Wednesday, December 3, 2014

रुस्तमेहिन्द जफर खान

रुस्तमेहिन्द जफर खान


विश्वासघात ही उस युग की राजनीति और समाज का प्रथम व्यवहार था |

दिल्ली के मध्ययुगीन तुर्क साम्राज्य में उन दिनों ईर्ष्याद्वेष , विश्वासघात और छलप्रपंच के बिना कोई काम ही नही चल सकता था | यदि अमीरों को मौका मिल गया तो वे अपने सुलतान के साथ छल और विश्वासघात करने से नही चुकते और यदि सुलतान का दाँव लग गया तो वह भी अपने अमीरों की खाल उधेड़ लेता , खून की
प्यास दोनों ओर थी | लेकिन इन दोनों रक्तपिपासु दलों के बीच कभी कभी निर्दोष , निरीह व सज्जन भी पिस जाते , जफरखान ऐसा ही सूरवीर ईमानदार कर्तव्यपरायण सेनानायक था | जिस ने बड़ी बहादुरी से मंगोलों को कई बार हराया और अपने शत्रुओ से ही '' रुस्तमेहिन्द '' की खिताब भी प्राप्त की , लेकिन उस जैसे वीर सेनापति को भी कुटिल सुलतान अलाउद्दीन खिलजी की ईर्ष्या का शिकार बनकर प्राणों से हाथ धोना पडा |

जब अक्तूबर 1296 ई . में
बैठा तो उसे एक बड़ी भारी विपत्ति का सामना करना पडा | देश में मगोलो क आक्रमण का भय छाया हुआ था | सीमांत पर आक्रमणकारियों के तुमान इकठ्ठे हो रहे थे |
मंगोलों ने सन 1296 -- 97 ई की सहित शीत ऋतू में सिन्धु नदी पार कर के पंजाब में लूटमार शुरू कर दी | सुलतान ने मंगोलों को मार भगाने के लिए अपने भाई अलगुखान तथा सेनापति जफ्र्खान को सीमांत की ओर भेजने का निश्चय किया |
सुलतान अलाउद्दीन खिलजी अपने शाही महल में मंत्रणा कक्ष में कुछ व्याकुल मुद्रा में टहल रहा था , साम्राज्य की उत्तरी पश्चिमी सीमा से आक्रमणकारी मंगोलों के दल के दल देश में घुस आये थे और लूटमार करके
हरे भरे सीमांत प्रदेशो को श्मशान भूमि में बदल रहे थे , अभी कुछ महीने पहले ही बहादुर सेनापति जफरखान ने इन को मारपीट कर सिन्धु नदी के पार धकेल दिया था लेकिन इस बार ये फिर दोगुनी ताकत के साथ हिन्दुस्तान को लुटने चले आये थे |
ये मंगोल आक्रमणकारी चंगेज के पुत्र हलाकू के खूंखार सैनिक थे , जिन्होंने एशिया महाद्दीप में सर्वनाश उपस्थित कर दिया था | मध्य एशिया और पूर्वी एशिया और पूर्वी यूरोप को लूटमार द्वारा राख में मिलाकर अब ये लोग हिन्दुस्तान की ओर बढे थे | हिन्दुस्तान की समृद्दी की खबरे उनके कानो तक पहुच चुकी थी | मंगोल शासक हलाकू की साम्राज्य लिप्सा विनाश लीला और खून की प्यास की भयंकर व रोमाचक खबरे सभी देशो में फ़ैल चुकी थी |
सारे भारत में यही आतंक फैला हुआ था कि क्या इन खून के प्यासे मंगोल भेडियो द्वारा दिल्ली के भी वही दुर्दशा होगी जैसी बगदाद की हुई थी | अलाउद्दीन खिलजी कुछ ऐसी ही उधेड़ बन में पड़ा हुआ अपने यशस्वी व वीर सेनापति जफरखान का इन्तजार कर रहा था जिसने कुछ महीने पहले ही मंगोलों को करारी हार दी थी |
