Friday, February 9, 2018

भाग -- दो ---- लू शुन - एक परिचय अनुवाद -- दिगम्बर 9-2-18

भाग -- दो ---- लू शुन - एक परिचय अनुवाद -- दिगम्बर



इस तरह , जापान में रहते हुए इन आठ वर्षो के दौरान वे क्रांतिकारी जनवाद के कायल हो गये और अपने देश वासियों को जगाने के एक साधन के रूप में साहित्य का उपयोग करने के अपने फैसले पर अडिग हो गये | लू शुन 1909 में चीन वापस आये तथा झेजियांग नार्मल स्कूल और शाओशिंग मिडिल स्कूल में मानव शरीर विज्ञान और रसायन शास्त्र पढाने लगे | जब 1911 की क्रान्ति शुरू हुई , तो उन्होंने उसका पूरे मन से स्वागत किया | उन्होंने अपने छात्रो से इसके लिए काम करने का आग्रह किया और शाओशिंग नार्मल स्कूल के प्रधानाध्यापक का पद स्वीकार कर लिए | 1912 में जब चीनी गणराज्य की प्रांतीय सरकार की स्थापना हुई तो वे शिक्षा मंत्रालय के सदस्य नियुक्त हुए |
हालाकि जल्द ही उनका मोहभंग हो गया और वे कठोर चिंतन और अँधेरे में रास्ता तलाशने की पीडादायी प्रक्रिया से गुजरे |
1911 की क्रान्ति बहुत ही महत्वपूर्ण थी लेकिन इसने अपने ऐतिहासिक मिशन को पूरा नही किया , क्योकि इसने केवल किविंग साम्राज्य को गद्दी से हटाया , जबकि साम्राज्यवाद और सामंतवाद ज्यो के त्यों बने रहे | राजसत्ता युद्द सरदारों और विभिन्न गुटों के नेताओं के हाथो में चली गयी जिसका इस्तेमाल साम्राज्यवादियो ने चीन के उपर अपना हमला तेज करने के लिए किया | इस तरह युद्ध सरदारों द्वारा स्वतंत्र शासन की स्थापना निरंतर गृह युद्ध और साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच अपने प्रभाव क्षेत्र के लिए छीना - झपटी के साथ देश की अर्द्ध - सामन्ती औपनिवेशिक स्थिति और भी खराब होती गयी | विचारों के क्षेत्र में अतीत को वापस लाने का आव्हान करने वाले एक प्रतिक्रियावादी आन्दोलन का प्रभाव बढने लगा | लू शुन की पीडादायी खोजबीन 1918 तक , यानी सुविख्यात 4 मई के आन्दोलन के ठीक पहले तक चलता रहा | यह पूरी अवधि उन्होंने बीजिंग में बिताई और इस बीच सिर्फ दो बार अपनी माँ से मिलने शाओशिंग गये , जहां उन्होंने देहात की बढती कंगाली को देखा और उनके उपर उसका गहरा प्रभाव पडा | इन वर्षो के दौरान जब वे शिक्षा मंत्रालय में काम कर रहे थे , तभी चीनी संस्कृति का अत्यंत बहुमूल्य अध्ययन करने में लगे रहे , जैसे - कुछ क्लासिकीय पांडुलिपियों का संग्रह और उनकी व्याख्या तथा प्राचीन कांस्य और प्रस्तर लिपियों पर शोध | इसी अवधि में उन्होंने जिकांग की रचनाओं का सम्पादन भी किया जो तीसरी शताब्दी के महान कवि और देशभक्त थे , जिन्होंने सामन्ती आतताई और कन्फ्युसियाई परम्पराओं का विरोध करने का साहस किया और इस तरह जनता की आकाक्षाओ को कुछ हद तक प्रतिबिम्बित किया | इसी दौरान लू शुन ने भारतीय बौद्ध क्लासिकीय रचनाओं का तीसरी शताब्दी के बाद चीनी भाषा में हुए अनुवादों का भी अध्ययान किया |
इसी बीच देश में बड़े - बड़े बदलाव हो रहे थे | यूरोपीय और अमरीकी शक्तियों पहला विश्व युद्ध लड़ने में व्यस्त थी कि उन्होंने चीन पर अपनी पकड ढीली कर दी थी | इसने चीनी राष्ट्रीय पूंजीवाद को कुछ हद तक विकसित होने में समर्थ बना दिया | उसी समय 1917 की अक्तूबर क्रान्ति ने चीन में एक नए क्रांतिकारी जन उभार को जन्म दिया , जिसका नेतृत्व'' क्रांतिकारी बुद्धिजीवी कर रहे थे और जिसका अभी भी पूरा तरह साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में विकसित होना बाकी था | यह 4 मई 1919 के आन्दोलन में परिणित हो गया | अप्रैल 1918 में लू शुन ने उपनाम से देशी भाषा में लिखी उनकी पहली कहानी ''एक पागल की डायरी '' प्रकाशित हुई | यह नौजवान पत्रिका में प्रकाशित हुई थी जो सांस्कृतिक और जनवादी क्रान्ति का दिशा निर्देशन करती थी | यह पहली पत्रिका थी जिसने अक्तूबर क्रान्ति और मार्क्सवाद - लेनिनवाद के विचारों से अपने पाठको का परिचय कराया | इसी समय लू शुन ने सामाजिक समस्याओं पर मर्मस्पर्शी और जुझारू लेख भी लिखे | 1923 में ''काल तू आर्म्स ''नाम से कहानियो का पहला खण्ड प्रकाशित हुआ जिसमे ''मेरा पुराना घर '' और आह क्यु की सच्ची कहानी '' जैसी अमर रचनाये शामिल थी | इस संकलन ने चीन में नए साहित्य के जनक के रूप में उनकी अवस्थिति तय कर दी | इस पूरे दौरान लू शुन नौजवानों लोगो के घनिष्ठ सम्पर्क में रहे | 1920 से वे बीजिंग विश्व विद्यालय और नेशनल टीचर्स कालेज में प्रवक्ता थे | उन्होंने एक दैनिक अखबार के परिशिष्ट का सम्पादन किया और कई साहित्यिक संगठन स्थापित करने में नौजवान लेखको की मदद की | उन्होंने अपना काफी समय नौजवान लेखको की पांडुलिपिया पढने में लगाया जिनका उन्होंने काफी सावधानी से संशोधन किया | उनके यहाँ कई नौजवान लोग आते थे और वे खुद भी नौजवानों के घर जाते थे | 1925 में उन्होंने बीजिंग विमेंस नार्मल कालेज की छात्राओं का भरपूर समर्थन किया जहां वे उस समय प्रवक्ता थे | ये छात्राए शिक्षा मंत्री का विरोध कर रही थी जिसने उस कालेज को गैर कानूनी रूप से बंद कर दिया था | 1926 में जब उत्तरी युद्ध सरदार दुआन क्वीरुई ने 18 मार्च को छात्रो का कत्लेआम किया , तब लू शुन ने उनकी मांगो के समर्थन में लेख लिखने के साथ - साथ व्यवहारिक रूप से उनका समर्थन किया | साहित्यिक मोर्चे पर उन्होंने जो लड़ाई लड़ी और नौजवान लोगो को जिस तरह दिशा निर्देश किया और मदद पहुचाई , उसके चलते वे 1924 से 1926 के बीच बीजिंग में सबसे लोकप्रिय लोगो में से एक हो गये | क्रमश:

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (11-02-2018) को 'रेप प्रूफ पैंटी' (चर्चा अंक-2876) (चर्चा अंक-2875) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete