Monday, December 8, 2014

गुम होते पावर लूम ही नही , बल्कि गुम होती जिन्दगिया भी ................................... 9-12-14

गुम होते पावर लूम ही नही , बल्कि गुम होती जिन्दगिया भी



बड़ी
औद्योगिक कम्पनियों को तथा निर्यातको और आयातकों को नीतिगत छूटे
वैश्वीकरणवादी  नीतियों के 1997 से लागू किये गये दूसरे चरण के सुधारों के
जरिये दिए गये व बढाये गये | यह दूसरा चरण जैसे -- जैसे आगे बढ़ता रहा है
वैसे -- वैसे पावर लूम और अन्य तमाम छोटे उद्योगो के भविष्य पर विराम लगता
रहा है | अभी यह विराम भिवंडी के 50 प्रतिशत लूमो पर दिखाई पड़ रहा है | आने
वाले दिनों में 100 प्रतिशत पर दिखाई पडेगा |

7 जनवरी 13 के हिन्दी
दैनिक '' बिजनेस स्टैंडर्ड '' ने '' कहा गुम हो रहे पावर लूम '' शीर्षक से
महाराष्ट्र में भिवण्डी के पावर लूम के बारे में एक तथ्य पूर्ण सूचना
प्रकाशित किया है | इस सूचना के अनुसार भिवण्डी के पावर लूमो की दिन रात
खटपट अब शांत होने लगी है | दशको से भिवण्डी  पावर लूम के मालिको कारीगरों और
मजदूरों के घरो में चुल्हा जलाने वाले लूम अब कबाड़ बनते जा रहे है | 50%
पावर लूम अब पूरी तरह से ठप्प हो गये है | पावर लूम के मालिक धागे व बिजली
की महगाई के साथ मजदूरों की कमी का भी रोना रो रहे है | इनका कहना है कि ''
धागे के कारोबार पर सटोरियों का कब्जा हो गया है | 2008 की मंदी के दौरान
बड़े कारोबारियों ने पावर लूमो का माल लेने से मना कर दिया | बिक्री बाजार
की कमी के साथ 2009 -- 10 से धागे की कीमत में कमोवेश लगातार बढाव होता रहा
है | | बिक्री बाजार के घटाव और धागे की कीमत में बढाव के चलते छोटे पावर
लूम मालिक बारम्बार कर्ज लेने के लिए मजबूर होते रहे है | कर्ज के जाल में
अधिकाधिक फँसते गये है | उन्हें बाजार से मिलने वाला कर्ज 24 -- 30 %
सालाना व्याज दर पर उठाना पड़ता है , जिसे पावर लूम के बहुतेरे मालिक कभी
चुकता नही कर पाए | इसीलिए उन्हें पावर लूम बन्द करने पड़े , जो अब कबाड़
खाने के राह पकड रहे है | .... फिर काम कम होने और मुम्बई में क्षेत्रीय
राजनीति के चलते भी उत्तर प्रदेश व बिहार के मजदूर अब भिवण्डी  से तौबा कर
रहे है | सवाल है ऐसा  हो क्यों  रहा है ? क्यों पावर लूमो की स्थिति
बिगडती जा रही है | बड़े कारोबारी पावर लूम के उत्पादित माल का उठान क्यों
नही कर रहे है ?
बिजली की महगाई और धागों की कीमतों में लगातार बढ़ोत्तरी
आदि के चलते लागत बढती जा रही है | यह बात तो एकदम ठीक है | लेकिन अगर
बाजार में मांग बनी रहे और बढती  रहे तो लूम ठप पड़ने की गुंजाइश कम ही रहेगी | क्योकि बढ़ी लागत लागत की कुछ ना कुछ भरपाई बाजार से जरुर होती होगी | बढती लागत के चलते मुनाफे के दर में तो गिरावट जरुर होगी | लेकिन कम दर पर मुनाफे के साथ उत्पादन बिक्री का चक्र चलता रहेगा | फलत: उसके बन्द होने की नौबत नही आएगी |
लेकिन अगर लागत बढने के साथ बड़े कारोबारी माल को बढ़ते आर्थिक मंदी के नाम पर खरीदना कम कर दे तो तब तो पावर लूमो से उत्पादन बिक्री का चक्र का चलना पहले से धीमा हो जाएगा , फिर बाजार बिक्री के तेज गिरावट में वह रुक भी जाएगा | यहाँ तक कि अगर लागत बहुत कम बढ़े या न बढ़े लेकिन अगर बिक्री बाजार बहुत कमजोर पड़ जाए तो बाजार में माल जाम होने के फलस्वरूप उत्पादन का अगला चक्र भी जाम जरुर हो जाएगा , रुक जाएगा | दरअसल भिवण्डी में और अन्य जगहों के पावर लूमो के साथ यही कुछ हो रहा है | और केवल पावर लूमो के साथ नही बल्कि ज्यादातर छोटे उद्योगों के साथ हो रहा है | एक तरफ तो उनकी लागत की कीमत बढाया जा रहा है | कच्चे माल , बिजली आदि का अभाव व महगाई बढाई जा रही है और दूसरी तरफ उनके बाजार पर बड़ी देशी और विदेशी कम्पनियों के उत्पाद छाते जा रहे है | फलत: वे उद्योग ठप्प पड़ते और टूटते जा रहे है | जहा तक पावर लूम की बात है तो पावर लूम का क्षेत्र , कपड़ा उत्पादन का क्षेत्र है | इस क्षेत्र में कपड़े का बाजार का खासा हिस्सा अब रेडीमेड कपड़ो में विदेशी आयातित कपड़ो की भी धूम मची हुई है | इसके चलते भी बिना सिले कपड़ो का बाजार संकुचित होता जा रहा है |