थोड़ी देर बाद जफरखान ने प्रवेश किया लम्बी कद्दावर शरीर उन्नत मस्तिष्क विशाल आँखे यत्न से संभाली दाढ़ी उसके रोबदार चेहरे पर खूब जंच रही थी | वह जन्मजात सैनिक था युद्द उसका जीवन था विजय लक्ष्य और निर्भयता स्वभाव , शत्रु के सामने जमकर उसने पीछे हटना नही सीखा था | जफरखान ने सुलतान का अभिवादन किया और एक ओर खड़ा हो गया , सुलतान अलाउद्दीन की दृष्टि साम्राज्य के इस महान स्तम्भ पर पड़ी , वह उसके ओजस्वी व्यक्तित्व और रोम रोम से टपकते शौर्य को देखकर आस्वस्थ हुआ |
सुलतान ने उसके सामने अपनी चिंता व्यक्त की '' सीमांत पर फिर मंगोलों के दल के दल इकठ्ठे होकर उत्पात कर रहे है , इन दुष्ट लुटेरो से किस प्रकार अपने साम्राज्य की रक्षा हो सकती है सेनापति ?
अलाउद्दीन खिलजी अपने चाचा और ससुर जलालुद्दीन की हत्या करके सिहासन पर
जफरखान ने उत्तर दिया '' जहापनाह '', साम्राज्य की रक्षा का उत्तम उपाय यह है कि शत्रु को उसके घर में ही घुस कर पिटा जाए आक्रमण की प्रतीक्षा न की जाए , और उसे इतनी बुरी तरह पिटा जाये कि फिर कई पीढियों तक वह इस ओर आँख उठाने की हिम्मत भी न कर सके | सुलतान ने जिज्ञासा भरी दृष्टि से उसकी ओर'' देखकर कहा
'' अपनी बात को स्पष्ट करके कहो जफरखान ''
सेनापति ने कहा '' हमे हमलावर मंगोलों को सिन्धु नदी पार करने का मौक़ा ही नही देना चाहिए , बजाये इसके कि वे हमारे प्रदेश में घुसकर जब चाहे तब लूटमार करने आते जाते रहे , हम ही क्यों न सिन्धु को पार करके उनके सिविस्तान प्रदेश में घुसकर , उन्हें अच्छी तरह मारपीट कर ठीक कर आये और उस प्रदेश को अपने साम्राज्य का अटूट अंग बनाकर हमेशा के लिए मंगोलों का काटा निकाल दे ?
'' शाबाश ''
अलाउद्दीन की आँखों में चमक आ गयी , '' पंजाब और सिन्धु प्रदेशो की रक्षा के लिए सिविस्तान को अपने राज्य में मिलाना जरूरी है , तुरंत आक्रमण की तैयारी की जाए ''
ऐसे साहसिक अभियानों के लिए जफरखान हमेशा तैयार रहता था उसने थोड़े ही समय में अपनी सेनाये तैयार कर ली , हिन्दुस्तानी सेना पडाव डालती हुई तेजी से आगे बढ़ी जफरखान की नीति युद्द में द्दृत गति से चलने की थी , शत्रु को संभलने का मौका दिए बिना ही उस ने सिन्धु नदी को पार किया और सिविस्तान पर धावा बोल दिया | अपनी प्रचंड फ़ौज की सहायता से सेनापति ने सिविस्तान के दुर्ग को घेर लिया |
चंगेजखान के समय से अब तक मंगोल हिन्दुस्तान में आकर लूटमार करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते थे जब वे अपना खजाना खाली देखते तो के लिए इस देश में उतर जाते और डाकुओ की तरह
लूटमार करके लौट जाते | पहली बार हिन्दुस्तानी फ़ौज ने उनके राज्य में घुसने की हिम्मत की थी | उनमे इतना साहस कैसे आ गया कि चंगेज और हलाकू के प्रदेशो पर हमला कर दे ? यह उल्टी गंगा कैसे बहने लगी ? वास्तव में यह चंगेज और हलाकू की ही नीति थी कि शत्रु को उसके घर में घुसकर पीटो युद्द भूमि उसी के प्रदेश में न हो कि अपने राज्य में |
