Saturday, December 13, 2014

भूख के विरुद्ध भात के लिए --- रात के विरुद्ध प्रात के लिए --------- शैलेन्द्र 14-12-14

भूख के विरुद्ध भात के लिए --- रात के विरुद्ध प्रात के लिए --------- शैलेन्द्र








स्मृतियों के पन्ने -- दर -- पन्ने खुलते रहे और भारतीय हिन्दी साहित्य के साथ ही गीत , कविता ने प्रखर विद्रोही स्वर को स्थापित किया | उसी कड़ी में एक ऐसा कविता का चितेरा इस भारतीय साहित्य व फिल्म के इतिहास में पदापर्ण किया |
कहा से बनते ऐसे गीत जो बाबस्ता लगे रूह से कंठ गुनगुना उठे | देश की आजादी मिले बरसों बीत चूका था | समाज के सरोकार भी बदल रहे थे |
रावलपिंडी में पैदा हुआ नौजवान विस्थापन का दर्द लेकर मथुरा से बम्बई पहुचा | अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को लिए '' तू जिन्दा है तो जिन्दगी के जीत पर यकीन कर अगर कही है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर ''वो बेचैन नौजवान शंकरदास केसरीलाल -- वह वामपंथी जनवादी गीतकार बम्बई के माटुंगा रेलवे वर्कशाप में बेलदार बनने की कोशिश कर रहा था और वह अपने कोशिश में कामयाब भी रहा | शंकरदास केसरीलाल अपने कार्य की समाप्ति के बाद अपने वैचारिक विचारों को एक कैनवास दे रहा था और बोल पडा तत्कालीन व्यवस्था को देखकर
'' भगत सिंह से ''
भगत सिंह इस बार न लेना काय भारतवासी की
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी
यदि जनता की बात करोगे तुम गद्दार कहलाओगे
बम्ब , सम्ब की छोडो भाषण दिया पकडे जाओगे
निकला है कानून नया चुटकी बधते बंध जाओगे
न्याय अदालत की मत पूछो सीधे मुक्ति पाओगे |
वो नौजवान लोहा तो कभी ठीक से नही जोड़ पाया | उसने शब्दों को ऐसा जोड़ा कि पूरी दुनिया उसका लोहा मानने लगी और संगीत की दुनिया उसकी आवारगी पर वाह -- वाह कह उठी |
1948 उमस भरी एक शाम एक मुशायरे में एक नौजवान अपनी कविता का पाठ कर रहा था | कविता खत्म होती है तालियों के गडगडा हट के बीच से एक व्यक्ति उसके पास पहुचता है और अपना परिचय देते हुए कहता है मेरा नाम '' राजकपूर '' है |



