Friday, January 9, 2015

व्यवस्था ने आत्महत्याएं करवा दीं 9-1-15

व्यवस्था ने आत्महत्याएं करवा दीं

बुन्देलखण्ड में सैकड़ो किसानो द्वारा आत्महत्या
{ ये आत्महत्याए केवल सरकारों की उपेक्षा के ही परिणाम नही है , बल्कि देश में बीस सालो से लागू वैश्वीकरणवादी नीतियों तथा डंकल प्रस्तावों जैसे नीतिगत बदलाव के भी परिणाम है | }
16 जून 14 के 'दैनिकजागरण ' में बुन्देलखण्ड में सैकड़ो किसानो के आत्महत्या की सूचना दी गयी है | साथ ही यह भी सूचना दी गयी है कि हाईकोर्ट ने इस सम्बन्ध में दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के पश्चात केंद्र व राज्य सरकार से एक माह में इन आत्महत्याओं के बारे में स्पष्टीकरण माँगा है | न्यायालय ने कृषि ऋण वसूली के मामले में उत्पीडन कारवाई पर रोक लगा दी है | पिछले आठ - दस सालो से विभिन्न प्रान्तों से किसानो कि आत्महत्याओं की सूचनाये आती रही है | सरकारी एवं गैरसरकारी आकड़ो के अनुसार अब तक आत्महत्या कर चुके किसानो की कुल संख्या ढाई लाख से उपर पहुच चुकी है | इनमे से ज्यादा किसान महाराष्ट्र , कर्नाटक व आंध्र प्रदेश से रहे है | यह भी सुचना है कि इन प्रान्तों में आत्महत्या कर रहे अधिकतर किसान व्यावसायिक खेती करते रहे है बाज़ार में कृषि उत्पादनों की गिरती मांग और गिरते मूल्य - भाव के कारण किसानो के उपर खेती के लिए उठाये गये कर्जो का बोझ बढ़ता रहा | उसे न दे पाने और प्रताड़ित किये जाते रहने के फलस्वरूप ही उन्होंने अपना जीवन समाप्त कर लिया | व्यावसायिक खेती में लगे ज्यादातर किसानो के आत्महत्या की यही कहानी है | जाहिर सी बात है उनकी आत्महत्या के लिए बढती कृषि लागत तथा कृषि उत्पादों की अनिश्चित व डावाडोल बिक्री बाज़ार के साथ कर्ज़ देने वाली सरकारी व गैरसरकारी संस्थाए भी जरुर जिमेदार है | सरकारी कर्ज़ की अदाएगी न होने पर आर ० सी ० कटने , किसानो को जेल भेजने जैसी कारवाई तथा माइक्रोफाइनेंस व प्राइवेट महाजनों के और भी ज्यादा जालिमाना उत्पीडन की कारवाइयो कि खबरे व सूचनाये भी आती रही है | अब किसानो की आत्महत्याओं का सिलसिला झारखंड . छत्तीसगढ़ और बुन्देलखण्ड जैसे पिछड़े और खेती के अविकसित इलाको में बढ़ रहा है | झारखंड से भी किसानो की आत्महत्या की खबरे पिछले कई सालो से ये खबरे आती रही है कही वंहा वर्षा की कमी के साथ - साथ सिंचाई के साधनों की भारी कमी - किल्लत विद्यमान है | हर साल फसलो का खासा हिस्सा सूखे की भेट चढ़ता रहा है | इन खबरों पर भी सरकारों का जबाब कभी - कभार के पैकेजों के अलावा भारी उपेक्षा व निष्ठुरता का भाव रहा है | सिचाई की बेहतर व स्थाई व्यवस्था को बढावा देने का कोई भी पुख्ता काम सरकार द्वारा नही होता रहा | इसके फलस्वरूप भी सैकड़ो किसान गरीबी , भुखमरी के संकटों में फंसते रहे | हर तरह से निराश होकर भी वे ख़ुदकुशी के लिए मजबूर होते रहे |
उच्च न्यायालय ने सैकड़ो की संख्या में हुई किसानो के आत्महत्याओं पर केंद्र व प्रांत सरकारों को स्पष्टीकरण का नोटिस तो जारी किया है , परन्तु एक माह का समय देने के साथ | इसके बाद अदालती कार्यवाई शुरू होगी | बहसों के बाद किसी फैसले के रूप में पूरी भी हो जायेगी | लेकिन जीवन के गम्भीर संकटों में फंसी किसानो व खेतिहर मजदूरों की जिन्दगिया उसका इन्तजार नही कर सकती | फिर अगर बुंदेलखंड के किसानो के हित में कोई फैसला आ भी जाता है तो किसानो के आत्महत्या के रोके जाने का कोई रास्ता निकलने वाला नही है | क्योंकि वे रास्ते उसी केन्द्रीय - प्रांतीय बिधायिका व कार्यपालिका को ही निकालना है जो आज तक अन्य प्रान्तों में और इस प्रांत में भी किसानो की बढती समस्याओं के प्रति उपेक्षा व निष्ठुरताका भाव दिखाती आ रही है | उनकी समस्याओं का स्थाई समाधान खोजने की जगह विकास के नाम पर उनकी उपजाऊ जमीनों को भी उनसे छीनकर उनका अधिग्रहण करती जा रही है | किसानो की समस्याओं को हटाने - मिटाने की जगह किसानो को ही हटाती - मिटाती जा रही है | पिछले दस - पन्द्रह सालो से कृषि व किसानो के इन संकटों को नीतिगत रूप से बढाती रही केन्द्रीय व प्रांतीय सरकारों से यह उम्मीद नही की जा सकती है कि , आत्महत्याओं कि खबरों से या न्यायालयी हस्तक्षेपो से सरकारे बुंदेलखंड के पिछड़े पन को दूर करने का प्रयास करेगी |उल्टे यह लगभग सुनिश्चित है की अब झारखंड , बुंदेलखंड जैसे पिछड़े इलाको में किसानो की आत्महत्याओं का बढ़ता सिलसिला पूर्वी उत्तर प्रदेश जैसे पिछड़े इलाको में भी बढ़ जाएगा | क्योंकि ये आत्महत्याए केवल सरकारों की उपेक्षा के परिणाम नही है , बल्कि देश में बीस सालो से लागू वैश्वीकरण नीतियों तथा डंकल प्रस्तावों जैसे नीतिगत बदलावों के भी परिणाम है | इन नीतिगत बदलावों का देश दुनिया के धनाढ्य व उच्च हिस्से तथा सत्ता - सरकारे पूरे देश पर लागू करने में लगी हुई है | 70% जनसाधारण से आम किसानो व मजदूरों से उनकी जीविका तथा जीवन के बुनियादी अधिकारों को यह व्यवस्था उनसे छिनती जा रही है साथियो आगे आइये यह समस्या सिर्फ किसानो कि ही नही है बल्कि आमजन की है |
सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक

3 comments:

  1. सार्थक प्रस्तुति।
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (10-01-2015) को "ख़बरची और ख़बर" (चर्चा-1854) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. जानने योग्य बातें सामने लाना भी ,सचेत करने के लिए आवश्यक है -आपका आभार 1

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  3. आदरणीय प्रतिभा जी आपने मेरे आलेख पे ध्यान दिया आशीर्वाद दिया आपका शुक्रगुजार हूँ .. आभार

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