सन्यासी विद्रोह और उसके सबक ( 1763-1800 )
( क्या आज के सन्यासी , फकीर , महात्मा , धर्मगुरु व धार्मिक नेता सन्यासी विद्रोह के शहीदों व फकीरों से प्रेरणा ले सकेगे ? इन विदेशी साम्राज्यी ताकतों और उनके सहयोगी देश के धनाढ्य वर्गियो से संघर्ष कर सकेगे ? उनके द्वारा लायी गयी और देश के धनाढ्य व हुक्मती हिस्सों द्वारा लागू की गयी नीतियों का विरोध कर सकेगे ? )
बंगाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी की सत्ता स्थापित ( 1757 ) होने के बाद सत्ता के विरुद्ध देशवासियों का पहला बड़ा विद्रोह सन्यासी विद्रोह के रूप में प्रस्टफूटित हुआ | बकिम चन्द्र के उपन्यास " आनद मठ" का कथानक इसी सन्यासी विद्रोह पर आधारित है |कम्पनी के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्ज ने इस विद्रोह को" सन्यासी विद्रोह " का नाम दिया था |सर विलियम हंटर ने स्पष्ट लिखा है कि , सन्यासी विद्रोह की शक्ति मुगल साम्राज्य के बेकार कर दिए गये सैनिक तथा भूमिहीन किसान थे | जीवन यापन का कोई उपाय न रहने पर विद्रोह के रास्ते पर चल पड़े थे |इनमे बहुतेरे लोग गृहत्यागी सन्यासी बन गये थे |उस समय के एतिहासिक तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि इसी वोद्रोह में मुख्यत: तीन शक्तिया शामिल थी | मुख्य रूप से बंगाल व बिहार के किसान थे , जिन्हें कम्पनी के व्यापार व राज ने लुटकर बर्बाद कर दिया था | दुसरे मरते हुए मुगल साम्राज्य के बेकारी और भूख से पीड़ित सैनिक थे | ये सैनिक खुद भी किसानो के ही परिवारों के थे | तीसरे बंगाल व बिहार के सन्यासी व फकीर थे |सन्यासी व फकीर ही इस विद्रोह के अगुवा थे | पर उनकी मूल शक्ति किसानो , दस्तकारो की तथा विद्रोह में शामिल भूतपूर्व मुगल शासन के सैनिको की थी |सन्यासियों ने अपने यायावरी जीवन को , इस विद्रोह को संगठित करने बढाने में लगा दिया | वे गाँव - गाँव घूमते हुए यह अलख जगाते चल रहे थे कि देश को मुक्त करना ही सबसे बड़ा धर्म है | ये विद्रोही सैकड़ो हजारो की संख्या में ईस्ट इंडिया कम्पनी की कोठियो और जमीदारो की कचहरियो को लुटते और उनसे कर वसूलते , इनका पहला हमला ढाका में कम्पनी की कोठी पर हुआ | यह कोठी ढाका के जुलाहों , बुनकरों और कारीगरों पर जुल्म ढाने का केन्द्र थी | उनकी तबाही और बर्बादी का कारण थी | विद्रोहियों ने रात में कोठी पर धावा बोल दिया | पहरेदार , सौदागर और कोठी के व्यवस्थापक भाग निकले | उस कोठी पर अंग्रेज छ: माह बाद ही दुबारा कब्जा कर पाए और वह भी बड़े सैन्य हमले के बाद | विद्रोहियों का दुसरा हमला राजशाही जिले के रामपुर बोआरिया की अंग्रेज कोठी पर हुआ वंहा का सारा धन लुट लिया गया |आमने -सामने की लड़ाई में अंग्रेजो से पराजित होने पर विद्रोहियों ने छापामार युद्ध की नीति अपनाई|
