Wednesday, December 10, 2014

ओशो के जन्मदिवस पर ---------- 10-12-14

ओशो के जन्मदिवस पर ----------

सुख की ओर

{ जब हमे बोध हो जाता है कि अपनी स्थिति के लिए हम जिम्मेदार है , दूसरा कोई नही , उस क्षण हमारे अन्दर क्रान्ति आती है | हमारा रूपांतरण हो जाता है -- दुःख से सुख की ओर }

मैं एक कालेज में प्रोफ़ेसर था | नया - नया वह पहुचा था | कालेज बहुत दूर था गाँव से | सभी प्रोफ़ेसर अपना खाना साथ लेकर आते थे और दोपहर को एक टेबल पर इकठ्ठे होते थे | संयोग की बात थी कि जिनके पास बैठा था , उन्होंने अपना टिफिन खोला , झांककर देखा और कहा , ' फिर वही आलू की सब्जी और रोटी | " मुझे लगा कि उन्हें शायद आलू की सब्जी और रोटी पसंद नही है | मैं वहा नया था , इसीलिए कुछ नही बोला | दूसरे दिन फिर वही हुआ | उन्होंने डब्बा खोला और फिर कहा ' फिर वही आलू की सब्जी और रोटी | ' मुझसे रहा नही गया , मैंने कहा , ' अगर आलू की सब्जी और रोटी पसंद नही तो अपनी पत्नी को कहे कि कुछ और बनाये | ' उन्होंने कहा -- ' अजी , पत्नी कहा है , मैं खुद ही बनाता हूँ |'

यही हमारा जीवन है | कोई है ही नही | हम हंस रहे हो या रो रहे हो , इसका जिम्मेदार कोई भी नही | जिम्मेदार है तो सिर्फ हम | हो सकता है कि ज्यादा रोने से हमारी रोने की आदत बन गयी हो | हम हँसना भूल गये हो | यह भी हो सकता है कि हम इतने रोये हो कि हमसे अब कुछ और करते बनता नही | यह भी हो सकता है लम्बे समय तक रोते हुए हमे याद न हो कि रोने का आप्शन तो खुद हमने ही चुना था | लेकिन भूलने से सत्य असत्य नही होता | अगर तुमने ही चुना है , तो तुम ही मालिक हो | जिस क्षण तुम यह तय करोगे , उसी क्षण रोना रुक जाएगा | '' मैं ही मालिक हूँ , मैं ही सृष्टा हूँ , जो भी मैं कर रहा हूँ उसके लिए मैं ही जिम्मेदार हूँ | इस बोध से भरने के बाद जीवन में क्रान्ति हो जाती है | जब तक तुम - दूसरे को जिम्मेदार समझोगे , तब तक क्रान्ति असम्भव है , क्योकि तब तक तुम दूसरो पर निर्भर रहोगे | तुम सोचते हो की दूसरे तुम्हे दुखी कर रहे है , तो फिर तुम कैसे सुखी हो सकोगे ? क्योकि दूसरो को बदलना तुम्हारे हाथ में नही | तुम्हारे हाथ में तो केवल स्वंय को बदलना है | अगर तुम सोचते हो कि तुम्हारे भाग्य में ही विधाता ने यह लिख दिया है , तो तुम एक परतंत्र यंत्र हो जाओगे | दरअसल , जो पीड़ा तुम भोग रहे हो , यह निर्णय का फल है | जिस दिन तुम निर्णय बदलोगे , उसी दिन जीवन बदल जाएगा | जीवन को देखने के ढंग पर ही सब कुछ निर्भर करता है | मैं मुल्ला नसरुद्दीन के घर में मेहमान था | सुबह बगीचे में घूमते वक्त अचानक देखा की नसुरुद्दीन की पत्नी ने एक प्याला नसरुद्दीन के सिर की तरफ फेंका | नसरुद्दीन ने सिर झुका लिया | प्याला दीवार से टकराकर चकनाचूर हो गया | नसरुद्दीन ने भी देख लिया कि मैंने देख लिया है | वह बाहर आया और उसने कहा , '' क्षमा करे , आप कही कुछ और न सोच लें , हम दोनों बड़े सुखी है | कभी - कभार पत्नी चीजे फेंकती है , मगर इससे हमारे सुख में कोई भेद नही पड़ता | ' मैं थोड़ा हैरान | मैंने पूछा कैसे ? ' तो उसने कहा , ' अगर उसका निशाना लग जाता है तो वह खुश होती है अगर चूक जाता है तो मैं खुश होता हूँ | कभी निशाना लगता है , कभी चूकता है | सो हम दोनों खुश रहते है | '

जिन्दगी देखने के ढंग पर निर्भर करता है | जिन्दगी को तुम ही बनाते हो , तुम ही देखते हो और फिर तुम ही व्याख्या करते हो | तुम्हारे संसार में कोई दूसरा प्रवेश नही करता | लेकिन इस सोच में एक कठिनाई है , इसीलिए तुम इसे भूले हुए हो | कठिनाई यह है कि जब अनुभव करोगे की मैं ही जिम्मेदार हूँ , तब तुम दुखी न हो सकोगे अगर दुखी होना चाहते हो तो शिकायत नही कर सकोगे | तब तुम्हे दुखी होने और शिकायत करने का रस नही मिल सकेगा |
दुखी होने से भी बड़ा रस है , क्योकि जब तुम दुखी होते हो तब तुम सहानुभूति मांगते हो | सहानुभूति में भी बड़ा रस है | इसीलिए तो लोग अपने दुःख की कथा एक दूसरे को बढा - चढा कर सुनाते है | क्या कारण है कि लोग दुःख की इतनी कथा सुनाते रहते है | कोई सुनना भी नही चाहता | कौन उत्सुक होगा तुम्हारे दुःख में ? दूसरे दुःख की बाते सुनकर दूसरा भी उदास होगा दूसरा तभी तक सुनता है , जब तक उसे आशा रहती है कि तुम भी उसका दुःख सुनोगे |
यह एक समझौता है --- तुम हमे उबाओ हम तुम्हे उबाये | तुम अपने दुःख की कथा कहकर हमे परेशान करो हम अपने दुःख की कथा कहकर तुम्हे परेशान करे |
इंसान दुःख कि चर्चा इसलिए करता है उसके दुःख की बात सुनकर कोई उसे पूचकारेगा | इस तरह तुम दुःख के माध्यम से दुसरे का प्रेम मांग रहे हो | जब भी तुम दुखी होते हो , तभी तुम्हे थोड़ी - सी आशा चारो तरफ से मिलती है | लोग तुम्हे सहारा देते मालुम पड़ते है | हालाकि सहानुभूति कचरा है , लेकिन प्रेम के लिए वही निकटतम पूरक है | जिसको असली सोना न मिला हो वह फिर नकली सोने से काम चलाने लगता है | सहानुभूति नकली प्रेम है | प्रेम को तो अर्जित करना पड़ता है , क्योकि प्रेम केवल उसी को मिलता है , जो प्रेम दे सकता है | प्रेम दान का प्रतिफलन है | तुम देने में असमर्थ हो , तुम सिर्फ मांग रहे हो | तुम भिखमंगे हो सम्राट नही | भिखमंगे को रास्ते पर देखो | वह झूठे घाव अपने शरीर पर बनाकर बिलकुल दुःख से भरा होता है | तुम्हारे लिए ' न ' करना मुश्किल हो जाता है | ग्लानि होती है , इतने दुखी आदमी को कैसे ' न ' करो | अगर वह स्वस्थ्य तगड़ा है , तो तुम कहोगे की '' काम करके कमाओ | '' लेकिन दुखी आदमी को देखकर तुम बोल नही पाते | तुम्हे सहानुभूति दिखानी ही पड़ती है -- झूठी ही सही |