फिर इसके अलावा  बिना सिले कपडे के बाजार का बड़ा हिसा देशी बड़ी मिलो के
उत्पादित कपड़े बाजार के रूप में है | पहले मुम्बई की कई दिग्गज कपड़ा मिले
भी भिवण्डी के पावर लूम से उत्पादित कपड़ो पर अपना ट्रेड मार्क लगाकर बाजार
में उतारती रहती थी | इसके फलस्वरूप भी भिवण्डी के पावर लूम उत्पादन का
बाजार बड़ी कपड़ा मिलो के रूप में बना हुआ था | लेकिन अब बाम्बे ( और अन्य कई
जगहों ) की बड़ी कपड़ा मिले अब कपड़े के उत्पादन व बाजार से हाथ खीचती जा रही
है | वे कपड़े जैसे आम उपभोग के पर गैर -- टिकाऊ सामानों के कम लाभ वाले
उत्पादन के क्षेत्र से अपनी पूंजी धनाढ्य उच्च एवं सुविधा परस्त तबको के
उपभोग वाले महंगे व टिकाऊ सामानों के अधिक लाभ वाले क्षेत्रो में लगाती जा
रही है | इसी तरह वे अपनी पूंजी राष्ट्र के बाजार के लिए उत्पादन व व्यापार
के लिए उत्पादन व व्यापार के क्षेत्र से अन्तराष्ट्रीय स्तर के उत्पादन व्
व्यापार के क्षेत्र में स्थानांतरित करती जा रही है | इसका सबूत यह भी है
कि बाम्बे ( व कानपुर ) जैसे शहरों की तमाम कपड़ा मिलो को उनके धनाढ्य मालिक
पिछले 20 -- 25 सालो से बन्द करते जा रहे है | इसी के साथ इस बात की भी
संभावना है कि चीन , कोरिया जैसे देशो से भी कपड़े का आयात होने लगा हो |
हालाकि इस संदर्भ में हम लोगो के पास कोई त्त्थ्यगत सुचना नही है | लेकिन
बड़ी कम्पनियों द्वारा कपड़ा उत्पादन व व्यापार को घटाए जाने का असर पावर लूम
के उत्पादित कपड़ो की मांग व बाजार पर जरुर पड़ा है |
बाजार के संकटग्रस्त होने के साथ वह का उत्पादन भी संकटग्रस्त होता जा रहा है | पावरलूम जैसे तमाम छोटे उद्योगों की बर्बादी पर उसी दिन मुहर लग गयी थी जब 1997 से लगातार विदेशी आयात पर लगे प्रतिबंधो को हटाने का काम हुआ | इससे भी पहले छोटे एवं कुटीर उद्योगों के क्षेत्रो में घुसने से रोकने के लिए देश की बड़ी कम्पनियों पर लगे एम् . आर . टी पी जैसे कानूनी प्रतिबन्ध को भी काटने -- घटाने से इन छोटे उद्योगों पर नकारत्मक प्रभाव पड़ता रहा है | इन नीतिगत बदलावों के चलते पावर लूम जैसे उद्यमों के लिए बाजार का संकट तेजी से बढने लगा था | फिर वह संकट बिजली की कमी किल्लत व महगाई से लेकर धागों के उत्पादन में कमी महगाई आदि के जरिये और ज्यादा परवान चदता रहा |
