इस देश का वामपंथ सम्भवत विश्व का अदभुत वामपंथ हैं | वामपंथ से हमारा तात्पर्य इस देश की कम्युनिस्ट पार्टियों और कम्युनिस्ट सगठनों से हैं | कयोकी पुरानी सोशलिस्ट कांग्रेस पार्टी और बाद में सोशलिस्ट पार्टी और उसके विभिन्न धड़े , जो पूंजीवादी वामपंथ का प्रतिनिधित्व करते थे , अब वे बीते इतिहास का विषय बन चुके है | पूंजीवादी पार्टियों में जनहितैषी प्रगतिशील लोग अब विलुप्त होते जा रहे हैं | इस विलुप्तिकरण का एक आधारभुत कारण देश के कम्युनिस्ट - वामपंथ में आती रही टूटन ही हैं | कयोकी कम्युनिस्ट पार्टी की मजबूती के दौर में मुख्यत: उसी के विरोध में पूंजीवादी वामपंथ को अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर बढावा दिया गया | लेकिन अब कम्युनिस्ट वामपंथ में आती रही गिरावट के बाद पूंजीवादी वामपंथ की दरअसल वैसी जरुरत नही रह गयी है |
कम्युनिस्ट वामपंथ में यह गिरावट व टूटन तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहले से आती रही हैं | उसका बड़ा परिलक्षण 1956 - 60 के बाद रुसी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा किये गये समाज के क्रांतिकारी सिद्धांतो में , सुधारों बदलावों के चलते हुआ था | उसके फलस्वरूप कम्युनिस्ट पार्टी अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर तीखा एवं परस्पर विरोधी विभाजन हो गया था | इस देश में भी वह पहले सी पी आई और सी पी एम् के विभाजन और बाद में सी पी आई - (एम् एल) और फिर उनमे विभिन्न गुटों के विभाजन के रूप में सामने आता रहा | लेकिन अभी भी समाज में कम्युनिस्ट वामपंथ के प्रति आशा , विश्वास का माहौल बना हुआ था | लेकिन 1989 के बाद वामपंथ के प्रति उस आशा और विश्वास में भारी कमी आती गयी |
1989 से पहले वामपंथी सगठनों में होता रहा टूटन विघटन के बाद और ज्यादा बढ़ गया | संभवत: ऐसा विघटन दुनिया के सभी या ज्यादातर देशो में हुआ | लेकिन भारत में उस विघटन का स्वरूप अदभुत एवं आश्चर्यजनक हैं | वर्तमान समय में देश में कुल वामपंथी सगठनों की संख्या ठीक - ठाक बताना तो आसान नही है लेकिन पिछले साल की प्रकाशित सूचना के अनुसार देश में इनकी कुल संख्या तीन सौ से अधिक बताई गयी थी | संगठनो की संख्या के अद्दितीय होने के साथ इस देश का वामपंथ इस माने में अदभुत है कि देश की बहुसंख्यक श्रमजीवी जनसाधारण आबादी इन सगठनों के नाम काम को नही जानती | जबकि कम्युनिस्ट पार्टी या संगठनो को श्रमजीवी जनसाधारण की ही पार्टी या संगठन माना जाता है | इसके वावजूद ज्यादातर सगठनों का दायरा सालो साल से कुछ जिलो क्षेत्रो के थोड़े से लोगो तक ही सिमटा रहा है | उसमे वृद्धि की जगह कमी आई है | सांगठनिक एकजुटता से ज्यादा सांगठनिक टूटन ही आई है | जिन सगठनों को लोग जानते हैं , उनमे सी पी आई एवं सी पी एम् प्रमुख हैं | देश के कुछ प्रान्तों क्षेत्रो में सी पी आई (एम् एल) को भी लोग जानते हैं | इन तीनो का , खासकर व्यापक जनाधार वाली सी पी आई , सी पी एम् नाम दोनों बड़ी वामपंथी पार्टियों का वह आधार तेजी से टूटता जा रहा हैं | फिर उनकी प्रमुख पहचान मुख्यत: चुनावी राजनीति में भागीदारी एवं पूंजीवादी पार्टियों से मोर्चा या गठजोड़ करने तथा सत्तावादी राजनीति करने वाली वामपंथी पार्टियों की बनती रही हैं | जन समस्याओं के कारणों एवं कारको के प्रति जनसाधारण को सचेत करने और फिर उन्हें आंदोलित करने की इनकी पहले की पहचान लगातार घटती रही है या कहिये विलुप्त होती जा रही हैं |
इसके अलावा सालो - साल से शस्त्र वामपंथी सगठनों एवं सैन्य बलों के बीच हिंसक कार्यवाइयो और उसके समाचारों प्रचारों की वजह से जनसाधारण इन अतिवादी वामपंथी सगठनों को पहले नक्सलाईटो और अब मुख्य रूप से माओवादियों के रूप में जानती हैं | खासकर माओवादी कहे जाने वाले ये सगठन मुख्यत: जंगली एवं आदिवासी क्षेत्रो को अपना आधार क्षेत्र बनाकर उन्ही क्षेत्रो से हथियारबंद संघर्ष से समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन कर देने के लक्ष्य बनाये हुए हैं | इनका प्रभाव देश के मैदानी ग्रामीण एवं शहरी हिस्से में कम कहिये तो बहुत कम हैं | फिर उनमे अपने अतिवादी कार्यवाइयो से भी आती रही टूटन इन्हें सांगठनिक रूप में बाटती तोडती रही हैं | इनके अलावा बाकी तमाम सगठनों के जनाधार कम है , कमजोर है | अपने को मार्क्सवादी - लेलिनवादी कहने बताने का शौक ज्यादा है लेकिन वैसा बनने का शौक और प्रयास बहुत कमजोर है | अपने को सिद्धांतवादी कहने बताने का शौक ज्यादा है , लेकिन सिद्धांत को व्यवहार में उतारने श्रमजीवी जनसाधारण से अधिकाधिक जुड़ने सगठन का जनाधार खड़ा करने का शौक तो हैं मगर सामजिक बदलाव की रणनीति व कार्यनीति निधारित करने का शौक कम है | अपने अपने गुटों के प्रभाव को बनाये रखने का काम ही प्रमुख है , परन्तु संगठन को श्रमजीवी वर्ग से जोड़ने में इन सभी का काम व प्रयास बेहद कमजोर है , जहाँ तक इन वामपंथी सगठनों के बारे में सी पी एम् - सी पी आई के दृष्टिकोण का मामला है तो यह पार्टियों इन वामपंथी संगठनो को कोई महत्व नही देती हैं | उनकी सर्वथा उचित आलोचना पर भी कान नही देती |
उनका कम्युनिस्ट बिरादराना सम्बन्ध अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट पार्टियों सगठनों से कोई बिरादराना सम्बन्ध नही हैं | इसी तरह सत्ता पर चढ़ी हुई पूंजीवादी पार्टियों के साथ साठ-गाठं करने एवं स्वंय चढ़े हुए होने का गौरव दंभ उन्हें वामपंथी एक जुटता के लिए नीचे नही आने देता | सी पी आई एम् एल भी अब उसी लाइन में लगी हुई है | वह भी दोनों वामपंथी पार्टियों के अलावा राजद जैसी पूंजीवादी पार्टियों के साथ चुनावी साठ-गाठं करने के काम में लगी रहती हैं |
