अंहकार ---------
सदाशिव स्वामी अपने गुरु के आश्रम में रहकर वेदान्त का अध्ययन कर रहे थे | एक दिन गुरु आश्रम में एक विद्वान् पंडित पधारे | उनका किसी विषय पर सदाशिव स्वामी से विवाद हो गया | सदाशिव स्वामी ने अपने तर्को से पंडित जी के तर्को को तहस - नहस कर डाला | सदाशिव स्वामी की प्रकांड विद्वता के सामने पंडित जी की एक न चली और आखिर में उन्हें सदाशिव स्वामी से क्षमा -- याचना करना पडा | इस घटना ने सदाशिव स्वामी को पुलकित कर दिया | उन्होंने यह सोचकर गुरु जी को ये घटना सुनाई कि वे प्रसन्न होकर उनकी पीठ थपथपायेगे, लेकिन हुआ ठीक उलटा | गुरु ने सदाशिव को फटकार लगाते हुए कहा -- सदाशिव श्रेष्ठ चिंतन की सार्थकता तभी है , जब वह श्रेष्ठ चरित्र बने और श्रेष्ठ चरित्र तभी सार्थक है , जब वह श्रेष्ठ व्यवहार बनकर प्रगट हो | तुमने वेदान्त का चिंतन तो किया , पर ज्ञाननिष्ट साधक का चरित्र नही गढ़ सके और ना ही वैसा व्यवहार करने में समर्थ हो पाए | अस्तु तुम्हारे अब तक के अध्ययन -- चिंतन को बस धिक्कार योग्य ही माना जा सकता है | गुरु के वचनों को सुनकर सदाशिव स्वामी का अंह भाव चूर - चूर हो गया उन्होंने विनम्र भाव से पूछा -- गुरुदेव हम अपना व्यक्तित्व किस प्रकार गढ़े ? तब गुरुदेव बोले वत्स व्यक्तित्व को गढने के लिए पहले अपने विचारों में उसकी रूपरेखा स्पष्ट होना चाहिए | दूसरी अहम बात यह है कि उद्देश्य के अनुरूप चिंतन के अलावा कोई भी दूसरा विरोधी विचार या चिंतन मन में प्रवेश न करने पाए और तीसरा तथ्य यह है कि उद्देश्यपूर्ण विचार की प्रगाढ़ता निरंतर बनी रहे | मनन और निदिध्यासन निरंतर होता रहे | ऐसे प्रगाढ़ चिंतन से ही तदनुरूप चरित्र का निर्माण होता है | लेकिन ध्यान रहे कि चिंतन स्वंय के चरित्र को चिनिर्मित करने के लिए होता है , न कि दूसरे के तर्क को पराजित करके स्वंय के अंह की तुष्टि के लिए | तर्क - कुतर्क करने वाले का चिंतन कभी भी तदनुरूप चरित्र का निर्माण नही कर पाता है | इसके विपरीत यदि तर्क - कुतर्क से बचा जाए तो सर्वथा एक नया चरित्र गढा जाता है | हम अपने जीवन में भी झुकना पसंद नही करते और अपने अंहकार के कारण तर्को के माध्यम से दूसरो को पराजित करने में लगे रहते है , इस प्रक्रिया में हमारा समय ही नष्ट होता है , जबकि हासिल कुछ नही होता | बेहतर है ऐसी प्रवृति से बचा जाए | जीवन में विनम्रता , शालीनता जैसे गुणों को अपनाए
सदाशिव स्वामी अपने गुरु के आश्रम में रहकर वेदान्त का अध्ययन कर रहे थे | एक दिन गुरु आश्रम में एक विद्वान् पंडित पधारे | उनका किसी विषय पर सदाशिव स्वामी से विवाद हो गया | सदाशिव स्वामी ने अपने तर्को से पंडित जी के तर्को को तहस - नहस कर डाला | सदाशिव स्वामी की प्रकांड विद्वता के सामने पंडित जी की एक न चली और आखिर में उन्हें सदाशिव स्वामी से क्षमा -- याचना करना पडा | इस घटना ने सदाशिव स्वामी को पुलकित कर दिया | उन्होंने यह सोचकर गुरु जी को ये घटना सुनाई कि वे प्रसन्न होकर उनकी पीठ थपथपायेगे, लेकिन हुआ ठीक उलटा | गुरु ने सदाशिव को फटकार लगाते हुए कहा -- सदाशिव श्रेष्ठ चिंतन की सार्थकता तभी है , जब वह श्रेष्ठ चरित्र बने और श्रेष्ठ चरित्र तभी सार्थक है , जब वह श्रेष्ठ व्यवहार बनकर प्रगट हो | तुमने वेदान्त का चिंतन तो किया , पर ज्ञाननिष्ट साधक का चरित्र नही गढ़ सके और ना ही वैसा व्यवहार करने में समर्थ हो पाए | अस्तु तुम्हारे अब तक के अध्ययन -- चिंतन को बस धिक्कार योग्य ही माना जा सकता है | गुरु के वचनों को सुनकर सदाशिव स्वामी का अंह भाव चूर - चूर हो गया उन्होंने विनम्र भाव से पूछा -- गुरुदेव हम अपना व्यक्तित्व किस प्रकार गढ़े ? तब गुरुदेव बोले वत्स व्यक्तित्व को गढने के लिए पहले अपने विचारों में उसकी रूपरेखा स्पष्ट होना चाहिए | दूसरी अहम बात यह है कि उद्देश्य के अनुरूप चिंतन के अलावा कोई भी दूसरा विरोधी विचार या चिंतन मन में प्रवेश न करने पाए और तीसरा तथ्य यह है कि उद्देश्यपूर्ण विचार की प्रगाढ़ता निरंतर बनी रहे | मनन और निदिध्यासन निरंतर होता रहे | ऐसे प्रगाढ़ चिंतन से ही तदनुरूप चरित्र का निर्माण होता है | लेकिन ध्यान रहे कि चिंतन स्वंय के चरित्र को चिनिर्मित करने के लिए होता है , न कि दूसरे के तर्क को पराजित करके स्वंय के अंह की तुष्टि के लिए | तर्क - कुतर्क करने वाले का चिंतन कभी भी तदनुरूप चरित्र का निर्माण नही कर पाता है | इसके विपरीत यदि तर्क - कुतर्क से बचा जाए तो सर्वथा एक नया चरित्र गढा जाता है | हम अपने जीवन में भी झुकना पसंद नही करते और अपने अंहकार के कारण तर्को के माध्यम से दूसरो को पराजित करने में लगे रहते है , इस प्रक्रिया में हमारा समय ही नष्ट होता है , जबकि हासिल कुछ नही होता | बेहतर है ऐसी प्रवृति से बचा जाए | जीवन में विनम्रता , शालीनता जैसे गुणों को अपनाए
सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (04-01-2015) को "एक और वर्ष बीत गया..." (चर्चा-1848) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
नव वर्ष-2015 की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका आशीर्वाद बना रहे
ReplyDeleteचरित्र व व्यवहार एक दुसरे के पूरक हैं व्यवहार के बिना चरित्र दिखावा, व अधूरा है, अच्छी मार्ग दर्शक बोध कथा ,
ReplyDelete