तहरीके - जिन्होंने जंगे - आजादी - ए- हिन्द को परवान चढाया
फकीर आन्दोलन -- भाग - तीन
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ब्रिटिश हुकूमत को एक बड़ी चुनौती मुसलमानों की एक ऐसी तंजीम ने भी दी जिसके कायद रायबरेली ( उत्तर प्रदेश ) के बाहैसियत उलमा खानदान से ताल्लुक रखने वाले मौलाना सैय्यद अहमद थे | उन्होंने वलीउल्लाही के बताये रास्ते पर चलकर इस्लाम में फैली बुराइयों को दूर करने की मुहीम के साथ तबलीग व तहरीक शुरू की थी | वलीउल्लाही के इंतकाल के बाद आपके बेटे अब्दुल अजीज इस जमात के नेता बने , जिन्होंने सन 1803 में फतवा दिया कि भारत अब दारुल - इस्लाम नही रहा | सैय्यद अहमद सन 1808 तक अपनी तालीम पूरी करके टोंक चले गये और वहाँ अमीर खान की फ़ौज में भर्ती हो गये | लेकिन 1817 में जब अमीर खान ने अग्रेजो से समझौता किया तो उन्होंने फ़ौज की नौकरी छोड़ दी , लेकिन तब तक वह फौजी हुनर में माहिर हो गये थे || सन 1817 के बाद सन 1822 तक वह पुरे हिदुस्तान में मजहबी तबलीग और दर्स के साथ - साथ अंग्रेजो के खिलाफ आजादी का माहौल बनाते रहे | उनके माननेवालो की तादात दिन - पर - दिन बढती रही |
1822 में मदीना - मक्का के सफर पर आप अपने हजारो मुरीदो के साथ चले गये जहाँ से अप्रैल संन 1824 में वापस हिन्दुस्तान आये |
जनवरी 1826 को वह रायबरेली से तक़रीबन 600 लोगो को जिसमे औरते भी शामिल थी का काफिला लेकर निकले ग्वालियर , टोंक अजमेर होते हुए सिंध पहुचे सैय्यद का ख्याल था कि सिंध के अमीर उनका साथ देंगे लेकिन मायूस होकर वह शिकारपुर पहुचे यहाँ भी उनके ख्यालो को बहुत तरजीह नही मिली | वहां से वह बलूचिस्तान होते हुए बोलान दर्रे के जरिये क्वेटा और फिर कंधार - गजनी और काबुल होते हुए नवम्बर सन 1826 को पेशावर पहुचें |
3,000 मील लम्बे सफर और 17 महीने तक चले काफिला और उनकी कारगुजारियो पर ब्रिटिश - सरकार की अनदेखी अपने आप में ताज्जुब की बात हैं | ब्रिटिश हुकूमत अपने किसी मकसद के तहत सीधी कार्यवाही से बच रही थी | उस वक्त ब्रिटिश हुकूमत जो चाहती थी वही हुआ | जल्द ही क्रान्तिकारियो ने पेशावर पर हमला करके उसे अपने कब्जे में ले लिया और अपनी ताकत का अहसास कराया | उन लोगो ने अपना हेडक्वाटर चारसद्दा में बनाया और वहीँ से सिखों के खिलाफ युद्द बोल दिया | सैय्यद अहमद को मजहबी पेशवा के तौर पर लोग मनाने लगे थे | वहां उन्होंने कबीलों में मारपीट फसाद खून - खराबे की आदतों को छुडाने के लिए कोशिशे शुरू कर दी | कुछ हद तक वह कामयाब भी हुए , लेकिन कबीलों में उनके सरदारों की लालच और ऐशपरस्ती से रहने की उनकी आदतों की वजह से वह एका कायम नही करा सकें | गरीब कबाइली उनके हर हुक्म पर जंग करने को तैयार हो जाते थे | इसी ताकत पर युद्ध आन्दोलन लम्बे समय तक चल पाया | सैय्यद अहमद की सेना ने पंजाब के सिख राज्य पर पहला हमला बोला , लेकिन कामयाबी नही मिली | दोनों पक्षों में कई बार लडाइयां हुई सबसे अहम लड़ाई सन 1831 में बालकोट में हुई थी | वहां भी जेहादियों को भरी नुक्सान के बाद पीछे हटना पड़ा था | इस लड़ाई में सैय्यद अहमद और शाह मोहम्मद इस्माइल शहीद हुए | इमाम के मारे जाने के बाद उनके मानने वालो को बड़ा सदमा लगा