सिविस्तान का सूबेदार सिल्दी जफरखान के इस आकस्मिक आक्रमण से घबरा गया फिर भी उसने अपने भाई तथा अन्य मंगोलों सरदारों की सहायता से हिन्दुस्तानी सेना से लोहा लेने की तैयारी की | जफरखान की सेना ने तलवार , फरसे , भाले और नेजो की मार से मंगोलों के छक्के छुड़ा दिए|
सिविस्तान का सूबेदार सिल्दी जफरखान के इस आकस्मिक आक्रमण से घबराय।था
मंगोलों ने भी किले के बुर्जो से वाणों की ऐसी वर्षा की कि किले के भीतर एक चिड़िया भी घुसने का साहस नही कर सकती थी | लेकिन जफरखान के बहादुर योद्दाओ ने अद्भुत पराक्रम से किले को जीत लिया सिल्दी अपने साथियो के साथ कैद कर लिया गया सिविस्तान के दुर्ग के बाद हिन्दुस्तानी सेनाओं ने स्वात पाशेब
और गर्मच के किलो पर भी अधिकार जमा लिया | सिविस्तान के प्रदेश पर हिन्दुस्तानियों की इस विजय से सारे मध्य एशिया में तहलका मच गया चंगेज खान और हलाकू के खूनी जंगबाज मंगोल अपने ही घर में पहली बार पिटे थे | एक बहुत बड़ा प्रदेश उनके साम्राज्य से टूटकर हिन्दुस्तान में मिल गया था | सिल्दी
अपने भाई तथा बहुत से मंगोल सरदारों और उनके स्त्री बच्चो के साथ बंदी बनाया गया प्रत्येक मंगोल कैदी को तौक और जंजीर में बंधवा कर दिल्ली भेज दिया गया |
आधी शताब्दी से भी अधिक समय तक एशिया में हत्याकांड लूटमार और आग का भयंकर खेल खेलने वाले ये मंगोल जब हिन्दुस्तानियों द्वारा पिटे तो उनके साम्राज्य के पाए हिल गये | उन्होंने हारना जाना ही नही था बड़े --- बड़े राज्य उनके आक्रमण की आंधी में तिनके की तरह उड़ गये | इन्ही मंगोलों को जफरखान ने दूसरी बार पीटा था \ वह भी उनके राज्य में घुस कर , इस विजय से जफरखान का यश हिन्दुस्तान में ही नही बल्कि सारे एशिया महाद्दीप में फ़ैल गया मंगोल उसे हिंदुस्तान का रुस्तम मानने लगे |
उसके पराक्रम और शौर्य का यश इतना फ़ैल गया कि वह कुछ दिनों में सारी प्रजा का लाडला बन गया | लोग उसकी बढाई करके फूलो न समाते थे | जफरखान ने चंगेज खान और उसके पौत्र हलाकू की सारी प्रतिष्ठा धुल में मिला दी थी | मंगोलों के लिए वह बहुत बड़ी चुनौती बन गया था | उन्होंने सिविस्तान की पराजय का बदला लेने के लिए जोरशोर से तैयारिया शुरू कर दी | मध्ययुगीन भारतीय समाज जन -- समाज वीरता की पूजा करता था | जफरखान ऐसा ही एक पूज्यनीय बीर था जिसने चंगेजखान और हलाकू के खुनी भेडिये जैसे इन मंगोलों को बार -- बार हराकर अपनी शूरवीरता की धाक जमा दी थी |
भारतवासियों ने गाँव -- गाँव , शहर -- शहर में उसकी जय जयकार की उसकी बहादुरी लोकगीतों में ढल कर पूरे साम्राज्य में गूजने लगी | वह वीर योद्दा सुलतान से भी अधिक सम्मानित व्यक्ति बन गया था | कयोकी अपने उदार और दयालु चाचा की विश्वासघात पूर्ण हत्या करने से जहा प्रजा मन ही मन सुलतान से घृणा
