Thursday, October 8, 2015

जो भट्टियों की आग के हरीस थे ------- 9-10-15

अपना शहर --------
मगरुवा आज घर पे ही था आज पंचायत चुनाव की पहली प्रक्रिया शुरू हो गयी है | गाँव के लोगो से उसने सुना बहुत से जगहों पे अभी समय ही नही हुआ है चुनाव कराने का लोग हाईकोर्ट तक गये है | आगे क्या फैसला आता है ,वह तो भविष्य के गर्भ में छुपा है | विचार करता है मगरुवा यह चुनाव पहले भी होता रहा शहर तक चर्चा बहुत कम होती थी , इसकी गाँव में भी कौड़े पर ही फैसले हो जाते थे , अब आवारा पूजी ने इसे भी बाजार बना दिया , पोस्टर - पम्पलेट दारु - मुर्गा शराब के साथ अब यह चुनाव लड़ा जा रहा है | गाँव में भी चुनाव का कोई मुद्दा नही रह गया है बहुत से लड़ने वालो से मगरुवा ने बात किया उनके पासव न ही विचार है न ही कोई विकास का माडल वो कैसे अपने गाँव को माडल बनायेगे सब चुनाव लड़ने वालो ने कहा भइया अब चुनाव के तरीका बदल गयल हमने चुनाव जीत लेब शायद वो लोग सही बोल रहे थे कल ही अमरउजाला में मगरुवा ने पढ़ा था | पल्हनी क्षेत्र के किसी उम्मीदवार का भतीजा चुनाव से पूर्व गायब है अगर यह राजनीति प्रेरित है तो अब आम आदमी को सोचना जरूरी है की अब गाँव कितना खतरनाक मोड़ पर पहुच रहा है | उसे किसी कविता याद आ जाती है |
हमारे गाँव लुहार अब दरांतियाँ बना के बेचता नहीं
तो जानता है फस्ल काटने का वक्त कट गया सरों का काटने के शक्ल में
शरल में वो जानता है बाँझ हो गई जमीन जब से ले गए नकाब पोश गाँव के मवेशियों को शहर में जो बरमाला सदाएँ के खुश्क खून बेचते है बे-यकीन बस्तियो के दरमियाँ
उदास दिल खमोश और बे-जबाँ कबाड़ के हिसार में सियाह कोयलों से गुफ़्तुगू
तमाम दिन गुज़ारता है सोचता है कोई बात रूह के सराब में
कुरेदता है ख़ाक और ढूँढता है चुप की वादियों से सुर्ख़ आग पर वो ज़र्ब
जिस के शोर से लुहार की समाअतें क़रीब थीं
बजाए आग की लपक के सर्द राख उड़ रही है धूँकनी के मुँह से
राख जिस को फाँकती है झोंपड़ी की ख़स्तगी
सियाह-छत के ना-तवाँ सुतून अपने आँकड़ों समेत पीटते है ंसर
हरारतों की भीक माँगते हैं झोंपड़ी के बाम ओ दर

जो भट्टियों की आग के हरीस थे
धुएँ के दाएरों से खेंचते थे ज़िंदगी
मगर अजीब बात है हमारे गाँव का लुहार जानता नहीं
वो जानता नहीं कि बढ़ गई हैं सख़्त और तेज़ धार ख़ंज़रों की क़ीमतें
सो जल्द भट्टियों का पेट भर दे सुर्ख़ आग से --- अली अकबर नातिक़

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