उस कवि का नाम शंकरदास केसरीलाल था |
राजकपूर उनकी कविता को अपनी फिल्म में लेना चाहते थर | वो क्रांतिकारी नौजवान उनकी पेशकश यह कहते हुए ठुकरा देता है कि मैं अपनी कविताओं का खरीद -- फरोख्त नही कर्ता और उसकी कलम बोल पड़ती है |
'' मरे हुए प्यारे सपनो के प्रेत नाचते अट्टाहास कर
खूब थिरकते ये हड्डी के ढाचे चर -- चरमर -- चरमर का
ढक सफेद चादर में अपनी ठठरी खोल जरा सा घुघट
संकेतो से पास बुलाती वह पिशाचनी
असमय जो घुट भरी जवानी सीनादानी
कभी -- कभी यद् आ ही जाती बिसरी
दुःख भरी कहानी
समय तीव्र गति से गतिमान था शंकर दास केसरीलाल लोहा जोड़ते रहे और राजकपूर फिल्मे बनाते रहे | उनकी कमी खर्चे का साथ नही दे पा रही थी | शंकरदास अपनी फकीरी में मस्त थे पर माँ की बीमारी ने उनको उधार के लिए राजकपूर के दरवाजे तक पहुचा दिया |
पांच सौ रुपया उस जमाने में बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी | तीन महीने बाद जब वो उधार चुकता करने गये तो राजकपूर का जबाब था वो सूद पे रुपया नही देते है और वो रुपया लेने से इंकार कर दिए |
उन्होंने शंकरदास से कहा कि अगर वो सचमुच इस कर्ज से मुक्त होना चाहते है तो उनकी फिल्मो के लिए गीत लिखे | उस समय शंकरदास केसरीलाल ने उनकी बात मन ली और उन्होंने राजकपूर की फिल्म '' बरसात '' के लिए पहला गीत लिखा
बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम
बरसात में ...
प्रीत ने सिंगार किया, मैं बनी दुल्हन
सपनों की रिमझिम में, नाच उठा मन
मेरा नाच उठा मन
आज मैं तुम्हारी हुई तुम मेरे सनम
तुम मेरे सनम
बरसात में ...
इस गीत के साथ ही शंकरदास का कायाकल्प हो चुका था और राजकपूर ने उन्हें एक नया नाम दिया ''शैलेन्द्र '' फिल्म बरसात के गीत ने शैलेन्द्र को भारतीय सिनेमा के साथ ही पुरे देश में एक गीतकार के रूप में स्थापित कर दिया |
भारतीय सिनेमा में शैलेन्द्र संगीत के नक्षत्र बन चुके थे | सिनेमा को हिन्दी का गीतकार मिल चुका था |
एक दिन राजकपूर शैलेन्द्र को लेकर अब्बास साहब के यहाँ गये | अब्बास साहब शैलेन्द्र को दो घन्टे कहानी सुनाते रहे | कोई प्रतिक्रिया न होने पर अब्बास साहब ने राजकपूर से कहा कि ये किसे पकड़ लाये हो | इतना सुनते ही शैलेन्द्र बाहर निकल आये उनके पीछे राजकपूर निकलकर पूछे क्या हुआ कविराज ? इतना सुनते ही शैलेन्द्र ने पीछे मुड़कर कहा
'' आवारा हूँ, आवारा हूँ
या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ - २
आवारा हूँ, आवारा हूँ
घर-बार नहीं, संसार नहीं
मुझसे किसी को प्यार नहीं - २
उस पार किसी से मिलने का इक़रार नहीं
मुझसे किसी को प्यार नहीं - २
सुनसान नगर अन्जान डगर का प्यारा हूँ
आवारा हूँ, आवारा हूँ इतना सुनते ही अब्बास साहब पानी -- पानी हो गये | राजकपूर शैलेन्द्र को कविराज बुलाया करते थे |
राजकपूर की मासूमियत , शैलेन्द्र के शब्द और शंकर जयकिशन का संगीत पुरे भारतीय सिनेमा में चमकता तारा बन गया था |
शैलेन्द्र एक ऐसे गीत शिल्पकार थे जो अपने अंतस मन के भीतर एक ज्वालामुखी लिए फिरते थे चाहे वो जीवन -- दर्शन हो या प्रेम का दर्शन तभी तो वो कैनवास पर लिखते है |
मिट्टी से खेलते हो बार-बार किस लिए
टूटे हुए खिलौनों से प्यार किस लिए
'' किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है |
'' वहाँ कौन है तेरा, मुसाफ़िर ! जाएगा कहाँ ?
दम ले ले घड़ी भर, ये छैयाँ पाएगा कहाँ ?
बीत गए दिन प्यार के पल-छिन
सपना बनी वो रातें
भूल गए वो, तू भी भुला दे
प्यार की वो मुलाकातें
सब घोर अन्धेरा, मुसाफ़िर ! जाएगा कहाँ ?
'' तेरा जाना
दिल के अरमानों का लुट जाना
कोई देखे
बन के तक़दीरों का मिट जाना
तेरा जाना...
'' जाने कैसे सपनों मैं खो गई अँखियाँ
मैं तो हूँ जागी मोरी सो गई अँखियाँ
'' खोया-खोया चांद, खुला आसमां
आँखों में सारी रात जाएगी
तुमको भी कैसे नींद आएगी, हो
खोया-खोया ...
'' अपनी तो हर आह इक तूफ़ान है