करती थी वहा इस वीर को पौराणिक नायको की तरह मान देती थी |
यही सम्मान जफरखान की मृत्यु का कारण बना कयोकी अलाउद्दीन जैसा खूनी दुर्दांत और धूर्त
व्यक्ति अपने अधीन सेनापति के यश को कैसे सह सकता था | उसे लगा कि उसकी सल्तनत अब गयी कि तब गयी | सचमुच उस समय तथा कथित उच्च समाज कितना नीच था और नीच समझा जाने वाला समाज कितना उच्च था | जफरखान की इस विजय ने जहा इस महान योद्दा का यश सारे एशिया महाद्दीप में फैला दिया और शत्रुओ द्वारा '' रुस्तमे हिन्द '' की पदवी पाई | वही उसे अपने लोगो द्वारा बड़े दुर्भाग्य का सामना करना पडा | सुलतान अलाउद्दीन खिलजी उसकी लोकप्रियता और प्रशंसा से जल उठा और मन ही मन उससे भयभीत होकर ईर्ष्या करने लगा |
सुलतान का छोटा भाई उलगुखान उससे और अधिक जलता था और किसी न किसी प्रकार उसे अपने रास्ते से हटाना चाहता था | अभी जफरखान नये जीते हुए प्रदेश सिविस्तान के सुदृढ़ रक्षा व्यवस्था करने में व्यस्त था कि सुलतान और उसके भाई की ईर्ष्या ने इस महान अद्दितीय सेनापति के विरुद्द जाल बुनना शुरू कर दिया |
इन लोगो ने ईर्ष्या वश उसे तुरंत अपनी जागीर सामना में लौटने का हुक्म दिया सुलतान की यह भयंकर भूल थी कयोकी जफरखान के लौटते ही मंगोलों ने उसे सहज ही फिर जीतकर अपने राज्य में मिला लिया और दिल्ली को धुल में मिलाने के तैयारिया जोर -- शोर से शुरू कर दी | जफरखान के लौटते ही सुलतान उसे
समाप्त करने के योजना बनाने लगा | उसके षड्यंत्र का रूप इस प्रकार था -- या तो उस पर कृपा दृष्टि करके उसे कुछ हजार सवार देकर लखनौती ( बंगाल ) पर अधिकार करने भेज दिया जाए जहा वह दिल्ली से बहुत दूर साम्राज्य के कोने पे पडा --- पडा प्रतिवर्ष वहा से हाथी तथा राज्य कर भेजता रहे अथवा किसी उपाय से
उसे विष देकर मरवा दिया जाए या उसकी आँखे निकलवाकर उसे कैद में डाल दिया जाए |
सुलतान इस प्रकार साजिश करके रुस्तमे हिन्द जफरखान को अपनी ईर्ष्या का शिकार बनाने की सोच ही रहा था कि तभी उस पर बड़ी भारी विपत्ति आ पड़ी |
सिविस्तान की पराजय का बदला लेने के लिए कुतलुग ख्वाजा ने मंगोलों के 20 तुमान ( डिविजन ) लेकर हिन्दुस्तान पर हमला कर दिया | इस बार उनका लक्ष्य सीमावर्ती प्रदेशो में लूटमार करना न था बल्कि सीधा दिल्ली पर आक्रमण करना था | ख्वाजा कुतलुग अपनी प्रबल सेना के साथ सिंध पार कर के पड़ाव पर पड़ाव डालता हुआ दिल्ली की ओर बढा | उसने मार्ग में पड़ने वाले किलो नगरो कस्बो और गाँवों को लुटने व जलाने में समय नष्ट नही किया | मंगोलों के सवारों की टापे दिल्ली के निकट आती जा रही थी | देखते ही देखते मंगोलों के 20 डिविजन सवारों ने दिल्ली के चारो ओर घेरा डाल दिया | दिल्ली के घिरत ही राजधानी में हलचल मच गयी | मंगोल सवार इस झपटे के साथ आये कि उनके मुकाबले के लिए पूरी तैयारी भी न हो पाई इससे तो लोगो में और भी घबराहट फ़ैल गयी | अभी तक शहर की रक्षा करने वाली चारदीवारी की ठीक तरह से मरम्मत नही हो पाई थी |