पटना से लेकर उत्तरी बंगाल के तराई इलाके तक सन्यासी विद्रोह की आग फ़ैल गयी थी | विद्रोहियों ने जलपाईगुड़ी में एक किला भी बनाया हुआ था | 1770 - 71 में पूर्णिया जिले के विद्रोहियों को पराजित कर उन्हें बड़ी संख्या में कैद करने में अंग्रेज शासक सफल हुए | उन्ही कैदियों से अंग्रेज शासको को सन्यासी विद्रोह की और जानकारी मिली | उसी जानकारी के अनुसार मुर्शिदाबाद के रेवन्यू बोर्ड के पास भेजे गये पत्रों में यह दर्ज़ है कि ज्यादातर विद्रोही किसान थे | अंग्रेजी शासन के संगठित हमलो के वावजूद सन्यासी विद्रोह बढ़ता - फैलता रहा | उत्तरी बंगाल से अब उसका फैलाव पूर्वी बंगाल के क्षेत्र मैंमन सिंह की तरफ बढ़ता रहा |जलपाई गुडी के पास महास्थान गढ़ और पौण्डवर्धन में भी दुर्ग बनाये गये | 1771 के शरद काल में सन्यासी विद्रोहियों ने उत्तर बंगाल में अपने धावे तेज़ कर दिए |नारोर के सुपरवाईजर ने 25 जनवरी 1772 को पत्र लिखकर यह सूचित किया कि "बाकुड़ा जिले के सिल्बेरी में फकीरों के एक दल ने जनसिन परगना कि कचहरी को लूट लिया | पत्र में उन्होंने यह भी सुचना दी कि ग्रामीणों ने खुद आगे बढकर विद्रोहियों के खाने - पीने का इंतजाम किया |किसानो ने ब्रिटिश सरकार को कर न देने का निर्णय ले लिया | 1773 में विद्रोहियों का प्रधान कार्यालय रंगपुर था | दमन के लिए अंग्रेज सेनापति टामस बड़ी भारी सेना लेकर आया | 30 सितम्बर 1773 को प्रातकाल: रंगपुर शहर के नजदीक श्यामगंज के मैदान में उसने विद्रोहियों पर आक्रमण कर दिया | विद्रोही शीघ्र ही भागने लगे |अंग्रेजी फ़ौज ने उनका पीछा किया | लेकिन आगे के जंगलो में अंग्रेजी फ़ौज विद्रोहियों से घिर गयी | विद्रोही उन पर टूट पड़े | अंग्रेजी सेना के देशी सिपाहियों ने भी विद्रोह कर दिया | थोड़ी ही देर में अंग्रेजी सेना मरती - कटती भागने लगी |टामस भी मारा गया रंगपुर के सुपरवाइजर ने रेवेन्यु काउन्सिल के पास पत्र भेजा कि किसानो ने हमारी सहायता नही की उल्टे उन्होंने लाठी ,भाला आदि लेकर सन्यासियों की तरफ से हमारे विरुद्ध युद्ध किया | जो अंग्रेज जंगल की लम्बी घास को अंदर छिपे थे , किसानो ने उन्हें खोज कर बाहर निकाला और मौत के घाट उतार दिया| मार्च 1774 को इन विद्रोहियों ने मैंमन सिंह जिले में अंग्रेज सेनापति कैप्टन एडवर्ड की सेना नष्ट कर दी उसमे एडवर्ड मारा गया सिर्फ 12 सैनिक ही बच सके | विद्रोहियों के क्रिया - कलापों और उनके साथ किसानो के सहयोग को बढ़ता देख कर गवर्नर हेस्टिंग्ज ने घोषणा की कि जिस गावं के किसान विद्रोहियों के बारे में ब्रिटिश शासको को खबर देने से इनकार करेंगे और विद्रोहियों के बारे कि मदद करेंगे , उन्हें गुलामो कि तरह बाज़ार में बेच दिया जाएगा | इस घोषणा के बाद कईहजार किसानो को गुलाम बना दिया गया | कितनो को बीच गाँव में फांसी दे दी गयी | विद्रोहियों का संगठन टूटने लगा 1774 - 75 में सन्यासी फकीर मजनू शाह ने उन्हें फिर से संगठित करने का प्रयास किया | 15 नवम्बर 1776 को मजनू शाह की सेना और कम्पनी की सेना में उत्तर बंगाल में युद्ध हुआ | अंग्रेजो को जंगल में खीच कर विद्रोही उन पर टूट पड़े | इस