क्या करे वो जान कर अंजान है -
ऊपर वाल जान कर अंजान है
अपनी तो हर आह इक तूफ़ान है
ऊपर वाल जानकर अंजान है
अपनी तो हर आह इक तूफ़ान है
शैलेन्द्र की रचना शिल्प अदभुत थी एक तरफ वो विद्रोह के स्वर देते तो दूसरी तरफ प्रेम के दर्शन की कथा शिल्प को रचते सीधी सच्ची साधारण से असाधारण कर देते वो अपने गीत सिल्प से शंकर जयकिशन शैलेन्द्र के बहुत बड़े मुरीद थे और उन्होंने शैलेन्द्र से वादा किया था कि वो उनके लिखे ढेरो गीतों को लयबद्ध करंगे | बहुत दिनों तक शंकर जयकिशन ने शैलेन्द्र की सुधि नही ली तब एक दिन शैलेन्द्र ने एक चुटके पर यह लिखकर उनको दिया '' छोटी सी ये दुनिया, पहचाने रस्तें हैं
तुम कभी तो मिलोगे, कहीं तो मिलोगे तो पूछेंगे हाल
छोटी सी .
सीखा नहीं हमारे दिल ने प्यार में धीरज खोना
आग में जल के भी जो निखारे, है वोही सच्चा सोना, है वोही सच्चा सोना
छोटी सी ये दुनिया .. हिन्दी सिनेमा में शैलेन्द्र का सिक्का चलने लगा था उनके दमकते आभा मंडल के सामने हसरत जयपुरी का सूरज ढल रहा था | यहूदी , श्री 420,आवार , बरसात , वंदिनी , अनाडी , मुसाफिर , गाइड ,जिस देश में गंगा बहती है शैलेन्द्र के मर्म - स्पर्शी गीत दुनिया गुनगुना रही थी | इसी दरम्यान देवानन्द फिल्म गाइड बना रहे थे वो चाहते थे कि शैलेन्द्र इस फिल्म के लिए गीत लिखे | देवानन्द ने तय किया कि वो हसरत जयपुरी के साथ शैलेन्द्र से भी गीत लिखवायेगे | आधी रात के वक्त देवानन्द अपने बड़े भाई चेतन आनन्द के साथ उनके घर जा पहुचे पर उस वक्त शैलेन्द्र घर पर नही थे | उनको पता चला कि देवानन्द उनसे अपनी फिल्म गाइड में गीत लिखवाना चाहते है पर उनका नाम दूसरे नम्बर पर है इससे वो बहुत आहत हुए | उन्होंने जानबूझ कर इतनी कीमत मागी पर देवानन्द तय कर चुके थे कि शैलेन्द्र उनके फिल्म के लिए गीत लिखेगे | शैलेन्द्र के शर्तो पर देवानन्द तैयार हो गये | शैलेन्द्र ने फिल्म गाइड के लिए गीत लिखा '' काटो से खीच के ये आँचल तोड़ के ये बन्धन बांधे पायल ,
आज फिर जीने की तमन्ना है आज फिर मरने का इरादा है ------------
फिल्म बनने से पहले ही गाइड के गीत इतिहास रच चुके थे | साधारण शब्दों का असाधारण मानव शैलेन्द्र नई पीढ़ी के तमन्नाओं को पंख दे दिए |
शैलेन्द्र जैसा दुसरा कोई नही हुआ माध्यम वर्गीय संगीत चेतना को शैलेन्द्र ने गाँव के अभाव और अकाल की दुनिया को सिनेमा के बड़े फलक तक ले आये | सौन्दर्य के उन्होंने ऐसे सघन बिम्ब गढ़े कि उसपे काल की कोई पहुच नही थी |
गीत के सौन्दर्य प्रतिबिम्ब को शैलेन्द्र जब शब्द देते हुए जन्मभूमि के लिए कह उठते है |
'' मेरी जन्म-भूमि,
मेरी प्यारी जन्म-भूमि !
नीलम का आसमान है, सोने की धरा है,
चाँदी की हैं नदियाँ, पवन भी गीत भरा है,
मेरी जन्म-भूमि, मेरी प्यारी जन्म-भूमि !
ऊँचा है, सबसे ऊँचा जिसका भाल हिमाला,
पहले-पहल उतरा जहाँ अंबर से उजाला,
मेरी जन्म-भूमि, मेरी प्यारी जन्म-भूमि ! इसके साथ ही जब शैलेन्द्र इस कैनवास पर यह सवाल उठाते है
''पूछ रहे हो क्या अभाव है
तन है केवल प्राण कहाँ है ?
डूबा-डूबा सा अन्तर है
यह बिखरी-सी भाव लहर है ,
अस्फुट मेरे स्वर हैं लेकिन
मेरे जीवन के गान कहाँ हैं ? शैलेन्द्र की रचना शिल्प -- यथार्थ की धरातल पर दुनिया में चारो ओर अगर प्रश्न खड़ा करते थे तो एक एक आशा की किरण के साथ उत्तर भी देते थे |
'' ग़म की बदली में चमकता एक सितारा है
आज अपना हो न हो पर कल हमारा है
धमकी ग़ैरों की नहीं अपना सहारा है
आज अपना हो न हो पर कल हमारा है
ग़र्दिशों से से हारकर ओ बैठने वाले
तुझको ख़बर क्या अपने पैरों में भी छाले हैं
पर नहीं रुकते कि मंज़िल ने पुकारा है
आज अपना हो न हो पर कल हमारा है |
उनकी पहचान उनके गीत थे |
1950 में यहूदी ने शैलेन्द्र को सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्म फेयर एवार्ड दिलाया |
