Monday, December 22, 2014

हिन्दू समाज में सामाजिक एकता की विखंडित अवधारणाये ---- 23-12-14

हिन्दू समाज में सामाजिक एकता की विखंडित अवधारणाये
..............................
..........
..................................................................


हिन्दू
------ समाज राष्ट्र पर मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा ध्वस्त किये गये
मंदिरों पर तो चिंता प्रकट करता है , लेकिन मुस्लिम आक्रमणकारियों या
मुस्लिम बादशाहों के काल में धर्म के रूप में विखंडित होते रहे हिन्दू समाज
पर कोई चिंता नही करता | वह हिन्दू -- समाज में किसी विजातीय धर्म के लोगो
को न अपना पाने अथवा हिन्दू धर्म से च्युत हुए लोगो को पुन: न अपना पाने (
उल्टे उन्हें सदा सर्वदा के लिए त्याज्य मानने ) की अपनी ध्रामिक --
सामाजिक अवधारणा पर भी कोई प्रश्न चिन्ह नही खड़ा करता | .................

हिन्दू समुदाय के प्रबुद्ध हिस्सों द्वारा राष्ट्र और धर्म के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के उदगार बारम्बार प्रकट किये जाते रहे है |
कई
बार तो राष्ट्र और धर्म को एक में जोड़ कर राष्ट्र -- धर्म के प्रति जागरूक
व निरंतर प्रयत्नशील रहने की अवधारणाये  भी प्रस्तुत की जाती रही है |
हालाकि आधुनिक राष्ट्र  और धर्म ( हिन्दू धर्म या कोई अन्य धर्म ) की
अवधारणाओ को एक में मिलाकर देखना ठीक नही कहा जा सकता | क्योकि दोनों  शब्द
मानव समाज के एतिहासिक विकास की दो अलग -- अलग स्थितियों व विचारों का
प्रतिनिधित्व करते है | दोनों के दायरे अलग -- अलग है |

इसके
वावजूद यदि धर्म को राष्ट्रिय व सामाजिक नियमो आधारों -- विचारों ,
नैतिकताओ के मानने के रूप में ले लिया जाय , जैसा कि बहुत बार कह दिया जाता
है तो राष्ट्र - धर्म की अवधारणा को राष्ट्रप्रेम , राष्ट्रवाद तथा
राष्ट्रीय -- संस्कृति आदि के रूप में स्वीकारा जा सकता है , बशर्ते कि वह
अवधारणा आधुनिक युग की राष्ट्र की आत्मनिर्भर स्वतंत्रता की पुरजोर समर्थक
हो , विदेशी ताकतों पर राष्ट्र की पर -- निर्भरता की , विदेशी लूट व प्रभुत्व की विरोधी हो | साथ ही वह राष्ट्र तथा उसके  बहुसंख्यक जनसाधारण समाज में एकता , समानता व बन्धुत्व को अर्थात सामाजिक जनतंत्र को बढावा देने वाली हो | आम समाज में विद्यमान पुराने या नए सामाजिक विखंडन  की विरोधी हो |
लेकिन विडम्बना यह है कि इसी  सामाजिक  जनतंत्र के प्रश्न पर अर्थात समाज में एकता समानता व प्रभुत्व को बढावा देने के प्रश्न पर हमारे समाज में खासकर हिन्दू -- समाज में निष्क्रियता विद्यमान है | वह राष्ट्र पर मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा ध्वस्त किये गये मंदिरों पर तो चिंता प्रकट करती है , लेकिन मुस्लिम आक्रमणकारियों या मुस्लिम बादशाहों के काल में धार्मिक बदलाव के रूप में विखंडित होते रहे हिन्दू समाज पर कोई चिंता नही करती | हिन्दू समाज के खासे बड़े हिस्से का मुस्लिम समुदाय के रूप में होते रहे बदलाव से समूचे हिन्दू समाज में सदियों से होते रहे विखंडन पर भी आम तौर से कोई गम्भीर चर्चा नही करती | वह समाज के धर्मवादी विखंडन के लिए वह मुस्लिम शासको और उनके जोर जबरदस्ती पर दोष दे लेती है , जो गलत भी नही है , पर हिन्दू -- समाज में किसी विजातीय धर्म के लोगो को न अपना पाने अथवा हिन्दू -- धर्म से च्युत हुए लोगो को पुन: न अपना पाने ( उल्टे उन्हें सर्वदा के लिए त्याज्य मानने ) की अपनी बुनियादी धार्मिक --  सामाजिक अवधारणा पर कोई प्रश्न चिन्ह नही खड़ा करती | और न ही आधुनिक युग के अनुरूप उनके साथ सामाजिक समागम बढाने आपसी अन्तर विरोधो को घटाने -- मिटाने वाला समाधान प्रस्तुत का ही प्रयास करती है |

 यह मामला आधुनिक समय में किसी पार्टी या संगठन द्वारा कही पर धर्मान्तरित किये गये कुछ लोगो को उन्हें पुन:हिन्दू धर्म व समाज में वापस लेने  के प्रयासों को नही है , बल्कि हिन्दू समुदाय में विद्यमान धार्मिक सामाजिक अलगाववादी अवधारणा का है | इस अवधारणा पर चिंता किये बिना और उसे दुरुस्त किये बिना  हिन्दू समाज आधुनिक युग के राष्ट्र धर्म या राष्ट्रवाद के कर्तव्यो का निर्वहन नही कर सकता | इस राष्ट्र में किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के मानने वालो को अपने से अलग मानकर राष्ट्र की राष्ट्रीयता को समग्र रूप में स्थापित नही कर सकता | उसकी एकता अखंडता की रक्षा नही कर सकता | इसका  यह मतलब कदापि नही है  कि अन्य धर्म सम्प्रदाय के लोगो की गलत अवधारणाओ की कोई आलोचना न की जाए | नही ऐसी आवश्यक आलोचनाये जरुर की जाए | पर वह आलोचना उन्हें अपने राष्ट्र व समाज का हिसा मानकर किया जाय |

फिर हिन्दू समाज में यह विखंडन केवल धार्मिक रूप में ही नही है बल्कि उससे कही ज्यादा जातीय रूप में विद्यमान है | हालाकि जातीय व्यवस्था में पहले के मुकाबले टूटन जरुर आई है और वह लगातार टूटती भी जा रही है | लेकिन यह काम हिन्दू समाज में राष्ट्रीय व सामाजिक एकता को स्थापित करने के सक्रिय प्रयासों से बहुत कम हुआ है | इसकी जगह यह टूटन मुख्यत:: या आधारभूत रूप से आधुनिक शिक्षा के फैलाव बढाव व आधुनिक पेशो के आगमन के चलते हुआ है |