युद्ध में लेफ्टीनेन्ट राबर्ट्सन विद्रोहियों की गोली से घायल हो गया | मजनू शाह और उनके सन्यासी व फकीर साथी भागने में कामयाब रहे | बाद के कई सालो तक मजनू शाह विद्रोहियों को संगठित करने का प्रयास करते रहे | 29 दिसम्बर 1786 को अंग्रेजो के साथ युद्ध करते हुए यह फकीर बिद्रोही बुरी तरह घायल हो गये और कुछ दिनों बाद ही इस महान विद्रोही फकीर मौत के आगोश में सो गये | इसके बाद मजनू शाह के शिष्य फकीर मुसा शाह इस इंकलाबी विद्रोह के बड़े अगुवा बने |इनके अलावा विद्रोहियों के बड़े नेताओं में भवानी पाठक और देवी चौधरानी आदि के नाम उल्लेख्य्नीय है | युद्ध में भवानी पाठक मारे गये देवी चौधरानी उनके बाद भी लडती रही | ब्रिटिश कम्पनी कई सत्ता के विरोधी विद्रोहों में सन्यासी विद्रोह सबसे पहली व मजबूत कड़ी थी | इस संघर्ष में हिन्दू सन्यासी और मुस्लिन फकीर दोनों कई अगुवाई में किसानो व दस्तकारो का बहुत बड़ा हिस्सा इनके साथ खड़ा था | यह विद्रोह दशको तक चलता रहा और उस विद्रोह को ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा सालो - साल के संघर्षो के बाद ही दबाया जा सका राष्ट्र व समाज में सत्ता के विरुद्ध विद्रोह तक नही खड़े हो सकते है , जब तक उसकी शोषणकारी , दमनकारी व अन्यायी क्रिया - कलापों के चलते जन साधारण में असंतोष व विरोध नही खड़ा हो जाता | इसीलिए ऐसे विद्रोह तब तक खड़े होते भी रहेगे जब तक जनसाधारण किसानो , मजदूरों , दस्तकारो कई लूट चलती रहेगी | उन पर अन्याय व अत्याचार चलता रहेगा चाहे उसका रूप 1770 के जैसा हो या वह आधुनिक युग के छली , कपटी , भ्रष्टाचारी जनतांत्रिक बाजारवाद के जैसा हो | जिस तरह से विदेशी सत्ता के जरिये जन साधारण के शोषण , लूट कि जा रही थी , उसी तरह ही वर्तमान युग में बढ़ते वैश्वीकरण के साथ विदेशी पूंजी , विदेशी नीतियों व प्रस्तावों के जरिये आम किसानो , दस्तकारो के लूट जारी है | राष्ट्र व जन साधारण पर विदेशी साम्राज्यी का बढना जारी है | क्या आज के सन्यासी , फकीर , महात्मा , धर्मगुरु व धार्मिक लीडर सन्यासी विद्रोह के शहीदों व फकीरों से प्रेरणा ले सकेंगे ? इन विदेशी साम्राज्यी ताकतों और उनके सहयोगी देश के धनाढ्य वर्गियो से संघर्ष कर सकेंगे ? उनके द्वारा लायी गयी और देश के धनाढ्य व हुक्मती हिस्सों द्वारा लागू कि गयी नीतियों का विरोध कर सकेंगे ? इसकी संभावना नही है | क्योंकि आज के सन्यासी फकीर भी लक्ष्मीपूजक हो गये है | देशी व विदेशी धन कुबेरों एवं शासक हिस्सों के साथ हो गये है | वे किसानो - मजदूरों के साथ आये न आये , पर चौतरफा बढती जा रही लूट के विरुद्ध आम लोगो को खड़ा होना ही पड़ेंगा | वर्तमान दौर में तो नही लगता कि कोई सन्यासी भी ऐसा है जो इस रास्ते पे आगे चलेगा .....
सुनील दत्ता
पत्रकार
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (03-12-2014) को "आज बस इतना ही…" चर्चा मंच 1816 पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'