सुलतान ने जितनी जल्दी हो सका पास के सूबों से अपनी सेना और इकठ्ठी कर ली और मंगोलों का सामना करने के लिए डट गया शहर में शरणार्थी की इतनी भीड़ हो गयी थी कि कही तिल रखने के लिए जगह नही थी | अनाज के दम आस्मां को छूने लगे थे कयोकी बंजारों और व्यापारियों के आने जाने के सब मार्ग मंगोलों ने बंद कर दिया था | सुलतान बड़े वैभव के साथ अपनी सेना लेकर दिल्ली से निकला और सीरी में छावनी डाल दी | उसने अपना शाही हराम और खजाना दिल्ली के कोतवाल अजा उल मुल्क को सौपा यही सीरी में उसने युद्द
मंत्रणा के लिए अपने सभी अमीरों मलिकों और सेनापतियो को बुलाया , जफरखान भी इस मंत्रणा में सम्मलित हुआ भावी युद्द के विषय में सभी अपने विचार प्रकट करने लगे |
मलिक अज उल मुल्क अपने समय का सबसे मोटा आदमी था | इसे सुलतान ने मोटापे के कारण बेकार जानकार दिल्ली का कोतवाल बना दिया था और विश्वस्त जानकार हरम और खजाना इसके सर्क्ष्ण में छोड़ दिया था | यह अत्यंत मोटा होने के कारण मुश्किल से चल पाटा था मंगोलों के आक्रमण से यही व्यक्ति
सबसे ज्यादा भयभीत था | वह सोचता था यदि शहर छोड़कर भागना पड़े तो वह सबसे पीछे रह जाएगा और फिर ये खून के प्यासे चंगेज व हलाकू न जाने उसके साथ क्या व्यवहार करे |
युद्द मंत्रणा में वह भी उपस्थित था , अपने भय को नीति की ओट में छिपाते हुए इस मोटे कोतवाल ने सुलतान से कहा , '' जहापनाह जब दो समान बल वाले बादशाह युद्द्भूमि में आमने सामने डट जाते है तो विजय तराजू के पलडो के समान झूलने लगते है , न जाने किसका पलड़ा भारी हो जाए , इसलिए चंगेजखान और हलाकू जैसे इन खूंखार दरिंदो से जहापनाह नीति के अनुसार ही व्यवहार करे कयोकि वक्त को देखकर हो लड़ाई या सुलह करनी चाहिए "" |
सुलतान ने जफरखान की ओर देखा , वह दृढ स्वर में बोला , '' मैं मंगोलों के पक्ष में नही हूँ , हम उन्हें दो बार पहले भी हरा चुके है औए अब तीसरी बार भी जीत हमारी ही होगी , यदि हमने दरवाजे पर ललकारते हुए दुश्मन से डर कर सुलह कर ली तो हमारी सेना की पिछली कुरबानिया बेकार हो जायेगी , दुश्मन के हौसले बुलंद हो जायेगे वह हमे और भी दबाएगा , '' |
उल्तान ने बारी बारी सभी अमींरो और मलिकों के विचार पूछे , सब ने एक मत से जफरखान के विचारों का समर्थन किया | इसके पश्चात सुलतान ने अपना मंतव्य प्रकट किया , '' जिस दुश्मन ने दो हजार
मील पार कर हमारी राजधानी को घेरा है , वह निश्चय ही बलवान है पर उसकी ललकार सुनकर चुपचाप बैठ जाना या उसके आगे झुक जाने से मेरा सिर झुकाना निश्चय ही बहुत श्रम की बात होगी मंगोलों के आगे झुक जाने से मेरा साम्राज्य बिखर जाएगा और विद्रोहियों को सिर उठाने का मौक़ा मिलेगा | दुश्मन के आगे झुकने पर मैं अपने साथियो की नजर में गिर जाउंगा तथा हरम की औरतो से आंख न मिला सकूंगा |, युद्द अवश्य होगा आराम और मोटापे से इस अज उल मुल्क को कायर बना दिया है , यह मुंशी है और मुंशी का बेटा है | यह समय इसकी बात मानने का नही बल्कि मंगोलों के खून से अपनी तलवार की प्यास बुझाने का है |
सुलतान का निर्णय सुनकर जफरखान की आँखे चमक उठी सभी अमीर और मलिक अपनी अपनी सेना सजाने लगे , सुलतान अपनी शक्तिशाली सेना को लेकर सीरी से किली की ओर बढा और मंगोलों के सामने जा डटा दोनों सेनाये आमने सामने मोर्चा लगा कर जैम गयी और युद्द की प्रतीक्षा करने लगी | जफरखान
दिल्ली की सेना के दाए बाजू पर और उलगुखान बाए बाजू पर नियत था , केंद्र भाग में स्वंय सुलतान के हाथ में था |
जफरखान ने आक्रमण में पहल की उसने तलवार खिंच ली और अपने अधीन अमीर व सेनानायको को लेकर मंगोल सेना के बाए बाजू पर टूट पडा | जफरखान का नाम और दर्शन ही मंगोलों को अधीर बनाने के
लिए पर्याप्त था | उसका नाम ही विजय का पर्यायवाची बन चुका था | हिन्दुस्तानी सिपाही उसके नेतृत्व में तीर की तरह मंगोलों पर टूट पड़े , इस प्रचंड आक्रमण का सामना वे न कर सके | थोड़ी ही देर में उनके पैर उखड गये और वे भाग खड़े हुए | रुस्तम की तरह शूरवीर जफरखान ने अपनी सेना के साथ दूर तक भगोड़ो का पीछा किया और उन्हें खदेडता हुआ तलवार से काटता हुआ 18 कोस आगे तक निकल गया मंगोल इस तरह
भाग रहे थे कि उन्हें किसी बात का होशो हवास  नही था |
योजना और युद्द नीति के अनुसार इसी समय उलगुखान को बाये बाजू की फौजों के साथ आगे बढ़कर
शत्रु पर वार  करना था जिससे उसका समूल नाश हो सके और जफरखान को सामयिक सहायता मिल सके लेकिन उसने ईर्ष्यावश  ऐसा नही किया | जब जफरखान अपने सवारों के साथ सिंह की भांति मंगोलों को खदेडता हुआ आगे बढ़ रहा था तो सुलतान अलाउद्दीन और उसका भाई उल्गुखान दोनों प्रसन्न होने के
बदले ईर्ष्या  द्वेष से जल उठे | इस विजय का सारा श्रेय अकेला जफरखान लिए जा रहा है | वह अकेला ही उन्हें भेड़ो की तरह खदेड़ कर कोसो दूर ले गया था | सुलतान के अधीन केंद्र भाग में उत्तम सेना थी | इसी तरह बाये बाजू पर उलगुखान के अधीन सबसे अच्छे अमीर और उनकी ताजादम फ़ौज थी | लेकिन इन दोनों भाइयो ने अपनी ऊँगली तक न हिलाई उन्हें इस बात का बड़ा ही अफ़सोस था कि अकेला जफरखान ही शत्रु को खदेडता