बड़ी औद्योगिक कम्पनियों को तथा निर्यातको और आयातकों को उपरोक्त नीतिगत छूटे वैश्वीकरणवादी नीतियों के 1997 से लागू किये गये दुसरे चरण के सुधारों के जरिये दिए व बढाये गये | यह दूसरा चरण जैसे -- जैसे आगे बढ़ता रहा है वैसे -- वैसे पावर लूम और अन्य तमाम छोटे उद्योगों के भविष्य पर विराम लगता रहा है | अभी यह विराम भिवण्डी के 50% लूमो पर दिखाई पद रहा है | आने वाले दिनों में 100% पर दिखाई पडेगा |
यह इसलिए भी दिखाई पडेगा कि जनसाधारण को उपयोग व उपभोग से उत्पादन और बाजार से काटा जा रहा है | उसके छोटे मोटे ससाधनो को काटने घटाने के साथ स्वभावत: उनके जीवन को काटा घटाया जाता रहा है | यही स्थिति आम मजदूरों के साथ सीमांत व छोटे किसानो तथा दस्तकारो बुनकरों के साथ भी खड़ी होती जा रही है | इसीलिए मामला भिवण्डी का हो या कही और का मामला पावर लूम का हो या किसी अन्य छोटे व कुटीर उद्योग का अब इनके पास अपने बचाव का फौरी रास्ता इन नीतियों सुधारों के विरोध का है | ताकि बड़ी देशी व विदेशी कम्पनियों को इनके उत्पादन व बाजार में दखल देने और उन्हें अंधाधुंध तरीके से मटियामेट करने से रोका जा सके | ताकि छोटे कारोबारियों कारीगरों और मजदूरों की जीविका की रक्षा करते हुए छोटे उद्यमों को बड़े उद्यम में परिवर्तित किया जा सके | विडम्बना यह है कि छोटे उद्यमियों के मालिक इन विनाशकारी आर्थिक नीतियों को उसके जरिये कटते घटते बाजार व उत्पादन को अपने विरोध का प्रमुख मुद्दा नही बना रहे है | वे मुख्यत: धागे -- बिजली की बढती महगाई और मजदूरों की कमी किल्लत की समस्या तक ही अपने आप को सीमित रखे हुए है | एकदम  किसानो की तरह | किसान भी इन्ही नीतियों व डंकल -- प्रस्ताव का भुक्त भोगी होने के वावजूद अपने आप को खाद बीज डीजल की महगाई या अनाज के कम मूल्य भाव तक ही सीमित कर लेता है | जबकि ये सारी  समस्याए इन्ही नीतियों प्रस्तावों के लागू होने के बाद तेजी से बढ़ा है | इसलिए इन नीतियों के विरोध के बगैर छोटे उद्यमी और किसानो के व्यापक हितो की किसी हद तक भी रक्षा करना संभव नही है | फिर बड़े उद्यमियों पर रोक व नियंत्रण तथा विदेशी कम्पनियों और उनके आयातों पर रोक व नियंत्रण लगाये बिना तो उनकी कोई सुरक्षा संभव नही है | भिवण्डी के पावर लूमो की बिगडती स्थितियों की सुचना वाले हिन्दी दैनिक '' बिजनेस स्टैंडर्ड '' ने केन्द्रीय सरकार से इन पावर लूमो  की सुरक्षा की मांग की है | लेकिन ऐसी मांगे भी अन्तोगत्वा छोटे उद्यमियों को धोखे में ही रखने वाली साबित होगी | कयोकी विदेशी कम्पनियों को छूट देते हुए सरकार अब इनकी सुरक्षा कदापि नही कर सकती है |


सुनील दत्ता ....पत्रकार

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