Wednesday, February 14, 2018

लखनऊ की तवायफे - भाग एक 14-2-18

लखनऊ की तवायफे - भाग एक


तवायफ शब्द का उच्चारण करते ही अन्यास नारी का एक विकृत एवं निकृष्ट रूप हमारी आँखों के सम्मुख बरबस आकर खड़ा हो जाता है | कारण की सामान्य अवधारणा के अंतर्गत तवायफ एक ऐसी चरित्रहीन नारी होती है जो अपने जीविकोपार्जन हेतु पुरुषो से शारीरिक सम्बन्ध स्थापन को ही अपना जीवन धर्म मानती हो | किन्तु वास्तव में पुरुषो वास्तव में पुरुषो से शारीरिक सम्बन्ध स्थापन के माध्यम से आय का स्रोत व साधान जुटाने वाली नारियो का वर्ग तवायफो के वर्ग से सवर्था भिन्न है | इस वर्ग की नारियो को सभी समाज में वैश्या समाज उन्हें रंडी शब्द से सम्बोधित करता है |
तवायफे इस वर्ग का प्रतिनिधित्व कदापि नही करती |
वास्तव में तवायफ नारियो का एक ऐसा वर्ग होता था . जो गायन , नृत्य एवं उनके निहित भावो की अभिनीत कला में निपुण होने के साथ व्यवहार कुशल एवं मृदुभाषी भी होती थी | विद्योत्तमा होने के साथ वे वाकपटुता में ऐसी दक्ष की बड़े से बड़े विद्वानों को निरुतर कर दे | साथ ही ये नीतिशास्त्र के व्यवहारिक पक्ष में निपुण होती थी | इनकी विश्वसनीयता ऐसी की लखनऊ के नबावो ,रईसों , एवं बड़े घरानों के बच्चे समाज में उठने बैठने व बातचीत करने की अदब का सलीका सिखने हेतु इनके पास भेजे जाते थे | प्रशिक्षण की इस प्रक्रिया में उनके वहाँ अश्लीलता एवं फूहड़पन का कोई स्थान नही था | पानदान इनकी महफ़िल की शिओभा हुआ करती थी और पीकदान एक अपरिहार्य आवश्यकता |
प्रारम्भिक काल में संगीत के कार्यक्रमों हेतु आयोजित होने वाली महफ़िलो में सिद्धःहस्त गायक लोग उत्कृष्ट श्रेणी के धुर्वपद व धमार के गायन पर्स्तुत किया करते थे | कालान्तर , वे महफ़िलो में ख्याल शैली के गायन पर्स्तुत करने लगे और फिर गजल | तदुपरान्त , इस गजल गायकी को जब किन्ही आयोजनों में पुरुषो के स्थान पर महिलाये व्यवसायिक ध्येय से भावाभिव्यक्ति के साथ गाने लगी तो ऐसी महिला गायिकाओ को तवायफ तथा गायन के ऐसे आयोजनों को मुजरा कहा जाने लगा |

