Friday, February 16, 2018

लखनऊ तवायफ व गजल ---- महफिल व मजलिस - भाग तीन 16-2-18

तवायफ व गजल ---- महफिल व मजलिस - भाग तीन


गजल का साहित्यिक अर्थ होता है ''महिला से वार्तालाप ' | चूँकि गजल विधा के उद्भव - काल में महिलाओं का पर्दे में रहना अनिवार्य हुआ करता था , अत: उस समय महिलाओं के प्रति अपने भावोद्गारो की अभिव्यक्ति सीधी भाषा में करने के बजाए किसी सुन्दर लड़के को परिलक्षित करके प्रतीकात्मक रूप में की जाती थी | कालान्तर , सूफियो के प्रभाव में आकर द्वय - अर्थी गजलो के लेखन की परम्परा हुई जिसके अंतर्गत गजल में कहे गये किसी शेर के सम्बोधन को यदि परमेश्वर के प्रति प्रेमाभिव्यक्ति से जोड़कर देखा जाय तो इश्क - ए-मजाजी कहा गया है |
ज्ञातव्य है की भारत में आने से पूर्व पर्शिया और अरब देशो में गजल की परम्परा का पहले से ही चलन था | भारत में गजलो की महफ़िलो का आयोजन 13वी सदी में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी के दरबार में ईरानी भाषा एवं ईरानी संगीत विधा के साथ हुआ था जिसके गायक भी ईरानी हुआ करते थे | कालान्तर , हजरत आमिर खुसरो ने गजलो का भारतीयकरण करते हुए महफिले - समा के आयोजन करवाकर उसे भारत में खटाई दिलवाई | प्रारम्भिक काल में गजलो की दो परम्पराए बनी -- प्रथम सूफियाना , जिसे भक्ति संगीत कह सकते है | इस परम्परा के अंतर्गत महफिले समा में कव्वाली गई जाती थी और दूसरी शराब व शबाब को आधार मानती हुई इश्कियाना शायरी जिन्हें तवायफो के रंगीले कोठो की महफ़िलो में मुजरा के रूप में गया जाने लगा | गजल की प्रस्तुती के ये दोनों चलन दिल्ली में मोम्मद शाह 'रंगीले ' ( 1719-1748 ) के शासनकाल में स्थापित हो चुके थे | सम्स्य की मार ने दिल्ली जैसे तत्कालीन तड़क - भड़क वाले वैभवशाली शहर में रहने वाले शहरियों को दिल्ली छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया , जिनमे शहरी तवायफे एवं शायर भी सम्मलित थे | इनमे से अधिकाश पहले चरण में फैजाबाद की ओर कुछ कर गये , जब सन 1738 में नादिरशाह ने दिल्ली में कहर सी स्थिति बना डाली और फिर उसके बाद सन 1748 में मोम्मद शाह रंगीले की मृत्यु के उपरान्त लखनऊ की ओर मुंह किया |
लखनऊ पहुचकर गजलो की प्रस्तुती को एक नयी दिशा तब मिली जब गजलो को गायन व वाध्ययंत्रो से तालमेल बैठाते हुए अदाकारी के साथ एक कलात्मक शैली में प्रस्तुत किये जाने की परम्परा चल निकली | तवायफो द्वारा गजलो की इस प्रकार की शैली में प्रस्तुत किये जाने से गजलो का महत्व और भी अधिक बढ़ गया |
लखनऊ के नबावो ने न की मात्र इन्हें प्रश्रय दिया , वरन इनकी विधा को आगे बढाये जाने का मार्ग प्रशस्त किया | प्रणाम स्वरूप लखनऊ में अनेक तवायफो एवं शायरों की भरमार होती चली गयी | यही नही लखनऊ के कई नवाब शायरी कहने लगे | कला एवं साहित्य के नाम पर लखनऊ मुशायरो एवं मुजरो का केंद्र बनकर रह गया | लखनऊ की शाम रंगीली हो उठी जो शामे - अवध के नाम से सर्वत्र ख्यातिलब्ध हुई | तथापि , लखनऊ के शामे - अवध के पूर्व का भी एक अनकहा इतिहास तो है ही |