कोसो दूर निकल गया और जीत का सारा यश उसी ने ओढ़ लिया है | जब कि उनकी दो तिहाई सेना तमाशा ही देखती रह गयी  है | उन्हें ऐसा लगा मानो रुस्तमे हिन्द ने शत्रु पर जादू कर दिया हो , ईर्ष्यावश वे लोग अपने स्थानों पर फ़ौज समेत जमे रहे जफरखान के पृष्ठ भाग के लिए की रक्षा के लिए आगे नही बढ़े , उन्होंने सोचा यदि वह इसी तरह शत्रु से घिर कर लड़ते --  लड़ते मारा जाए तो यही अच्छा है |
मंगोल बेतहाशा भाग रहे थे और जफरखान जीत की उमंग में उन्हें निरंतर खदेडता जा रहा था | आखिर जान बचाने के लिए वे पेड़ो पर चढ़ कर छिप गये , जफरखान के सवार उन्हें देख न पाए तभी मंगोल सेनापति तारगी ने देखा कि जफरखान अपने जोश में इने गिने साथियो के साथ बहुत आगे बढ़ आया है और उसके पृष्ठ भाग की रक्षा के लिए दिल्ली से कोई बड़ी सेना नही आ रही है | इसलिए उसने अपने लोगो को संकेत किया देखते   -- देखते मंगोलों ने पीछे से धावा बोल कर उसे घेर लिया और उस पर वाणों की बौछार कर दी | जफरखान के इने --  गिने साथी धीरे धीरे गिरने लगे फिर भी वह निराश नही हुआ और दोगुने जोश से दुश्मन से लोहा लेने लगा | मंगोलों ने उसके घोड़े को बाणों से बुरी तरह छेद डाला | जिससे वह डगमगा कर गिर पडा | घोड़े से गिरते जफरखान पैदल युद्द करने लगा | अब वह अकेला था और चारो ओर से सैकड़ो मंगोल सवारों ने
उसे घेर रखा था | उसने धैर्य न छोड़ा , उसने तलवार छोड़कर बाणों से सवारों को गिराना शुरू किया जिसको भी उसका बाण छू जाता वह निष्प्राण होकर गिर पड़ता पर अब तो उसका तरकस भी खाली हो गया |
जफरखान हाथ में तलवार लेकर मौत का सामना करने के लिए तैयार हो गया था वह बुरी तरह घायल हो
चुका था और बार  ---- बार दिल्ली की दिशा में देख रहा था शायद उसकी सहायता के लिए सुलतान या उलगुखान की कोई सेना अ रही हो लेकिन उधर से कोई सहायता न आई  थी और न ही आई |
इसी बीच कुतलुग ख्वाजा अपने चुने हुए सवारों  के साथ आगे बढ़ा उसने वार करने वाले मंगोलों को रोककर घायल जफरखान से कहा '' जफरखान हम तुम्हारी बहादुरी से बहुत खुश है दिल्ली का सुलतान अलाउद्दीन और उसका भाई उलगुखान तुम्हारी बहादुरी से जलते है ये लोग तुम्हारे प्राण लेने पर उतारू है तभी तो उन्होंने तुम्हारी मदद के लिए अपनी फौजों में से एक भी आदमी नही भेजा और तुम्हे मौत के मुंह में अकेला धकेल दिया आ तू मुझसे मिल जा मैं तुझे अपने पिता के पास ले जाउंगा वे तुझे दिल्ली के सुलतान से भी
अधिक मान देंगे |
जफरखान ने घृणा पूर्वक कहा '' सुलतान मेरे साथ क्या व्यवहार कर रहा है इसकी मुझे जरा भी चिंता नही है , मैं तो सीधा साधा  सैनिक हूँ , युद्द क्षेत्र में शत्रु से जूझना ही मेरा एकमात्र कर्तव्य है | सुलतान द्वेष करता है तो करता रहे इससे क्या अंतर पड़ता है सुलतान से अधिक मैं जन्मभूमि को महत्व देता हूँ वह तो मुझे द्वेष नही करती मैं अलाउद्दीन के दुश्मनों से नही अपने हिन्दुस्तान के दुश्मनों से लड़ने आया हूँ शरीर में प्राण रहते हुए कोई भी मुझे इस धरती से अलग नही कर सकता |

