लहू भी बोलता है -- सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी
1857 -- 1847 -- की जंगे - आजादी
1857 की जंगे - आजादी को अंग्रेजो ने हालाकि सिपाही विद्रोह या गदर का नाम दिया था , लेकिन असल में यह जंगे - आजादी ही थी | जिसकी अगुवाई मुग़ल हुकूमत के आखरी बादशाह बहादुर शाह जफर ने ही की थी जो कि उर्दू के माहिर और जाने - माने शायर भी थे | उन्होंने अपनी शेरो - शायरी से जंगे - आजादी के लिए जज्बा पैदा किया | सन 1857 की यह पहली जंगे - आजादी सैनिक छावनियो से शुरू होकर करीब दो साल तक मुल्क के तमाम हिस्सों में फ़ैल गयी और एक बारगी समूचा मुल्क ही इस आन्दोलन में शामिल हो गया |
इस पहली जंगे - आजादी के अजीम म्जाहिद अल्लामा फजले हक़ खैराबादी ने सबसे पहले दिल्ली की जामा मस्जिद से अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष का ऐलान किया और खुद बादुर्शाह जफ़र के साथ मिलकर इस जंग को परवान चढाया | इस फतवे के बाद तो पुरे मुल्क का मुस्लिम समाज हो या हिदू समाज हो सारे लोग सडको पर उतर कर अपनी पहुच के मुताबिक़ जंगे - आजादी में हिस्सा लेने के लिए बेताब दिखे | मुल्क का ज्यादातर हिस्सा जंग का मैदान नजर आने लगा |
जंग को काबू करने के लिए अंग्रेजो ने आम अवाम को अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया | अंग्रेज इतिहासकार लिखते है कि इसके बाद अंग्रेजी हुकूमत ने अपना बदला मुसलमानों और खासकर मुस्लिम उल्माओ पर इस कदर उतारा कि हजारो उल्माओ को सरेआम फांसी दे दी गयी ; सैकड़ो को जामा मस्जिद और लाल किले के बीच मैदानों में नागा करके ज़िंदा जलाया गया | कानपुर - फरुखाबाद के बीच जी .टी रोड पर सडक के किनारे जितने भी पेड़ थे , उन सभी पर मौलानाओ को फांसी पर लटका दिया गया और मरने के बाद उन्हें उतारकर कफन - दफ़न की भी इजाजत नही दी गयी | अंग्रेजो का गुस्सा इस जंगे - आजादी में शामिल विद्रोहियों और सिपाहियों तक महदूद नही था बल्कि उनके रिश्तेदारों , औरतो व बच्चो तक को गिरफ्तार करके लाल किले में रखा गया | सभी कैदियों को एक दिन लाल किले के खुनी दरवाजे ( ब्लडी गेट ) से बाहर निकलने को आहा गया | लेकिन बाहर निकलते वक्त उन्हें गोलियों से भुन दिया गया जबकि बचे हुए लोगो को तोप से उड़ा दिया गया | उस वक्त की मंजरकशी शायरे आजम मिर्जा ग़ालिब ने अपने खतूत व शायरी में ब्यान की है | ग़ालिब के इन खतो को आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने ग़ालिब हिज लाइफ एंड लेटर्स के नाम से साया किया है | इस जंगे - आजादी को दर का नाम देकर अंग्रेजो ने इसमें शामिल लोगो पर जो जुल्म ढाया , उसका आलम यह था की दिल्ली में तब लाल किला व जामा मस्जिद के आस - पास लाशो के ढेर पड़े थे की उनको उठानेवाला कोई नही था | उस वक्त अल्लामा फज्लेह्क खैराबादी ने खुद उन लाशो को उठाने की जिम्मेदारी ली और हजारो - हजार लाशो को तर्को के जरिये दूर - दराज भिजवाकर वहां दफ़न कराया | बाद में इसी जंगे - आजादी की अगुवाई के लिए बगावत की कयादत करने के जुर्म में बहादुरशाह जफर को रागुन ( वर्मा ; मौजूदा म्यामार ) भेज दिया गया जहाँ अप आखरी साँस तक रहे | इस बाबत उनका यह शेर आज भी लोगो की जिबान पर है |
'' है कितना बदनसीब जफर दफ़न के लिए
दो गज जमीं भी न मिली कुएं-यार में
अल्लामा फज्लेह्क खैराबादी को भी कालापानी की सजा मिली , जहाँ उन्हें शहादत हासिल हुई |
सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
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