जंगे - आजादी - ए - हिन्द पर नजरेसानी
लहू बोलता भी है ---सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी
हिन्दुस्तान की जंगे - आजादी , जिसे आमतौर पर करींब नब्बे सालों की जेद्दोजेहद का सिलसिला माना जाता है , वह दरअसल और पहले से शुरू हो गया था | पहले तो आम तारीखनवीस , जो जाहिरन अंग्रेजी नजरिये के हामी रहे है , सन 1857 के जद्दोजहद को आजादी की लड़ाई मानने से ही गुरेज करते रहे है -- मगर अब हिन्दुस्तानी तारीख़नवीसों के दबाव में उसे पहली जंगे - आजादी करार दिया गया , तब भी इसके सिलसिले को 17वी सदी से न जोड़कर सन 1857 से ही शुरू हुआ अमूमन मान लिया जाता है | जबकि सच यह है कि यह सिलसिला ज्यादा नही तो कम से कम सौ साल और क्बल सन 1757 में प्लासी की जंग से शुरू हो गया था |
जंगे - आजादी - ए - हिन्द पर नजरेसानी के तहत यहाँ पेश है इस बारे में सिलसिलेवार तफसील |
प्लासी की जंग
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यह जंग 23 जून सन 1757 को मुर्शिदाबाद के द्किखन में गंगा - किनारे बसे नदिया जिले के प्लासी के मैदान पर हुई थी | यह जंग इसलिए भी ख़ास मानी जाती है कि इसमें पहली बार खुद ब्रिटिश फ़ौज ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना के तौर पर बंगाल के नवाब की फ़ौज से आमने सामने की लड़ाई लड़ रही थी | कम्पनी की सेना राबर्ट क्लाइब के कयादत में पहले दौर में जब कामयाब नही हुई तो जल्द ही कुटनीतिक चाल चलते हुए लालच देकर नवाब के वजीरे - जंग के अलावा दो दरबारियों और नवाब के भरोसेमंद सलाहकार सेठ जगतनारायण को अपनी तरफ मिला लिया और इस तरह कम्पनी की सेना ने दूसरे दौर की जंग में नवाब को धोखे से हरा दिया | सबूत कहते है राबर्ट क्लाइव और जगत सेठ ने साजिशकर मीर जाफर के बेटे मीर कासिम को खरीदकर नवाब की फ़ौज में भी अपनी खासी पैठ बना ली थी , जिसकी वजह से दूसरे दौर की लड़ाई के वक्त नवाब की आधी फ़ौज जंग में पहुचं ही नही पायी थी और नवाब को नतीजतन हार का मुँह देखना पडा | दोबारा नवाब अपनी फौजी तैयारी कर ही रहे थे कि मीर कासिम ने धोखे से नवाब का कत्ल कर दिया उसके बाद सब कुछ खुद - ब- खुद खत्म हो गया | प्लासी की इस लड़ाई में अंग्रेजो के जरिये नवाब की हार को हिदुस्तान की बदकिस्मती के दिनों की शुरुआत माना जाता है एक तरफ बरतानवी हुकूमत के हौसले बुलंद हुए और दूसरी तरफ हिदुस्तान की गुलामी का दौर शुरू हो गया |
नवाब सिराजुद्दौला की शिकस्त से मैसूर भी बेखबर नही था | हैदर अली ने हर वाकिये पर बड़ी बारीकी से नजर रखकर हालात का सामना करने की तैयारी कर लिए थे | उन्होंने अंग्रेजो की गन्दी - लालची नजर पढ़ ली थी | हुआ भी आखिरकार वही जिसकी उम्मीद थी - बंगाल की फतह के बाद अंग्रेजी फ़ौज ने मैसूर की तरफ रुख किया , लेकिन मैसूर के तवागार बार्डर पर उन्होंने अंग्रेजो को खदेड़ दिया | इसके बाद तो यह सिलसिला लगातार चलता रहा | बरसों तक हैदर अली की फ़ौज ने वकत - ब- वक्त ब्रिटिश फ़ौज से जमकर मुकाबला किया | इन लड़ाइयो में हैदर अली को नुक्सान तो भारी हुआ , लेकिन अंग्रेजो से किसी तरह का समझौता उन्हें गवारा न हुआ | हैदर अली के इंतकाल के बाद उनके बेटे टीपू सुल्तान ने अंग्रेजो से लोहा लेना जारी रखा | हिन्दुस्तान की तवारीख में टीपू सुल्तान का नाम एक ऐसे बहादुर के तौर पर बाइज्जत लिया जाता है जिन्होंने अपनी सुझबुझ और बहादुरी का लोहा अंग्रेजो से मनवाकर दिखाया | पहली बार की जंग में अंग्रेजो को उनके सामने घुटने टेकने पर मजबूर होना पडा | उनकी बहादुरी और मजबूत इरादे के वजह से ही उन्हें ''शेरे - मैसूर '' कहा जाता है | उनका यह कौल जग जाहिर है कि ''गीदड़ की सौ साल की जिन्दगी जीने से बेहतर है की शेर की तरह एक दिन की जिन्दगी जीना '' | उनकी बहादुरी और शेरे - दिली का आलम यह था कि एक बार तो अंग्रेज सैनिको ने भी मैसूर की जंग में शामिल होने से इन्कार कर दिया , क्योकि उनके मन में टीपू सुल्तान की फ़ौज का डर बैठ गया था | उनके बारे में भारत के राष्ट्रपति रहे ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा था की दुनिया का पहला राकेट इजाद करने वाला अगर कोई था तो वह टीपू सुलतान ही था | बादशाह टीपू सुल्तान ने ही मुल्क में बाहरी हमलावर अंग्रेजो के जुल्मो - सितम के खिलाफ बिगुल बजाया और जी - जान की बाजी लगाकर बहुत दिनों तक अंग्रेजो को खदेड़ा भी और अंग्रेजो से कभी समझौता नही किया | अपनी आखरी साँस तक अंग्रेजो से लड़ते ही रहे और महज 48 साल की उम्र में उस वक्त शहीद हो गये जब कर्नाटक के श्रीरंगपट्टनम के मैदाने - जंग में 4 मई सन 1799 को अंग्रेजो ने धोखे से उनका कत्ल करवा दिया | टीपू के मरने के बाद करीब दो दिनों तक पूरी अंग्रेजी सेना आपकी लाश के पास तक जाने से डरती रही | आखिरकार आपकी सहादत की जगह पर पहुचकर अंग्रेजो ने जशन मनाया और आपकी तलवार को बतौर निशानी अपने साथ ब्रिटेन ले गये | इसके बाद ही पूरा सूबा अंग्रेजो के हाथ आ गया अंग्रेजो ने टीपू सुल्तान के बेटो को बंदी बनाकर मैसूर के किले में कैद कर दिया | अंग्रेजो ने अब अपना असली रंग दिखाना शुरू किया | उन्होंने सन 1805 में भारतीय सैनिको की वर्दी बदल दी व हिन्दू - मुसलमान दोनों के मजहबी निशाँन लगाने पर पाबंदी लगा दी : जैसे कि हिन्दू सैनिक अपने माथे पर तिलक न लगाये और मुस्लिम सिपाही दाढ़ी न रखे || हिन्दू - मुसलमान दोनों सैनिको को अंग्रेजी हुकम मानने के लिए मजबूर किया जाने लगा | लेकिन दोनों ही फिरको के सैनिक को यह फैसला पसंद नही आया और उनमे बगावत के जज्बात पैदा होने लगे | जिन सैनिको ने इसकी मुखालिफत की , उनमे से कुछ ख़ास - ख़ास हिन्दू और मुसलमान सिपाहियों को पकडकर सरेआम 500 - 900 कोड़े मारे गये और फिर उन्हें माफ़ी मागने के लिए मजबूर किया गया लेकिन उनके बीच यह आग धीमे - धीमे सुलगती रही क्योकि एक तो दोनों ही फिरको के यह सैनिक खुद मुलाजमत करते थे और दूसरे उन्हें एक जुट करने वाली असरदार शख्सियत भी तब सामने नही थी .सैनिको की सुलगती हुई यह धीमी आँच तब भड़कर सामने आई जब जुलाई सन 1806 में टीपू की बेटी की शादी थी , जो बेल्लोर के किले से होनी थी | शादी इस मौके के लिए बड़ी तादात में अवाम किले में इकठ्ठा थी | अपने दिल में बगावत का इरादा पाले कई सैनिक भी उन्ही के साथ किले के अन्दर दाखिल हो गये और कई सैनिको ने किले को बाहर बंद करके घेर लिया | इस तरह दो टुकडो में बटकर उन सैनिको ने अपनी योजना को अन्जाम दिया और शादी की रस्म खत्म होते ही टीपू सुल्तान के खानदान को महफूज जगह पहुचाकर किले में मौजूद अंग्रेजी सेना के लोगो को मार डाला , कुछ घायल भी हुए | सुबह होते - होते उन सैनिको ने किले पर मैसूर के सुल्तान का झण्डा पहराकर टीपू के दुसरे बेटे फ़तेह हैदर के राजा होने का एलान कर दिया| इस बीच एक ब्रिटिश अफसर ने एक बागी सैनिक को हीरा - जवाहरात देकर अपनी मदद के लिए राजी कर लिया और किले के खुफिया रास्ते से भाग निकलने में कामयाब हो गया | वह भागकर आर्र्कोर्ट छावनी पहुचा और वहाँ तैनात सर रोलो गिलेस्पी से मिला और उसे सारा हाल बताया दिन ढलने तक गिलेस्पी की अगुवाई में घुड़सवार अंग्रेज सैनिको ने किले पर हमला आकर दिया | यहाँ बड़ी घमासान लड़ाई हुई , जिसमे जिसमे 100 सैनिक व सामान्य भारतीय नागरिक की मौत हुई 350 लोग घायल हुए | इस तरह किले पर फिर से ब्रिटिश हुकूमत का कब्जा हो गया |
सिपाहियों की इस बगावत से सबक लेकर ब्रिटिश फ़ौज के अफसरों ने भारतीय फ़ौज के लिए बनाये गये कायदे - कानूनों को ओर सख्त कर दिया , ताकि भारतीय सैनिको का बगावती तेवर कम हो जाए . और ऐसा हुआ भी भारतीय सैनिको का गुस्सा धीरे - धीरे खत्म होने लगा | ;
क्रमश: भाग - एक
सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक |
सार्थक लेखन
ReplyDeleteआभार अनिता जी
Deleteआभार बाबू जी
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