कुतलुग ख्वाजा और तार्गी ने देखा कि ज्फ्र्खान को जीवित दशा में बंदी बनाना कठिन ही नही असम्भव है तो उसने अपने सवारों को संकेत किया मंगोल अकेले , पैदल और घायल जफरखान  पर टूट पड़े उसने यथाशक्ति शत्रु का प्रतिरोध किया लेकिन घाव लगने से वह गिर पडा और शहीद हो गया |
इसके बाद मंगोलों ने उसके शेष अमीरों और साथियो को ढूढ ढूढ कर मर डाला उसके हाथियों और महावतो की भी हत्या कर दी | इस तरह जफरखान और उसकी पूरी सेना का सफाया हो गया | जब युद्द भूमि से मीलो दूर
जफरखान पराजित मंगोल सैनिको के द्वारा शहीद हो रहा था तब सुलतान अलाउद्दीन और उसका भाई उलगुखान अपनी -- अपनी विशाल सेनाओं के साथ चुपचाप खड़े थे एक कदम भी आगे नही बढे |
यद्दपि मंगोलों ने    रुस्तमे हिन्द जफरखान   और उसके साथियो को घेर कर मार डाला था | पर उस के पराक्रम से उनकी भी कम हानि नही हुई थी | वे बुरी तरह भयभीत थे | अभी हिन्दुस्तान की पूरी फ़ौज तो मैदान में उतरी ही नही थी |
मंगोलों ने बहुत सोच  समझ  कर जान बचा कर भागने में ही कुशल समझी इसलिए वे रातो रात चुपचाप 30 कोस दूर पहुच गये  और प्रतिदिन बीस कोस पर पड़ाव डालते हुए भागकर अपनी सीमा में जा पहुचे वे किसी पड़ाव पर अधिक देर नही रुकते  | सुलतान ने मंगोलों को सिर पर पैर रखकर भागते देख उनका पीछा नही किया | इस ईर्ष्यालु शासक को मंगोलों की पराजय से अधिक ख़ुशी जफरखान के शहीद होने से हुई | मुर्ख सुल्तान ने यह भी नही देखा कि उसका बाया बाजु ही कट चूका है | बाद में वह मलिक काफूर नामक एक हिजड़े पर अधिकाधिक आश्रित होता गया | जिसने अंत में विश्वाश्घात करके सुलतान की हत्या कर दी बल्कि उसके पुत्रो को अंधा बनाकर ग्वालियर के किले में डाल दिया और बेगमो के सरे गहने तथा दूसरी सम्पत्ति छिनकर उन्हें महलो से बाहर निकाल दिया | इस तरह महाप्रतापी काल ने उस से इस मुर्खता तथा विश्वासघात का बदला व्याज समेत ले लिया | यद्दपि जफरखान युद्द भूमि में शहीद हो चूका था फिर भी उसके आक्रमण का भय मंगोलों के मन में वर्षो तक समाया रहा | यदि कभी उनके पशु पानी नही पीते तो वे कहते '' क्या तुमने रुस्तमे हिन्द जफरखान को देख लिया है जो पानी नही पी रहे हो |
यह वस्तुत: जफरखान का ही पराक्रम था जो उसने मंगोलों के प्रचंड आक्रमणों से इस देश को सुरक्षित रखा और अपने प्राण देकर भी उनके मन पर भारतीय शौर्य का इअसा सिक्का जमा दिया कि फिर वर्षो तक उन्होंने इसकी ओर मुंह भी नही किया | लेकिन अपने इस शौर्य और बलिदान का उसे क्या पुरस्कार मिला ? केवल विश्वासघात हाँ विश्वासघात ही उस युग की राजनीति और समाज का प्रथम व्यवहार था |

-सुनील दत्ता
स्वतंत्र  पत्रकार व विचारक                    
आभार स विश्वनाथ

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