सरहद पर जाने से पहले सैय्यद अहमद ने हिन्दुस्तान के बाकी हिस्सों में एक तंजीम बनाई थी जिसकी जिम्मेदारी मौलवी कासिम पानीपती सरदार सैय्यद अकबर शाह और पटना मरकज पर मौलवी विलायत अली और इनायत अली को दी थी | इन लोगो ने तंजीम को काफी मजबूत बना दिया था |
रंजीत सिंह के मरने के बाद अंग्रेजो का असर पंजाब पर हो गया | और अंग्रेजो का निशाना सैय्यद अहमद के माननेवालो क्रांतिकारियों को खत्म करने का था जिसके लिए वे मौका तलाशते रहे | सन 1858 में सिधाना पे अंग्रेजो का कब्ज़ा होने के बाद क्रांतिकारी तंजीम ने मलका को अपना मरकज बनाया | मगर वहां भी वे ज्यादा दिन रुक नही सकें | अंग्रेजो के हमले ने क्रान्तिकारियो को कमजोर कर दिया इसी बीच यह आन्दोलन हिन्दुस्तान के दुसरे हिस्सों में भी होने लगा | पटना में मौलवी यहिया मौलवी फरहत अली और मौलवी मोहम्मद उल्लाह ने मोर्चा सम्भाला | ब्रिटिश सरकार ने इंकलाबियो को कुचलने के लिए अब पूरी ताकत झोंक दी | कई बड़े नेताओं और उल्माओ को कैद कर लिया गया | 1865-1871 तक इंकलाबियो ने जहाँ जहां पनाह ली जंग की और जिन लोगो ने भी उनका साथ दिया उन सभी को कालापानी या फांसी दे दी गयी | ब्रिटिश हुकूमत ने सैय्यद अहमद के ख्यालो पर चलने वालो के खिलाफ मुसलमानों के ही एक हिस्से को आगे करके इंकलाबियो के खिलाफ लामबंद कर लड़ाई के फतवे का असर कम या खत्म करने की पालिसी पर काम किया | अंग्रेजो ने कलकक्ता के उलमा अब्दुल लतीफ़ और जौनपुर उत्तर प्रदेश के मौलवी करामत अली के अलावा कुछ और लोगो को आगे करके इस युद्ध के फतवे को कम कर दिया | सीमांत इलाको में इंकलाबी तंजीम 1884 तक मजबूती से लड़ते रहे |
इस आन्दोलन के नाकाम होने के बाद यह साफ़ हो गया कि मजहबी जोश जूनून हिम्मत व कुर्बानी भी ब्रिटेन के ताकतवर हुकूमत को इतने लबे जद्दोजेहद के वावजूद उलटने में कामयाब नही साबित हुई | मगर अंग्रेजो से आजादी हासिल करने के लिए मुस्लमानो में इस आन्दोलन ने इतनी जमीन जरुर तैयार कर दी जो सन 1857 की जंगे - आजादी के वक्त काम आये |
प्रस्तुती -- सुनील दत्ता 'कबीर '' स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
साभार ''लहू बोलता भी हैं '' लेखक सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (30 -06-2019) को "पीड़ा का अर्थशास्त्र" (चर्चा अंक- 3382) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
....
अनीता सैनी
जानकारी युक्त ज्ञानवर्धक पोस्ट।
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