पुराने युग के जातीय व पुश्तैनी कामो पेशो में निरंतर टूटन आने के चलते बढ़ता रहा है | जातीय व्यवस्था की इस टूटन और उसे हर हाल में आगे बढने  ( तथा पीछे न लौट सकने ) की दिशा दशा को देखने जानने के वावजूद हिन्दू समाज और उसके अगुवाकार , घोषित धर्मज्ञ  तथा अन्य सामाजिक राजनीतिक संगठन  हिन्दू समाज के इस सदियों पुराने विखंडन को दूर करने का कोई सार्थक व सक्रिय प्रयास करते दिखाई नही  पड़ रहे है | बहुत हुआ तो छुआछूत का विरोध कर दिया या निचली जातियों के साथ कभी कभार का सहभोज कर लिया | उनके प्रति ऊँची जातियों को उदारता बरतने का उपदेश व प्रचार आदि कर दिया | लेकिन मामला केवल छुआछूत और निम्न जातियों के प्रति केवल कट्टरता को कम करने का नही है | बल्कि हिन्दू समाज में सदियों से चले आ रहे और आधुनिक युग में किन्ही हद तक विद्यमान इस उंच -- नीच की असमानता , विखडन और दुरी -- दुराव के संबंधो के खात्मे का है |  जाति -- व्यवस्था को पूरी तरह से खत्म किये जाने का है | उसके लिए आधुनिक युग की मांगो आवश्यकताओ अनुसार विखंडित समाज को एक करने के लिए नए जनतांत्रिक सोच व व्यवहार को अपनाने का है |
ठीक इसी जगह हिन्दू धर्मज्ञो , राष्ट्रवादियो या कहिये समूचे हिन्दू समाज की कमजोरी स्पष्ट रूप से सामने आ जाती है | फिर यह कमजोरी इस बात को भी परिलक्षित करती है कि हिन्दू समाज के अगुवाकारो ने हिन्दू समाज के इस विखडन को दूर करने की जगह उसे भविष्य में कभी स्वत: समाप्त हो जाने के लिए छोड़ दिया है | जबकि वर्तमान युग की बाजारवादी -- जनतांत्रिक व्यवस्था को संचालित करने वाली धनाढ्य वर्गीय राजनीति इस सामाजिक ( धार्मिक व जातीय ) विखडन के राजनीतिक इस्तेमाल से समाज में परस्पर विरोधी गोलबंदी को बढाने में लगी हुई है | '' बाटो व राज करो '' की साम्राज्यी राजनीति को अपनाते  और अधिकाधिक इस्तेमाल करते हुए वह अब पूरे राष्ट्र व समाज के जनसाधारण को धर्म जाति इलाका भाषा के आधार पर विखंडित करती जा रही है |
इसीलिए अब खासकर हिन्दू समुदाय को जहा एक तरफ आधुनिक '' राष्ट्र धर्म '' में विदेशी लूट व प्रभुत्व से स्वतंत्र व आत्म निर्भर राष्ट्र निर्माण के लिए ''  राष्ट्रधर्म '' या राष्ट्रवाद की नवजागृति को खड़ा करने की आवश्यकता आ खड़ी हुई है | वही दूसरी तरफ उसे सदियों से जाति व धर्म के रूप में विखंडित होते रहे समाज को भी एकजुट करने उसमे समानता व बन्धुत्व पैदा करने की आवश्यकता  आ खड़ी हुई है | क्योकि राष्ट्र केवल भौगोलिक सीमा नही है , न ही वह केवल एक केन्द्रीय राज्य द्वारा शासित क्षेत्र  ही है |
बल्कि वह इसके उपर राष्ट्र सीमा के भीतर रहने वाले जन समुदाय का राष्ट्रीय -- जीवन  है | राष्ट्रीय एकजुटता के सम्बन्ध व भावनाए है | उसी अनुसार अपनाए गये विचार एवं व्यवहार है | राष्ट्र की जीवतता केवल भौगोलिक सीमाओं व राज्य की सीमाओं में परिलक्षित नही हो सकती | बल्कि वह राष्ट्र के जन समुदाय के राष्ट्र प्रेम , राष्ट्रीय -- पहचान , राष्ट्रीय -- सम्बन्ध और राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावनाओं में ही फल -- फूल; सकती है | यह तभी संभव है जब राष्ट्र व जन -- समाज  विखण्डित न रहे और साथ ही  विखण्डन के नए व पुराने रूपों को कमतर करने का भी निरंतर प्रयास करता रहे |
यह प्रयास इस राष्ट्र व समाज का उच्च हिस्सा कदापि नही कर सकता | क्योकि वह तो अपने धन पूंजी के स्वार्थ में तथा सत्ता के स्वार्थ में राष्ट्र व समाज के विखण्डन को ही बढाने में ही लगा हुआ है | इसीलिए अब इस काम को राष्ट्र व समाज के जनसाधारण को ही करना पडेगा | उसे ही हिन्दू समाज में पुरानी व नई विखण्डनवादी  अवधारणा को दुरुस्त करना ही होगा |


सुनील दत्ता .पत्रकार

No comments:

Post a Comment