देश में 300 से अधिक वामपंथी सगठनों की ये स्थितिया और विभिन्न वामपंथी सगठनों का अलगाववादी रुझान उन्हें समाज के क्रांतिकारी बदलाव के प्रति वर्ग विरोध की राजनीति के लिए न्यूनतम कार्यक्रम तय करने और फिर आगे बढ़ने के प्रति अनिच्छा या अरुचि इस देश के वामपंथ को अदभुत बना देता हैं | इस देश के वामपंथ के अदभुत होने के कई महत्वपूर्ण कारण हैं | उनमे एक कारण इस देश के कम्युनिस्ट पार्टियों एवं सगठनों द्वारा मेहनतकश के लिए साम्राज्यवादी विरोधी राष्ट्रावाद को महत्व न देना भी हैं |
इस देश का कम्युनिस्ट - वामपंथ अंतर्राष्ट्रीयवाद के सिद्धांत व नारे को यांत्रिक ढंग से रटते , दुहराते हुए मेहनतकशो के राष्ट्रीय अधिकार एवं राष्ट्रवाद को महत्व नही देता | पहले से भी नही देता रहा हैं | यह भी बड़ा कारण है कि राष्ट्र के स्वतंत्रता आन्दोलन में भागीदारी निभाने के वावजूद यह व्यापक जनसमुदाय को अपने पक्ष में नही कर सका |
1942 के ''अंग्रेजो भारत छोडो '' आन्दोलन का समर्थन करने के बजाए उससे अलग पडा रहा | भारत - पाकिस्तान के रूप में धार्मिक आधार पर बटवारे का , राष्ट्र के आत्म निर्णय का अधिकार के नाम पर मनमाने ढंग से समर्थन कर दिया | इसके अलावा 1947 में देश में सत्ता हस्तांतरण के समझौते वाली आजादी को साम्राज्यी शोषण लूट के सम्बन्धो को बनाये रखने वाली नकली आजादी बताने के वावजूद उन सम्बन्धो से राष्ट्र को मुक्त करने का कार्यभार कभी नही उठाया | जबकि चीन - कोरिया - लाओस - कम्बोडिया - वियतनाम और क्यूबा जैसे राष्ट्रों ने राष्ट्र्मुक्ति को 1947-50 के पहले से लेकर 1970 के दशक तक जारी रखा | अपने राष्ट्र को साम्राज्यी शोषण के लुट व प्रभुत्व से मुक्त कराने के साथ सामन्ती एवं पूंजीवादी शोषण लुट से भी मुक्त कराने का प्रयास भी किया |
मेहनतकश वर्ग के हित में राष्ट्रीय प्रशनो को महत्व न देने , राष्ट्रवाद को पूंजीवादी अवधारणा कहकर साम्राज्यवाद विरोधी जनवादी राष्ट्रवाद की अवधारणा को उपेक्षित करते रहना भी , इस देश के अदभुत वामपंथ का ही उदाहरण हैं |
इसी तरह से सामन्तवाद का विरोध करते हुए जातीय भेदभाव का तो विरोध करना मगर जातीय व्यवस्था के उन्मूलन के वैचारिक एवं व्यवहारिक प्रयास को अपनी कार्यनीति का हिस्सा न बनाना भी वामपंथ को अदभुत वामपंथ बना देता है | धार्मिक सम्प्रदायवाद के समग्र रूप में उन्मुलित करने तथा उसके लिए सुनिश्चित कार्यनीतियो का निर्धारण न करना भी देश के वामपंथ को अदभुत वामपंथ बना देता हैं |
इन्हें जानना समझना और दुरुस्त करना भी वामपंथ का काम हैं | वामपंथी पार्टियों सगठनों के आमने अब ''करो या मरो '' का प्रश्न हैं | साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवाद एवं व्यापक श्रमजीवी वर्ग के हितो , अधिकारों को बढावा देने वाले जनवाद के लिए वामपंथी सगठनों द्वारा न्यूनतम कार्यक्रम के साथ एकजुटता बनाने का कार्यभार भी क्रांतिकारी वामपंथ का कार्य है | इस कार्यभार को महत्व न देकर तथा बढ़ते सांगठनिक टूटन व विखंडन के साथ देश का वामपंथ अदभुत वामपंथ ही बना रहेगा |
सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक
साभार - 'चर्चा आज कल की '
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