन्धो और मित्रताओ को अपने जीवन के सबसे अच्छे दिनों के रूप में याद किया | मेहनतकश जनता के साथ लू शुन के आत्मिक रिश्ते की शुरुआत करने में इनकी महत्पूर्ण भूमिका थी |
लेकिन , जिस चीज ने वास्तव में लू शुन को क्रान्ति के रास्ते पर आगे बढने के लिए प्रेरित किया , वह था विदेशी ताकतों का देश में अतिक्रमण और चीनी सामन्तवाद का दिवालियापन |
लू शुन के बचपन में ही साम्राजवादी हमला तेज हो गया था किवंग साम्राज्य अधिकाधिक पतित और नपुंसक होता जा रहा था | अपने शासन को टिकाये रखने के प्रयास में उसने विदेशी ताकतों को खुश करने के लिए खुद अपनी और अपने भू भाग के एक हिस्से की सम्प्रभुता को उनके हवाले कर दिया और जनता के देशभक्ति पूर्ण प्रतिरोध का दमन किया | अर्द्ध - औपनिवेशिक अव्श्था तक निचे गिरकर चीन , साम्राज्वादियो द्वारा बाट लिए जाने के आसन्न खतरे में पड़ गया था |
लू शुन ने चार साल नानजिंग में बिठाये | जिस समय वे वहाँ रह रहे थे , उसी समय सवैधानिक राजतंत्र की स्थापना के लिए 1898 का सुधर आन्दोलन , साम्राज्यवाद विरोधी हे तुवां विद्रोह , आठ साम्राज्यवादी शक्तियों की संयुक्त सेनाओं द्वारा 1900 में बीजिंग पर हमला और 1901 में चीन के उपर आक्रामक शक्तियों द्वारा थोपी गयी अपमानजनक नयी शर्त जैसी घटनाए हुई , जब देश का भविष्य हवा में लटक रहा था | इन चार वर्षो के दौरान लू शुन इस बात के कायल हो गये कि साम्राज्यवाद और किविंग साम्राज्य के खिलाफ समूचे राष्ट्र का विद्रोह जरूरी है | टी एच हक्सले की पुस्तक इवोल्यूशन एंड इथिक्स के चीनी अनुवाद का इस अवधि में उन पर काफी अधिक प्रभाव हुआ | इसने न केवल उन्हें डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत को अपनी दिशा निर्देशक बनाने के लिए प्रेरित किया , बल्कि अपने क्रांतिकारी रास्ते के रूप में विज्ञान का अध्ययन और प्रचार - प्रसार करने के लिए उत्साहित किया |1901 में उन्होंने स्कूल आफ रेलवेज एंड माइस से स्नातक किया और अगले साल उन्हें जापान में पढ़ाई करने के लिए सरकारी वजीफा मिला | लू शुन सीधे जापान पहुचे | वे पहले से अधिक प्रबल देशभक्त हो गये | वहां रहने वाले चीनी विद्यार्थी के बीच किविंग विरोधी आन्दोलन अपनी ऊँचाई पर था और जापान एक साम्राज्यवादी शक्ति बनने के लिए युद्द की तयारी कर रहता | चीन की स्थितियों को लेकर लू शुन के मन में तीव्र आक्रोश था , जिसने उन्हें अपना जीवन देश के लिए न्योछावर करने के लिए पूरी तरह तैयार किया | अपने खली समय में वे यूरोपीय विज्ञानं , दर्शन और साहित्य का अध्ययन करते थे | जापान में रहते हुए ही उन्हें पहली बार बायरन , शैली , हाइने, पुश्किन , लरमन्तोव , मैकियेविज और पेतोफी जैसे क्रांतिकारी कवियों के साथ जर्मन भाषा में पढ़ी | इस उम्मीद में की चिकित्सा विज्ञान चीन के क्रांतिकारी आन्दोलन में मदद पहुचायेगा , लू शुन ने सेनडाई के मेडिकल कालेज में प्रवेश लिया , लेकिन दो साल से भी कम समय में ही कुछ ऐसा हुआ की उन्होंने अपना मन बदल लिया | उन्होंने रूस - जापान युद्द के उपर एक समाचार ध्वनी चित्र देखा जिसमे उत्पीडित चीनियों की उदासीनता दर्शाई गयी थी | इस घटना ने उन्हें गहराई तक हिला दिया | उसके बाद जल्दी ही लू शुन ने मेडिकल कालेज छोड़ दिया क्योकि उन्ही के शब्दों में ''इस ध्वनि- चित्र ने मुझे विशवास दिलाया की कुल मिलाकर चिकित्सा विज्ञान उतना महत्वपूर्ण नही है | किसी कमजोर और पिछड़े देश की जनता , चाहे वह जितना भी मजबूत और स्वस्थ कायो न हो , केवल उन्हें इसी तरह के व्यर्थ तमाशो का उदाहरण या दर्शक ही बनना होगा और इस तरह इस से कोई ख़ास फर्क नही पड़ता , अगर उनमे से ढेर सारे लोग बीमार होकर मर ही जाए | इसलिए सबसे महत्वपूर्ण चीज उनकी अंतरात्मा को बदलना है और तभी मैंने उस समय महसूस किया कि इस उदेश्य को पूरा करने का सबसे अच्छा साधन साहित्य है और एक ऐतिहासिक आन्दोलन को आगे बढाने का निर्णय लिया | यह घटना १९०६ की है |
हालाकि 1906 और 1907 के बीच टोकियो में जिस साहित्यिक पत्रिका के प्रकाशन की उन्होंने योजना बनाई थी , वह परवान नही चढ़ी | लेकिन उसी साल उन्होंने ''पैशाचिक कवियों के बारे में ' जैसे लेख लिखे तथा रूस और पूर्वी - उत्तरी यूरोप के अन्य देशो के लेखको की रचनाओं का अनुवाद किया , जिसके साथ ही उनके साहित्यिक जीवन की अत्यंत महत्वपूर्ण शुरुआत हुई | 1908 में वे किविंग विरोधी क्रांतिकारी पार्टी , गुआंगफू में शामिल हो गये |
प्रस्तुती --- सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक अनुवादक -- दिगम्बर
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (09-02-2017) को (चर्चा अंक-2874) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'