शामे - अवध जिसका हम लखनऊ की सांस्कृतिक कीर्ति के रूप में सगर्व बखान करते है , उसे तो वास्तव में लखनऊ की मुजरो की शाम अथवा ऐय्याशो की शाम कहा जाना चाहिए | सहमे - अवध वाला लखनऊ तो वास्तव में लखनऊ के मनचलों , छैल छबीलो , रईसों. श्जादो , पथभ्रष्ट पंथियों का तीर्थ हुआ करता था , जहाँ माथा टिकाने की ललक में ये आशिक मिजाजी लोग तन , मन व धन सब कुछ समर्पित करने को तैयार रहते | अवध की इस शाम ने कलादेवी की उपासना के नाम पर कितनो ही घर तबाह कर दिए होंगे | यह लखनऊ की वह तथाकथित सांस्कृतिक विरासत थी , जिसको विकसित करने के प्रयास में लखनऊ की सादगी एकं सच्चाई से ओर्त्पर्ट धार्मिक संस्कृति को सूली पर चढा दिया गया था .. और कोठो पर जाने वाले संदिग्ध चरित्र के लोगो को सर - माथे पर बैठा लिया गया था | लखनऊ में स्थापित हुए कुछ विशालकाय भवन , जिनमे बने कक्षों को कभी आनन्द विहार कक्षों के रूप में प्रयोग किया गया उन सबकी राष्ट्रीय धरोहर के रूप में पहिचान बन गयी |
तथापि , तवायफो का जीवन मात्र कोठो व दरबारों में गायन व नृत्य के कार्यक्रमों की परिधि तक सीमित न था | वरन इन तंग गलियों के बीच कोठो में बैठकर अवध की शाम को आबाद करने वाली इन तवायफो का मुजरो से परे कुछ धार्मिक जीवन भी था | इन तवायफो का स्थान महफ़िलो के मुजरो से परे मोहर्रम के समय आयोजित मजलिसो में सोजख्वानी की प्रस्तुती के कार्यक्रमों में था | सोज एक पर्शियन शब्द है जिसका अर्थ होता है शोक प्रगट करना |
सोजख्वानी की परम्परा नवाब शुजाउद्दौला ( 1754 - 1775 ) के समय पर्शिया से भारत में आई थी जो लखनऊ में आकार फूली - फली और पल्लवित हुई | इस्लाम में संगीत को स्वीकृति न मिलने के कारण सोजख्वानी की प्रस्तुती की प्रक्रिया में उसके साथ किसी वाद्ययंत्रो का बजाय जाना सर्वथा वर्जित था तथापि उन्हें राग - रागनियो में बाँधकर गाने में किसी का कोई विरोध नही रहा | भारत के शिया समुदाय में सोजख्वानी को धार्मिक संगीत के रूप में स्वीकार कर लिया गया | सन्दर्भवश मुसलमानों के शिया समुदाय में प्रचलित मर्सियागोई , काव्य विधा का एक अंग है जिसमे कर्बला के युद्द क्षेत्र में उनके पुरखे हुसैन साहब के ओजस्वी युद्द कौशल का बखान किया जता है | जब मर्सिया को भारतीय संगीत में निर्धारित राग - रागनियो का पुट देते हुए प्रस्तुत किया जाने लगा तो प्रस्तुती की उक्त शैली को शोजख्वानी खे जाने की परम्परा चल निकली |
मोहर्रम के दिनों में इमामबाड़े के प्रागण में हैदरी चूनावाली के मार्मिक व चमत्कारी सोजख्वानी को सुनने के लिए विशाल जन समुदाय उमड़ पड़ता था , जिनमे महिलाये श्रोताये भी सम्मलित होती थी |
खैर चाहे जो कुछ भी हो , तवायफो व वैश्याओ की जीवन यात्रा दुर्गम , संघर्षपूर्ण एवं दुखदायी रहगी है | भारत की महिलाये इस धंधे को स्वेच्छा व ख़ुशी - ख़ुशी स्वीकार नही करती | कही इन्हें बचपन अथवा यौवनकाल में अपहरण करके लाया जाता है तो , कही बरगला कर | कभी गरीबी की विकटता से घिरे परिवार द्वारा स्वंय अपनी बच्चियों को कोठो के लिए बेचा जाता रहा है , और एक बार कोठे में पहुचने के उपरान्त उनका जीवन कैदियों सा हो जाता है | इस कैदखाने में रहकर इन्हें गायन व नृत्य की कला सीखनी पड़ती है अथवा फिर देह व्यापार में लिपट करवा दिया जाता है ! इनके जीवन की जटिलताये अन्नत है | मुक्ति का कोई मार्ग नही |

सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक - लेखक राम किशोर बाजपेयी

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-02-2017) को "कूटनीति की बात" (चर्चा अंक-2883) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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