यद्दपि उसके पूर्व भारत के लगभग सभी क्षेत्रो में महिलाओं द्वारा लोक गायन के साथ लोक नृत्य की प्रस्तुती का चलन था किन्तु उसकी पहिचान व्यवसायिक न होकर मात्र सांस्कृतिक कार्यक्रमों के रूप में स्थापित रही |
इधर लखनऊ के नबावो को धुर्वपद व धमार गायन की उपरोक्त शैल्या रास नही आ रही थी , कारण की उपरोक्त गायन शैली या तो संस्कृत भाषा में होते थे या फिर ब्रजभाषा में | आगे चलकर जब ब्रज भाषा में विरचित गायन की ख्याल शैली का पादुर्भाव हुआ तो गायन की उस ख्याल शैली में उन्हें सहजता एवं सहजग्भ्यता का आभाव सा लगा | अत: उर्दू भाषा में विरचित गायन की गजल विधा को वरीयता दी जाने लगी | तभी एक समस्या यह हुई की महफ़िलो में तवायफो द्वारा गजल पर्स्तुती की परम्परा अन्यत्र प्रारम्भ हो चुकी थी जिन्हें मुजरा कहा जाने लगा था | ऐसे आयोजित मुजरो को हे दृष्टि से देखा जाता | अत: लखनऊ के नवाबो ने इसके विकल्प को खोजने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया |
अन्तत: वाजिद अली शाह (१८४७-१८५६ ) के समय ख्याल एवं गजल गायकी के अनुपातिक सम्मिश्रण से बोल बनाव की ठुमरियो का पादुर्भाव हुआ एवं नवाबो के दरबारों में ठुमरी गायन परम्परा का प्रचलन शुरू हुआ | गायन की इस नयी ठुमरी शैली में ब्रज भाषा का प्रयोग हुआ किन्तु उसके साथ ही बीच - बीच में उर्दू भाषा की गजलो के एकाध शेर पढ़ देने का चलन भी प्रारम्भ हो गया | कोई - कोई ठुमरी गायक विकल्प के रूप में किसी शेर के स्थान पर कोई दोहा पढ़ दिया करते थे | कालान्तर , जब ठुमरी में निहित भावो का अनुवाद नृत्य में हुआ तो उसे नृत्य की कथक शैली कहा जाने लगा |
वैसे तवायफो द्वारा गजल प्रस्तुती की प्रक्रिया में गजल में निहित शब्दार्थ एवं भावार्थ के अनुरूप अपने शरीर के विभिन्न अंगो के संचालन द्वारा भावाभिव्यक्ति की परम्परा तो पहले से ही चलन में थी और तवायफो की यही कला आगे चलकर थ्गुमरी पर भावाभिव्यक्ति करते हुए कथक विधा की सूत्रधार हुई ... सामान्य महफिल में जिसे मुजरा कहा गया , दरबारों में पहुच कर वही कथक ही उत्कृष्ट शैली कही जाने लगी |
वाजिद अली शाह के दरबार में ठुमरी एवं कथक का जमकर प्रयोग हुआ | नवाब वाजिद अली शाह स्वयम नारी पात्रो के साथ इस शैली में मृत्य किया करते थे | जहाँ तक मुजरा में गायन प्रस्तुत करने वाली तवायफो का सम्बन्ध है , उनके गायन की उत्कृष्टता में उनके गुरुजनों द्वारा दिए गये पशिक्षण का बड़ा योगदान रहा है | इन गुरुजनों को त्वाय्फी - संस्कृति में 'उस्ताद जी ' कहकर सम्बोधित किया जाता था | यद्धपि आज की परम्परा में किसी ज्ञानप्रदाता गुर्व्र को सम्मान प्रदान करने की दृष्टि से 'उस्ताद' के आगे जी लगाते हुए उन्हें 'उस्ताद जी ' कहकर सम्बोधित करते है , किन्तु पुरातन परम्परा के अंतर्गत ''उस्ताद जी '' किसी तवायफ अथवा वैश्या के प्रशिक्षक को सम्बोधित करने में प्रयुक्त था |
अपने प्रारम्भिक काल से ही आयोजित मुजरो में सामान्यता तवायफो द्वारा प्रस्तुत गायन के साथ तालमेल बैठाते हुए सारंगी और तबला नामक दो वाद्य यंत्र बजाये जाने की परम्परा रही है | ऐसे कार्यक्रमों जे जुड़े संगीतज्ञो को मिरासी कहे जाने की परम्परा चल निकली |

प्रस्तुती -- सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

साभार - हमारा लखनऊ पुस्तक माला से लेखक राम किशोर बाजपेयी

2 comments:

  1. सच्चा और सटीक विश्लेषण
    शानदार आलेख

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (16-02-2017) को "दिवस बढ़े हैं शीत घटा है" (चर्चा अंक-2882) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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