तुम दुःख को इसलिए पकडे हो , क्योकि तुम्हे प्रेम नही मिला | जिसको प्रेम मिला है जीवन में , वह आनन्दित होगा | वह आनन्द को पकड़ेगा , दुःख को नही | लेकिन तुम्हे सुविधा महसूस होती है शिकायत करने में | जब भी तुम कहते हो की दूसरे तुम्हे दुखी कर रहे है तब जिम्मेदारी का बोझ हट जता है | ' जब मैं तुमसे कहता हूँ सारे बुद्द -- लोगो ने एक ही बात कही है कि तुम ही जिम्मेदार हो कोई और नही , तब तुम्हे बड़ा बोझ मालुम पड़ता है कि अब शिकायत तुम किसी पर लाद नही सकते | उससे भी बड़ा बोझ इस बात का पड़ता है अगर तुम जिम्मेदार हो तो , सहानुभूति किससे मागोगे ? तब यह कठिनाई खड़ी होती है कि अगर तुम ही जिम्मेदार हो तो तुम्हे बदलाव करना होगा और बदलाव करना एक क्रान्ति है | एक रूपांतरण से गुजरना है | तुम्हारी पुरानी आदते है , वे सभी तोडनी होगी |

तुम्हारा एक पुराना ढाचा है , वह गलत है | अब तक जो तुमने ' मकान ' बनाया है , वह पूरा गलत है | लेकिन तुमने ही बनाया है | चाहे कितना ही बड़ा बना लिया हो उसे गिराना पडेगा | इससे तुम्हे अतीत का सारा श्रम व्यर्थ होता महसूस होता , इसलिए तुम इस सत्य से बचने की कोशिश करते हो | लेकिन जितना तुम बचोगे उतना ही तुम भटकोगे |
तुम्हे यह बात समझ लेनी चाहिए कि तुम ही अपने अस्तित्व के केंद्र हो | इसका कोई जिम्मेदार नही | इस सत्य को अगर स्वीकार कर लोगो तो जल्द ही सारे दुःख खो जायेगे | क्योकि , एक बार यह साफ़ हो जाए की मैं ही अपना खेल बना रहा हूँ , तो मिटाने में कितनी देर लगती है ? तब आरोप लगाने के लिए कोई दुसरा नही होगा | अगर तुम दुःख में ही रस लेना चाहते हो , तो तुम्हारी मर्जी |

गीतकार गुलजार कहते है -- जब ओशो आपको खुदा की खोज की बात कहते है , तब वे आपको खुद को ही तलाश में भेज रहे होते है \ ओशो के साथ जो सबसे खुबसूरत बात मैं महसूस करता हूँ , वह यह कि उन्होंने किसी एक सम्प्रदाय की , किसी एक मजहब की तरफदारी नही की | वे कहते है , आओ हम इंसान के तौर पर मिले और एक दूसरे को खोजे | उन्होंने कोई ऐसी बंदिश या कोई ऐसा अहाता नही बाधा कि आप इसको मानते है , तो इस तरफ आइए और उसको मानते है तो उस तरफ चले जाइए |

फिल्म अभिनेता विनोद खन्ना कहते है ओशो से मिलने के बाद मेरा साक्षी इतना प्रखर हो गया कि मैं कुछ भी करू , मेरी सजगता खोटी नही | अब अभिनय सिर्फ फिल्मो तक ही सिमित नही है , वह पूरे जीवन पर फ़ैल गया है | जीवन ही मुझे पूरा का पूरा अभिनय जैसा ही लगने लगा है | मैं कह सकता हूँ की अभिनेता तो आसानी से ध्यान में उतर सकता है | वह इतनी बार रोल और चेहरे बदलता है कि उसके लिए उसका मूल चेहरा खोजना कोई मुश्किल काम नही |

प्रस्तुती -- सुनील दत्ता - स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक
------------------------------------ साभार -- 10दिसम्बर 2014 ''दैनिक जागरण वाराणसी ''

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