60 का दशक आ चुका था | मशहूर , महान महत्वपूर्ण तीनो हो चुके थे | उनके गीतों के रिदम पर दुनिया झूम रही थी | 1962 तक आते -- आते शैलेन्द्र के अन्दर का ज्वालामुखी उबाल खा रहा था फटने को उनकी रचनात्मक भूख और अंतर मन की आवाज बेचैन थी कुछ बड़ा , विशेष करने के लिए उनका मन छटपटा रहा था |
ऐसे में शैलेन्द्र ने फिल्म बनाने का निर्णय लिया | फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी '' मारे गये गुलफाम '' पर फिल्म बने '' तीसरी कसम '' इस फिल्म का नायक '' हीरामन '' तीन कसमे खता है पर इसके साथ ही शैलेन्द्र चौथी कसम खाते है |
इस फिल्म को बनाने के लिए शैलेन्द्र ने इस फिल्म में राजकपूर और व्हिदाढ़मान को लिया और निर्देशन का कार्य -- भार दिया प्रख्यात निर्देशक बासु भट्टाचार्य को | बहुत प्रयास करके शैलेन्द्र ने रेणु जी इसका संवाद लिखने को मनाया | वो इस फिल्म के एक -- एक दृश्य को को एक रचना शिल्प की तरह गढ़ रहे थे और इनके मित्र राजकपूर इस फिल्म के लिए समय नही दे पा रहे थे | फिल्म का बजट बुरी तरह बधता जा रहा था | तीसरी कसम शैलेन्द्र के लिए यातना की गली बनती जा रही थी वो पीछे नही लौट सकते थे |
एक वर्ष में बनने वाली फिल्म पांच साल में बनी |
उस फिल्म ने कैमरे की नजर से गाँव को ऐसे देखा कि पूरी दुनिया दांग रह गयी थी पर यह फिल्म बाक्स आफिस पर असफल रही | तब शैलेन्द्र ने कहा कि दोस्तों के ऐतबार पर वो कभी फिल्म नही बनायेगे | इस फिल्म के बनाने के कारण शैलेन्द्र बुरी तरह कर्ज में डूब गये |
'' कलम का कलंदर कला के कारोबार में किनारे न लग सका | इसीलिए शब्दों के जादूगर ने शराब की पनाह ली | और बोल पड़े -----
तुम काया, मैं कुरूप छाया, हैं पास-पास पर दूर सदा,
छाया काया होंगी न एक, है ऎसा कुछ ये भाग्य बदा,
तुम पास बुलाओ दूर करो, तुम दूर करो लो बुला पास,
बस इसी तरह निस्सीम शून्य में डूब रही हैं शेष श्वास,
हे अदभुद, समझा दो रहस्य, आकर्षण और विकर्षण का!
जिस ओर करो संकेत मात्र! ऐसे संकट के समय शैलेन्द्र चारो ओर से अकेले पड़ थे , पर उनका विद्रोही स्वभाव उनके जीवन के संघर्ष को ऊर्जा देता रहा और वो अपने जीवन के अंतिम काल में कह गये |
आज मुझको मौत से भी डर नहीं लगता
राह कहती,देख तेरे पांव में कांटा न चुभ जाए
कहीं ठोकर न लग जाए;
चाह कहती, हाय अंतर की कली सुकुमार
बिन विकसे न कुम्हलाए;
किन्तु फिर कर्तव्य कहता ज़ोर से झकझोर
तन को और मन को,
चल, बढ़ा चल,
मोह कुछ, औ' ज़िन्दगी का प्यार है कुछ और!
इन रुपहली साजिशों में कर्मठों का मन नहीं ठगता!
आज मुझको मौत से भी डर नहीं लगता!
शुभ्र दिन की धूप में चालाक शोषक गिद्ध
तन-मन नोच खा जाते!
समय कहता--
और ही कुछ और ये संसार होता
जागरण के गीत के संग लोक यदि जगता!
आज मुझको मौत से भी डर नहीं लगता! साधरण शब्दों के असाधारण गीतकार की कर्जदारी रहेगी सदियों | आज भी शैलेन्द्र के गीत बरबस ही होठो को छूते है तो अचानक बोल पड़ते है |
क्रान्ति के लिए जली मशाल
क्रान्ति के लिए उठे क़दम !
भूख के विरुद्ध भात के लिए
रात के विरुद्ध प्रात के लिए
मेहनती ग़रीब जाति के लिए
हम लड़ेंगे, हमने ली कसम !
छिन रही हैं आदमी की रोटियाँ
बिक रही हैं आदमी की बोटियाँ
किन्तु सेठ भर रहे हैं कोठियाँ
लूट का यह राज हो ख़तम !
सुनील दत्ता --- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

6 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (15-12-2014) को "कोहरे की खुशबू में उसकी भी खुशबू" (चर्चा-1828) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. शुक्रिया बाबू जी

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  3. बहुत बेहतरीन और मेहनत तथा गहरी समझ के साथ लिखा गया आलेख. बधाई और आभार स्वीकार कीजिए.

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  4. शुक्रिया बड़े भाई

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  5. अद्भुत आलेख ।साधुवाद दादा ।

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